अगर भाजपा जम्मू में बड़ी जीत हासिल करती है, तो पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस की उम्मीदों को बड़ा झटका लगेगा. लेकिन दोनों के लिए एक ‘सेकुलर’ पार्टी के रूप में कांग्रेस के साथ गंठबंधन सरकार बनाना अच्छा विकल्प है.
जम्मू-कश्मीर की सत्ताधारी पार्टी नेशनल कांफ्रेंस के विरोध के बावजूद भारत के निर्वाचन आयोग ने राज्य में चुनाव की घोषणा कर दी है. बाकी राजनीतिक दलों और राज्य प्रशासन द्वारा चुनाव की पूरी तैयारी के माहौल में नेशनल कांफ्रेंस अलग पड़ गयी थी. दिलचस्प है कि कांफ्रेंस द्वारा नियंत्रित प्रशासन की राय पार्टी की राय से अलग थी और उसने निर्वाचन आयोग को चुनाव करा पाने की अपनी तैयारी के बारे में सकारात्मक संकेत दिया था. स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री और उनके सहयोगियों व राज्य प्रशासन के बीच किस हद तक दूरी बनी थी.
सात सितंबर की बाढ़ की तबाही से अभी कश्मीर उबर नहीं सका है, लेकिन राज्य में आसन्न चुनाव भी अब एक सच्चाई है. हालांकि तबाही से हुई बरबादी चुनाव जैसे कार्यक्रम के लिए अनुमति नहीं देती है. लेकिन यह भी सही है कि पीड़ित लोगों के पुनर्वास का जिम्मा सरकार का है, और उन्हें वर्तमान सरकार के जिम्मे छोड़ना अनुचित होगा, क्योंकि वह राहत और बचाव कार्य में असफल रही है. तो फिर क्या राज्यपाल शासन एक विकल्प हो सकता था? यह सवाल बहस का विषय है.
नेशनल कांफ्रेंस को छोड़ कर बाकी सभी पार्टियां बड़े जोर-शोर से समय पर चुनाव कराने के पक्ष में थीं. कांफ्रेंस यह तर्क दे रही है कि उसने चुनाव कराने का विरोध इसलिए किया था, क्योंकि बाढ़ पीड़ितों की मदद और पुनर्वास उसकी प्राथमिकता थी. लेकिन पिछले दिनों के राज्य सरकार के काम-काज और फैसलों पर नजर डालें, तो उमर अब्दुल्ला और उनकी पार्टी के नेताओं के बयान आधारहीन हैं. चूंकि चुनाव आयोग ने कुछ सप्ताह पहले समय पर चुनाव कराने की मंशा जाहिर कर दी थी, तब राज्य की गंठबंधन सरकार ने वह सब करना शुरू किया, जो उसने पिछले छह वर्षो में नहीं किया था.
सरकार ने शर्मनाक तरीके से राजकोष पर बोझ बढ़ाते हुए 400 से अधिक प्रशासनिक इकाईयां सृजित कीं. यह सब सिर्फ अपने वोट बैंक को संतुष्ट करने के लिए किया गया. ऐसा करके वे राज्य को कहां ले जा रहे हैं, जिसे पहले से ही भीख का कटोरा कहा जाता है! मंत्री बाढ़ पीड़ित क्षेत्रों का दौरा करने के बजाय विभागों, तहसीलों, कॉलेजों आदि के उद्घाटन में तसवीरें खींचवा रहे थे. चुनाव की घोषणा तक किसी जवाबदेही के न होने की स्थिति में गंठबंधन ने यथासंभव अवैध और अव्यावहारिक कार्य करने की कोशिश की.
साल 2002 से ही राज्य में गंठबंधन की सरकारें रही हैं. जम्मू क्षेत्र से सीटें जीत कर कांग्रेस दो बार सरकार बनवाने की निर्णायक स्थिति में रही. लेकिन बीते लोकसभा चुनावों ने उसके समीकरण को बिगाड़ दिया है. जम्मू और लद्दाख की तीनों सीटें भाजपा के खाते में गयीं, जबकि लद्दाख कांग्रेस का गढ़ था. इसी तरह कश्मीर की सारी सीटें पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने नेशनल कांफ्रेंस से छीन ली. हालांकि विधानसभा में 44 से अधिक सीटें जीतने का भाजपा का सपना भले पूरा न हो, लेकिन उसके मजबूत उभार की पूरी संभावना है. जम्मू में लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत का माहौल अभी बरकरार है. इस हिस्से की 37 सीटों में से अधिक-से-अधिक सीटें जीतने का भाजपा का इरादा है. हालांकि, इनमें से 15 सीटें मुसलिम बहुल हैं, लेकिन वहां भाजपा उत्तर प्रदेश की तरह हिंदू मतों के ध्रुवीकरण की कोशिश में है.
इन सीटों पर भाजपा की जीत की संभावनाएं हैं, क्योंकि उसके विरोधी मत नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी और कांग्रेस में बंटेंगे. अधिकतर सीटों पर मुकाबला चौतरफा है. जम्मू में भाजपा को बढ़त है और उसे जो भी सीटें मिलेंगी, उससे कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस का नुकसान होगा. पाकिस्तान के प्रति कड़ा रुख रखने का असर जम्मू में होता है और इसीलिए मोदी सरकार ने सेना को पाकिस्तानी सेना से निपटने के ‘अधिकार’ दिये हैं. हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे भी जम्मू में असर डालेंगे. कश्मीर क्षेत्र में ‘कई’ सीटें जीतने का भाजपा का सपना तो शायद पूरा नहीं हो सकेगा, लेकिन कश्मीरी पंडित बहुल एक सीट उसे मिल सकती है.
अगर भाजपा जम्मू में बड़ी जीत हासिल करती है, तो पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस की उम्मीदों को बड़ा झटका लगेगा. लेकिन दोनों के लिए एक ‘सेकुलर’ पार्टी के रूप में कांग्रेस के साथ गंठबंधन सरकार बनाना अच्छा विकल्प है. अगर भाजपा को सीटें मिलती हैं, तो बड़ी पार्टी के रूप में पीडीपी या नेशनल कांफ्रेंस के लिए केसरिया जत्थे के साथ सरकार बना पाना कठिन होगा. ध्यान रहे, भाजपा की महत्वाकांक्षाएं ऊंचे लक्ष्य की ओर केंद्रित हैं. उसका लक्ष्य राज्य में 44 सीटें और हिंदू मुख्यमंत्री है. ये महत्वकांक्षाएं भले ही उसकी क्षमता से अधिक दिख रही हों, लेकिन उसकी बड़ी ताकत के रूप में उभार की संभावना को नहीं नकारा जा सकता है. (अनुवाद : खुशहाल सिंह)
शुजात बुखारी
वरिष्ठ पत्रकार
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