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मोबाइल इस्तेमाल का सच
आलोक जोशी स्वतंत्र पत्रकार alok.222@gmail.com फोन पर सिर्फ जरूरी बात करें. फोन पर फालतू बात न करें. ध्यान रखें, हो सकता है किसी को कोई बेहद जरूरी बात करनी हो, लाइन व्यस्त न रखें. इस तरह की लाइनें पहले दूरसंचार विभाग या टेलीफोन दफ्तरों में लगे बोर्डों पर लिखी रहती थीं और टेलीफोन डायरेक्टरी के […]
आलोक जोशी
स्वतंत्र पत्रकार
alok.222@gmail.com
फोन पर सिर्फ जरूरी बात करें. फोन पर फालतू बात न करें. ध्यान रखें, हो सकता है किसी को कोई बेहद जरूरी बात करनी हो, लाइन व्यस्त न रखें. इस तरह की लाइनें पहले दूरसंचार विभाग या टेलीफोन दफ्तरों में लगे बोर्डों पर लिखी रहती थीं और टेलीफोन डायरेक्टरी के पन्नों पर भी सुंदर विज्ञापनों के रूप में दिखती थीं.
देश में मोबाइल फोन शुरू होने के बाद भी यह किस्सा खत्म नहीं हुआ था. साल 1995 में जब पहली मोबाइल सर्विस शुरू हुई, तो कॉल करने का खर्च भी सोलह रुपये मिनट था और बाहर से आनेवाली कॉल उठाने का भी. तब तक कॉलर लाइन आइडेंटिफिकेशन यानी सामनेवाले का नंबर देखने की सुविधा भी नहीं आयी थी. यह पता करने का रास्ता भी नहीं था कि कौन सा फोन उठाना है और कौन सा नहीं. तो यहां भी वही फॉर्मूला चलता था कि कम-से-कम बात करो.
सरकारी टेलीफोन पर एक रोना और था. सौ यूनिट तक कॉल सस्ती होती थी, सौ से पांच सौ तक रेट बढ़ जाता था. और पांच सौ के ऊपर तो बहुत ही ज्यादा हो जाता था. तब चुनौती यही रहती थी कि बात कम की जाये. जिन घरों में टेलीफोन होते भी थे, वहां उनका इस्तेमाल शोभा बढ़ाने के लिए ही ज्यादा होता था. लेकिन यह तस्वीर तो बदलनी ही थी.
इसका पहला संकेत 1997 में मिला. भारती एयरटेल को मध्य प्रदेश में लैंडलाइन टेलीफोन का लाइसेंस मिला था. उसकी शुरुआत इंदौर में हुई. सुनील भारती मित्तल ने हमें समझाया कि अब दुनिया कैसे बदलेगी- ‘किसी चीज के कम खरीदने पर वह महंगा मिलता है. ज्यादा खरीदने पर कुछ रियायत मिलती है. ज्यादा खरीदेंगे तो और भी ज्यादा रियायत मिलेगी. यही मेरे बिजनेस में समझिए. हमने इतना बड़ा इंफ्रास्ट्रक्चर लगाया है, एक्सचेंज लगाया, लाइनें खींची हैं. अगर लोग इसका जमकर इस्तेमाल करेंगे, तो ही हमें कमाई होगी. इसीलिए, पहले हमारे रेट आने दीजिए, तब पता चलेगा कि दुनिया कैसे बदलेगी. जो आदमी जितनी ज्यादा बात करेगा, वह उतना ही कम पैसे देगा.’
इसका दूसरा सिरा मुझे समझाया दिल्ली में एमटीएनएल के सीएमडी एस राजगोपालन ने. तब मैं एमटीएनएल दिल्ली में मोबाइल सर्विस शुरू कर रहा था. तब मोबाइल फोन बड़े लोगों के हाथ में होता था और आम तौर पर स्टेटस सिंबल ही माना जाता था. मेरा सवाल था कि एयरटेल और एस्सार जैसे बड़े खिलाड़ी बाजार में हैं. एमटीएनएल क्या खास देगा, जो इनसे अलग होगा? राजगोपालन ने कहा ‘आपको क्या लगता है, मोबाइल फोन की सबसे ज्यादा जरूरत किसे है?
