गत 25 सितंबर को रामगढ़ जिले के बेहुल खुर्द गांव में तथाकथित भूख या बीमारी से मौत को समर्पित कमलेश मुंडा का मामला धीरे-धीरे अपने अंतिम पड़ाव पर है. परिवार में बचे लोगों को प्रशासन के बाद स्थानीय विधायक गोद ले चुके हैं.
इससे इतना तो तय हो गया है कि अब परिवार के लोगों को दो जून की रोटी मिल सकेगी. लेकिन इस घटना ने प्रशासन और देश के सियासतदानों के लिए एक बड़ा सवाल छोड़ दिया है. वह यह भी पीयूसीएन बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्धारित किया है कि ऐसे लोग जो खाद्य सामग्री खरीदने की असमर्थता के कारण भूख से पीड़ित हैं, तो उन्हें अनुच्छेद 21 के तहत राज्य द्वारा खाद्य सामग्री मुफ्त में पाने का अधिकार है.
सवाल यह है कि रामगढ़ जिला के फिजां में ही कुछ ऐसा कि भूख से मरने की बात बेमानी है. हम सभी सावन के अंधे के समान हैं. जहां इस जिले में अरबों-खरबों रुपये का अवैध कारोबार चल रहा हो, वहां बेरोजगारी और शारीरिक व आर्थिक रूप से अक्षम लोग कैसे बचे हैं? इस घटना के बाद तो लोगों को यह सोचना पड़ रहा है कि भूख और बेरोजगारी से अब अगली बारी किसकी?
जिले में कृषि मरनासन्न है. कोयला और अवैध शराब का काला कारोबार अपने चरम पर है. अंध औद्योगीकरण के कारण पशुपालन विलुप्त होता जा रहा है. आदिवासी समाज के बीच शराब सेवन बंद करने को लेकर बोलना उनके मूल अधिकार पर हनन जैसा है. जिले में एक ऐसी अपसंस्कृति का विकास होता जा रहा है कि लोग रोजगारोन्मुखी होने के स्थान पर शराबखोरी में ज्यादा लिप्त हो रहे हैं. बेरोजगारी के कारण परिवार का भरण-पोषण करना लोगों के लिए कठिनाई पैदा कर रही है. यह ध्यान देनेवाली बात है.
प्रदीप कुमार सिंह,
बड़की पोना, रामगढ़