डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
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पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट का एक आदेश सुर्खियों में था, जिसमें उसने करीब दस लाख से ज्यादा आदिवासियों को वन भूमि से बाहर निकालने का आदेश दिया था.
जनजातीय मंत्रालय के अनुसार, देशभर में 2018 तक बीस लाख के आसपास आदिवासियों के वन-भूमि पर दावे को खारिज कर दिया गया था. इस आदेश से हलचल मच गयी थी. आदिवासियों के साथ अब तक हुए औपनिवेशिक व्यवहार पर चर्चा शुरू हुई. एक संवैधानिक देश की सबसे बड़ी न्यायिक संस्था द्वारा दिया गया फैसला असंवैधानिक और औपनिवेशिक कैसे हो सकता है? यह बहस संवैधानिक व्यवस्था की है.
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला अप्रत्याशित नहीं था. वन अधिकार कानून के बचाव में सरकार ने अपनी तरफ से कोई पहल नहीं की. सरकार की तरफ से कोई भी वकील अपना पक्ष रखने नहीं आया.
परिणामस्वरूप, सुप्रीम कोर्ट ने वन एवं वन्य जीवों के लिए काम करनेवाले गैर-सरकारी संगठनों के पक्ष में अपना फैसला दे दिया. जंगल एवं जंगल से जुड़े आदिवासियों का सवाल औपनिवेशिक समय से भी पहले का है, लेकिन तब यह सवाल वैधानिक तरीके से आदिवासियों के साथ जुड़ा था.
औपनिवेशिक समय में जंगल को राजस्व का हिस्सा मान लेने के बाद से ही आदिवासियों को उनके मूल निवास से बेदखल करने की प्रक्रिया शुरू हो गयी थी. लेकिन आजादी के बाद एक संवैधानिक देश में इस तरह की बेदखली हमारी व्यवस्था पर सवाल खड़ी करती है. इसे संवैधानिक व्यवस्था की असफलता माना जाये? या, संविधान में निहित प्रावधानों के क्रियान्वयन की समस्या? क्या आदिवासी अस्तित्व का सवाल संविधान के विचार से नहीं जुड़ा हुआ है?
जब हम संविधान बचाने की बात करते हैं, तो हमारे सामने इसके दो पक्ष होते हैं. पहला, संविधान का मूल विचार समाप्त न होने पाये. दूसरा, संवैधानिक प्रावधानों को सुचारु रूप से लागू किया जाये. संविधान के मूल विचार हमें उसकी प्रस्तावना में दिखायी देते हैं और उसके प्रावधान व्यावहारिक जीवन में क्रियान्वित होते देखे जा सकते हैं.
ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं. यदि संविधान के मूल विचार को ही बदल दिया जाये, तो उसके प्रावधान भी स्वाभाविक रूप से बदल जायेंगे. आदिवासी या उत्पीड़ित समुदायों के संदर्भ में यह देखा गया है कि संविधान के मूल विचार अब भी उनकी पहुंच से दूर हैं. उनकी सामाजिक सुरक्षा और हितों के लिए किये गये प्रावधान क्रियान्वित नहीं हुए हैं.
मसलन, हम मोटे तौर पर पांचवीं और छठी अनुसूची की बात कर सकते हैं. यदि आज आदिवासियों के सामने अपने जल, जंगल और जमीन से बेदखली का संकट है, वे विस्थापन और पलायन की समस्या से जूझ रहे हैं, तो क्या कभी हमने इन समस्याओं के निदान के लिए इन दो अनुसूचियों को समझने की कोशिश की?
इस व्यवस्था के बावजूद यदि आदिवासी अस्तित्व का संकट लगातार बना हुआ है, तो इसका मतलब यह हुआ कि उनके हितों के लिए बनाये गये प्रावधान क्रियान्वित नहीं हुए. यानी संविधान का मूल विचार उन तक नहीं पहुंचा. इससे स्पष्ट है कि संविधान को बचाने का एक पक्ष यह भी हुआ कि उसके विचार और उसके प्रावधान जनता तक सुचारु रूप से पहुंच सकें.
आज जब नागरिकता संशोधन कानून की बात बहस के केंद्र में है और विपक्ष एवं मानवाधिकार संगठनों की ओर से संविधान बचाने की आवाज उठ रही है, ऐसे में आदिवासियों के संदर्भ में भी सवाल उठाना स्वाभाविक है.
पूर्वोत्तर से एनआरसी का जो ज्वलंत मुद्दा उठा, उसकी जड़ में आदिवासी अस्तित्व की भी बात थी. असम आंदोलन के दौरान उठे सवालों को पहले की और बाद की सरकारों ने जिस तरह हल करने की कोशिश की, उसका परिणाम सामने है. पूर्वोत्तर में छठी अनुसूची की उपेक्षा और मध्यवर्ती क्षेत्रों में पांचवीं अनुसूची की उपेक्षा के हिंसक परिणाम हम देख चुके हैं. संवैधानिक प्रावधानों के क्रियान्वयन की मंशा साफ न होने के कड़वे अनुभव उत्पीड़ित जनता की स्मृतियों में हैं. ऐसा करके न सिर्फ जनता को उसके मौलिक अधिकारों से वंचित किया जाता था, बल्कि इससे संविधान के मूल विचार का भी दमन होता है.
ऊपर वन अधिकार कानून के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट से आदिवासियों की बेदखली का जो आदेश आया था, उसे संवैधानिक प्रवधानों को न लागू किये जाने की मंशा का ही परिणाम माना जाना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता, तो यह फैसला भारतीय नागरिक के रूप में आदिवासियों के मौलिक अधिकार के खिलाफ नहीं होता, न ही इससे संविधान के मूल विचार का दमन होता. संविधान बचाने की बहस में संविधान के मूल विचार की रक्षा के साथ ही उसके प्रावधानों को सुचारु रूप से लागू किये जाने की बात भी शामिल होती है.
उस आदेश से बड़ी संख्या में आदिवासियों की बेदखली यह भी सवाल करती है कि सुदूरवर्ती अंचलों और जंगलों में आदिवासी जनता क्या नागरिकता कानून से स्वाभाविक रूप से प्रभावित नहीं हो जायेगी? साथ ही समान नागरिक संहिता की जो बात उठने लगी है, अगर वह कानून बनकर आ जाये, तो आदिवासियों की सुरक्षा के लिए जो विशिष्ट प्रावधान किये गये हैं, उनका क्या होगा? अगर वे संवैधानिक प्रावधान संशोधित हो जाते हैं, तो संविधान का मूल विचार कितना रह जायेगा? जब हम संविधान के मूल विचार की बात करते हैं, तो ऐसे सवालों की लंबी फेहरिस्त सामने आती है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)