मेरे जैसे आदमी को? जिसके घर पर फोन है, फोन अटेंड करके मैसेज नोट करनेवाला असिस्टेंट है. कार से मैं ऑफिस आता हूं और यहां भी पूरा इंतजाम है कि जो भी मुझसे बात करना चाहता है, उसकी खबर रजिस्टर पर नोट होती है. बस घर से दफ्तर के बीच जो वक्त लगा, वही बचेगा. प्लंबर, इलेक्ट्रिशियन या बढ़ई दिनभर घूमकर काम करते हैं. अगर उसका कोई ग्राहक उसे संदेश देना चाहे, तो कोई रास्ता नहीं है. घर के पास कहीं कोई पब्लिक फोन है, जहां से उसे संदेश मिल सकता है, लेकिन इसमें करीब पूरा दिन तो लग ही जायेगा. मोबाइल फोन की सबसे ज्यादा जरूरत तो उसी आदमी को है, और यही हमारा काम है कि हम ऐसे हर आदमी के हाथ में मोबाइल फोन पहुंचा दें.’
तब यह बात कुछ ऊंची उड़ान सी ही लग रही थी. लेकिन बाईस साल बाद आज जब याद करता हूं, तो लगता है कि राजगोपालन भविष्य देख रहे थे. वही भविष्य जो हमें नहीं दिख रहा था.
यह किसने सोचा था कि हालत यहां तक पहुंच जायेगी कि सिम भी फ्री, कॉल भी फ्री और डेटा भी फ्री मिलने लगेगा. आज ऐसी लूट मची है कि एक घर में कई-कई मोबाइल हैं. डेटा की तो वह धूम मची है कि हर आदमी की जेब में अपना टीवी, अपना थियेटर है. न्यूज देखनी हो, मैच देखना हो या लेटेस्ट फिल्म, सब कुछ मोबाइल पर मौजूद है. मुफ्त डेटा का ही प्रताप है कि सुबह होने से पहले और रात होने के बाद तक आपके मोबाइल पर तरह-तरह के संदेशों और उनके साथ वीडियो, ऑडियो, मीम और इंटरेक्टिव ग्राफिक्स की अविरल धारा बहती रहती है. वह निस्वार्थ भाव से बटन दबाता रहता है और इनबॉक्स में आनेवाली सारी सामग्री अपने सभी मित्रों और ग्रुप्स तक भेजता रहता है.
अब इस सद्कर्म में बाधा आ गयी है. जियो का महाप्रसाद वितरण रुक गया है. जियोफाइबर और जियो के मोबाइल नेटवर्क दोनों के बिल आनेवाले हैं. दूसरी कंपनियों ने भी तेजी से रेट डेढ़ गुना कर दिया है. भारी हायतौबा मची है. एक बार सोचिए. जितना डेटा आप इस्तेमाल कर रहे हैं, यदि उसका आधा करेंगे, तो क्या आपके लिए बेहतर नहीं होगा? आपकी कॉल आधी हो जायेगी, तो क्या मन की शांति नहीं बढ़ेगी?
जिनको कॉल और डेटा का इस्तेमाल करना जरूरी है, उनको इसकी कीमत चुकाने की आदत भी डालनी चाहिए. क्योंकि आप सस्ते के फेर में रहेंगे, तो कंपनियां आपकी आड़ में सरकार के पास जाकर मदद मांगती रहेंगी. अंत में वह पैसा भी आपकी ही जेब से जाना है.
यह बात जितनी जल्दी समझ लें, उतने फायदे में रहेंगे, वरना कंपनियां आपको झुनझुना दिखाकर पिछली जेब से आपका पैसा अपनी झोली में भरने का सिलसिला चलाती रहेंगी. फोन भी कीजिए और डेटा भी चलाइए, लेकिन उतना ही, जितने का पैसा भरने को आप तैयार हों. मुफ्त के फेर में अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का इंतजाम न करें.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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