।। कृष्ण प्रताप सिंह ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
इधर द्विध्रुवीय राजनीति कांग्रेस और भाजपा को कुछ ज्यादा ही रास आने लगी है और वे चाहती हैं कि 2014 का मुकाबला उन दोनों के बीच ही सिमटा रहे. तीसरे किसी को वे दाल-भात में मूसलचंद से ज्यादा की हैसियत बख्शने को तैयार नहीं हैं. ऐसे में नरेंद्र मोदी को धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उनके भाजपा की कमान संभालते ही गैर भाजपा-गैर कांग्रेस दलों के संघीय या कि तीसरे मोरचे की सुगबुगाहट फिर शुरू हो गयी है. कांग्रेस और भाजपा के लिए भले ही यह बुरी खबर हो, लेकिन ‘विकल्पहीन’ देश के लिए शुभ लक्षण है.
ममता बनर्जी, नीतीश कुमार और नवीन पटनायक के संकेतों से जन्मी इस सुगबुगाहट को लेकर कांग्रेस और भाजपा की परेशानियों को समझना हो तो याद करना चाहिए कि जो तीसरा मोरचा लोकसभा के चुनाव वर्ष में भी अस्तित्व में नहीं आ सका है और वामपंथी पार्टियों तक को जिसके बनने की ज्यादा संभावना नजर नहीं आती, उसके नाम पर भी उनकी त्योरियां चढ़ जाती हैं.
दरअसल, वे तीसरे मोरचे के ‘भूत’ से कम, उसकी घटक बन सकनेवाली पार्टियों के भविष्य से ज्यादा डरती हैं और बिना मोरचा बने ही चुनाव सर्वेक्षणों में उन्हें ज्यादा सीटें मिलती देख कर परेशान हैं. दोनों को पता है कि ऐसा हुआ तो दो सौ-पौने दो सौ लोकसभा सीटें जीत कर इन्हीं पार्टियों के समर्थन से सत्तासुख पाने के उनके सपने की दुर्गति हो जायेगी. पिछले 16 सालों से वे इन्हीं के बूते तो अपनी सरकारों की स्थिरता सुनिश्चित करती रही हैं.
भाजपाई रणनीतिकार आजकल अपना यह विश्वास छिपाते भी नहीं कि उन्हें 200 सीटें मिल गयीं तो समर्थन देकर उसे 272 के जादुई आंकड़े तक पहुंचाने की इच्छुक पार्टियों की झड़ी लग जायेगी. साथ ही आरोप भी लगाते हैं कि देश में जब भी तीसरे मोरचे की सरकारें बनीं, अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायीं.
यह भूल कर कि भाजपा की पहली केंद्र सरकार तेरह दिन और दूसरी तेरह महीने में ही गिर गयी थी, वे कांग्रेस से सुर मिला कर ‘समर्थन की कीमत वसूलनेवाली’ इन पार्टियों को बार-बार स्वार्थी व मतलबपरस्त वगैरह ठहराते हैं तो सूप और छलनी वाली कहावत याद आती है. उनकी उलझन यह है कि अब ये पार्टियां अपने राजनीतिक स्वार्थो को लेकर कहीं ज्यादा सचेत व व्यावहारिक हो गयी हैं.
धर्मनिरपेक्षता, भ्रष्टाचार और नैतिकता जैसे जुमलों के उनके अपने भाष्य हैं और वे समझती हैं कि कांग्रेस और भाजपा में न तो ज्यादा नीतिगत फर्क है, न ही उनका कोई नैतिक राजनीतिक उपदेश देने का मुंह.
वैसे भी छिपा नहीं है कि कांग्रेस व भाजपा अब अपने सिकुड़े हुए आधार के कारण अकेले सरकार में आने का सपना तक नहीं देखतीं. मतदाताओं का एक बड़ा समूह कोई और विकल्प न होने पर ही उनकी ओर देखता है. लालकृष्ण आडवाणी की मानें तो जनता का दोनों से मोहभंग हो चुका है और अगला प्रधानमंत्री उस तीसरे मोरचे का भी हो सकता है, जो अभी है ही नहीं. साफ है कि कांग्रेस व भाजपा के सत्तास्वप्न इसी संभावित मोरचे के दलों के धरम-ईमान के सौदे पर निर्भर हैं.
इस रूप में ये पार्टियां इतिहास के एक ऐसे मोड़ पर खड़ी हैं कि लोकसभा चुनाव में सबसे कड़ी परीक्षा से वही गुजरेंगी और पास होने के लिए उन्हें सिद्घ करना होगा कि भारत उनके सोच में बसता है. तय करना होगा कि पिछले सोलह सालों में दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों ने देश को जो भ्रष्टाचार की स्थिरता दी है, देश को उसकी सड़ांध में ही जीने की आदत डालने को कहेंगी या किसी नये राजनीतिक प्रयोग की ओर ले जायेंगी? साथ ही सोचना होगा कि अस्पष्ट जनादेश में भाजपा या कांग्रेस के नेतृत्ववाले गठबंधनों के पलड़े ऊंचे या नीचे करने में ही खुश रहेंगी या खुद के नेतृत्व की ओर भी बढ़ेंगी?
विकल्पहीनता के भंवर में फंसे देश को निजात तो नये प्रयोगों से ही मिलेगी और वह अपने तईं न 1977 में प्रयोग से डरा था, न 1989 में और न ही 1998-99 में! क्योंकि प्रयोग हर रूप में यथास्थिति से बेहतर होते हैं.
इसलिए मोरचाविहीन पार्टियां जरूरत के वक्त नये प्रयोग से चूकीं तो इतिहास उन्हें माफ नहीं करनेवाला. अंतत: यह विश्वास ही देश को नयी ऊर्जा दे सकता है कि जब कोई रास्ता नहीं होता, तब कई रास्ते निकलते हैं.
तीसरा मोरचा एक तो भाजपा और कांग्रेस को ऐसे गुमान से महरूम रखेगा कि उनमें से एक के बदनाम होने भर से दूसरी सत्ता में आ सकती है. दूसरे, उसके रहते वे देश को अपने गठबंधनों का बंधक नहीं बना सकेंगी. ठीक है कि सारी गैरकांग्रेस-गैरभाजपा पार्टियों के बीच अपने-अपने अंतर्विरोध हैं, लेकिन भाजपा और कांग्रेस भी ऐसे अंतर्विरोधों से अछूती कहां हैं?