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सबको साथ रखना होगी बड़ी चुनौती

राजनीतिक दल आकाश में उमड़ते-घुमड़ते बादल की तरह हैं. जो टूटते हैं और फिर कुछ समय बाद आपस में जुड़ जाते हैं. ऐसा ही कुछ झारखंड की राजनीति में भी हो रहा है. कई दलों में भगदड़ जैसी स्थिति है. और हो भी क्यों न. अवसरवादी होना और समय को भांपना किसे पसंद नहीं. हाल […]

राजनीतिक दल आकाश में उमड़ते-घुमड़ते बादल की तरह हैं. जो टूटते हैं और फिर कुछ समय बाद आपस में जुड़ जाते हैं. ऐसा ही कुछ झारखंड की राजनीति में भी हो रहा है. कई दलों में भगदड़ जैसी स्थिति है.

और हो भी क्यों न. अवसरवादी होना और समय को भांपना किसे पसंद नहीं. हाल के दिनों में कई पार्टियों के नेताओं और कार्यकर्ताओं में एक दल विशेष की सदस्यता ग्रहण करने की होड़ लगी है.

वजह चाहे जो भी हो. इसी क्रम में सालखन मुमरू की अगुवाईवाली झारखंड दिशोम पार्टी ( झादिपा) का भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में विलय हो गया है. झाविमो के भी कई दिग्गज पार्टी से नाता तोड़ चुके हैं. इनमें समरेश सिंह, निर्भय शाहाबादी, फूलचंद मंडल, जयप्रकाश सिंह भोक्ता और चंद्रिका महथा जैसे बड़े नेता शामिल हैं. खबर है कि आनेवाले दिनों में इसी पार्टी के कई और नेता भाजपा की ओर रुख कर सकते हैं. जनता दल यूनाइटेड (जदयू) भी इससे अछूता नहीं हैं.

राजा पीटर समेत कई नेताओं ने भाजपा की सदस्यता ले ली है. अब सवाल यह उठता है कि क्या भाजपा इतने दिग्गजों का बोझ एक साथ उठाने के लिए तैयार है. राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं. और यह सारा खेल चुनाव से पहले हो रहा है. निश्चय ही दल-बदल करनेवाले इन नेताओं के मन में कोई न कोई महत्वाकांक्षा होगी और यहीं से भाजपा की कठिन परीक्षा शुरू होगी. टिकट को लेकर सिर फुटव्वल की नौबत आ सकती है. सबको खुश करना भाजपा के लिए कठिन चुनौती साबित हो सकता है.

साथ ही यह भी बहुत संभव है कि चुनाव से ठीक पहले भाजपा में शामिल होनेवाले ऐसे कुछ नेताओं को जोर के झटके भी धीरे से लग सकते हैं. इस पर भी ध्यान देना होगा. किसी भी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता की यह दिली इच्छा होती है कि वह पार्टी टिकट से चुनाव लड़े. ऐसे में भाजपा के सामने यह चुनौती होगी कि वह कैसे अपने पुराने नेताओं और कार्यकर्ताओं को साथ रखेगी. साथ ही हाल ही में पार्टी ज्वाइन करनेवाले नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच सामंजस्य बनाये रखना भी पार्टी के लिए अहम होगा. बड़ा सवाल यह भी है कि कल तक भाजपा को कोसने वाले नेताओं की दिलचस्पी अचानक उसमें क्यों बढ़ गयी है? निश्चित तौर पर इसके पीछे सत्ता का ही गणित है.

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