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प्लास्टिकमय होते समय में

मुकुल श्रीवास्तव स्वतंत्र टिप्पणीकार sri.mukul@gmail.com कई सालों बाद कबाड़ी की आवाज सुनी, तो सोचा क्यों न घर का कुछ कबाड़ निकाल दिया जाये. कबाड़ तो काफी निकला, पर कबाड़ी के पास लेने लायक कुछ नहीं था, सिवाय कुछ किलो अखबारी कागज के. ज्यादातर तो प्लास्टिक की बोतलें और खराब मोबाइल बैटरी थी. कबाड़ी वाला अखबार […]

मुकुल श्रीवास्तव
स्वतंत्र टिप्पणीकार
sri.mukul@gmail.com
कई सालों बाद कबाड़ी की आवाज सुनी, तो सोचा क्यों न घर का कुछ कबाड़ निकाल दिया जाये. कबाड़ तो काफी निकला, पर कबाड़ी के पास लेने लायक कुछ नहीं था, सिवाय कुछ किलो अखबारी कागज के. ज्यादातर तो प्लास्टिक की बोतलें और खराब मोबाइल बैटरी थी. कबाड़ी वाला अखबार लेकर चला गया और मैं प्लास्टिक कबाड़ के उस ढेर के पास बैठा सोचने लगा. मेरे बचपन के दिन और कबाड़ी वालों के साथ अपने अनुभव याद आये.
नब्बे के दशक तक हमारे घर के कबाड़ में खूब सारे रद्दी कागज हुआ करते थे. कांच की बोतलें, शीशियां और कपड़े भी. कांच की वही बोतलें-शीशियां बेची जाती थीं, जिनका कोई इस्तेमाल नहीं हो सकता था. तब अखबार और किताबें भी खूब आती थीं. कबाड़ वाला लेकर चला जाता था.
उनका फिर से कागज बनाकर इस्तेमाल होता था. हमने अपने बचपन में अखबार से लिफाफे भी बनाये हैं. चादर खराब हुई, तो कथरी बन गयी या झोला. अगर फिर भी कसर बची हो, तो पायदान के रूप में उसका इस्तेमाल हो जाता था. उसके बाद भी अगर घर में कपड़े बचे रह गये, तो होली-दिवाली उन कपड़ों को देकर बरतन लिये जा सकते थे. यह अपने आप में कबाड़ को नियंत्रित करने का सतत चक्र था, जो पर्यावरण अनुकूल था.
फिर वक्त बदला. हम विकास के रोगी हुए. उदारीकरण यूज एंड थ्रो का कल्चर लेकर आया. ‘रिसाइकिल बिन’ घर की बजाय कंप्यूटर में ज्यादा अच्छा लगने लगा.
मेरा घर, जहां स्टील और कांच की बनी चीजें बहुतायत में थीं, वह धीरे-धीरे कम होती गयीं. जाहिर है, मेरे मिडिल क्लास मां-पिता इतने पढ़े-लिखे नहीं थे कि वे पर्यावरण की महत्ता को समझें. बस वे सस्ता-महंगा और टिकाऊ होने के नजरिये से चीजों को घर में जगह देते थे. हालांकि, हम लोग पढ़-लिख कर घर के खर्चे में हाथ बंटाने लगे. आमदनी तो बढ़ी, पर घर में बेकार कपड़ों के झोले, चादर के पायदान और पैंट काट कर नेकर बनाने का दौर नहीं लौटा.
कांच की बोतलों की जगह प्लास्टिक की बोतलें आ गयीं और धीरे-धीरे हम प्लास्टिकमय होते चले गये. बोतल-शीशी से लेकर पैकेट तक सब जगह प्लास्टिक, जिसे न तो हम घर में रिसाइकिल कर सकते थे और न ही कबाड़ी उनकी ओर टकटकी लगाकर देखता था. किचन से लेकर बाथरूम तक हर जगह एक ही चीज दिखने लगी- प्लास्टिक.
अब बात चाहे किचन में रखे जार की हो या कैरी बैग की, सब जगह प्लास्टिक ही प्लास्टिक है. प्लास्टिक जब अपना चक्र पूरा कर लेता है, तो कूड़े के रूप में हमारे घर से निकलकर कूड़ेदान और रोड तक हर जगह दिखने लगता है. न तो इनकी कोई रीसेल वैल्यू है और न ही इनके कबाड़ को नियंत्रित करने की स्वचालित व्यवस्था.हम समय की कमी का बहाना बनाकर प्रकृति से कटे और उसकी कीमत हम न जाने कितने रोगों के रोगी बनकर दिखा रहे हैं. हमने प्रकृति को जो चोटिल किया है, उसको ठीक करने में न जाने कितना वक्त लगे. शायद यही विकास है.

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