झारखंड में चुनाव का बिगुल बजे चार दिन हो चुके. पहले चरण की अधिसूचना भी जारी हो चुकी है. पर राजनीतिक दलों का रवैया सुस्त है. ऐसा प्रतीत होता है कि चुनाव को लेकर राजनीतिक दलों की तैयारियां अधूरी है. अधिकांश दलों ने अभी तक उम्मीदवारों की सूची भी जारी नहीं की है. किसे किस सीट से टिकट देना है या देना चाहिए इसे लेकर पार्टियों के अंदर खींचतान है. उम्मीदवारों को तो छोड़िए पार्टी आलाकमान तक को नहीं पता कि कहां से कौन उम्मीदवार होगा. इससे बड़ी हास्यास्पद स्थिति और क्या होगी कि कहां तो नाम दाखिल करने की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है और पार्टियां अपने उम्मीदवार तक तय नहीं कर पायी हैं. यह एक तरीके से जनता को धोखे में रखने जैसा है.
और तो और अभी तक किसी भी पार्टी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र भी जारी नहीं किये हैं. आखिर जनता किसी पार्टी को किस एजेंडे और किन मुद्दों को लेकर पसंद और नापसंद जाहिर करे, यह भी मझधार में है. जाहिर है ऐसी परिस्थितियां दलों की न सिर्फ कमियां उजागर करती हैं बल्कि जनता और अपनी जिम्मेवारियों को लेकर वे कितनी अगंभीर हैं यह भी दर्शाती हैं. पिछले 14 वर्षो में ऐसी ही परिस्थितियों ने झारखंड को ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया, जहां वह अपने समकालीन गठित राज्यों (छतीसगढ़, उत्तराखंड) से खुद को बहुत पीछे पाता है.
लगातार राजनीतिक अस्थिरता से जूझते इस प्रदेश को बचाने और इसे उचित नेतृत्व देकर सही राह पर लाने का यह चुनाव सुनहरा मौका लेकर आया है. पर, विडंबना देखिए कि अब भी राजनीतिक दलों का रवैया काफी अरुचिकर है. हर काम आनन-फानन में करने की प्रवृत्ति से बाहर न निकलने की आदत झारखंड के पिछड़ेपन की बहुत बड़ी वजह है.
अच्छा तो यह होता कि लंबे समय से विधानसभा चुनाव का इंतजार कर रहे राजनीतिक दलों को चुनाव से संबंधित अपनी सारी तैयारियां समय रहते कर लेनी चाहिए थी. ताकि जनता असमंजस की स्थिति में न रहे. आखिरकार जनता को भी अपनी पसंद और नापसंद बताने और जताने का पूरा संवैधानिक अधिकार है. पिछले राजनीतिक घटनाक्रमों से भी सबक न सिखने वाले राजनीतिक दलों को प्यास लगने पर कुआं खोदने की प्रवृति से बाहर आना होगा.