इस बार दंगा बहुत बड़ा था/ खूब हुई थी खून की बारिश/ अगले साल अच्छी होगी फसल मतदान की. कवि गोरख पांडे की कविता का यह अंश पिछले दिनों अफवाह की आग में जले रांची से सटे सिलागाईं और हुरहुरी में दो गुटों में हिंसक झड़प की लपटें देख कर एक बार फिर कौंध गया.
चान्हो में जिस तरह दो गुटों में हिंसक झड़पें हुईं और समय रहते उन्हें नियंत्रित नहीं किया जा सका, उस पर शासन की ओर से दी गयी सफाई नाकाबिले बरदाश्त थी. सियासत की चाशनी लगा कर राजनीतिक दलों ने कुछ और कहा, तो कैमरे में कैद तसवीरों ने सच्चाई बयां की.
दिन भर उड़ती रही अफवाह और रह-रह कर उग्र हो रहे ग्रामीणों की दंगाई टोली, हाथों में पारंपरिक हथियारों से लैस उग्र चेहरे कुछ भी कर गुजरने की आतुर दिखे. चान्हो हिंसक झड़प की आंच को शिद्दत से महसूस करने वालों की जुबान पर अब बस यही रह गया है कि इस आग ने सैकड़ों साल पुराने रिश्तों को खाक करने की कोशिश की. हो सकता है कि चान्हो हिंसक झड़प से फायदा उठा कर कोई पार्टी या नेता सत्ता तक पहुंच जाये, लेकिन असल सवाल तो यह है कि उस भारत नाम के विचार का क्या होगा, जिसकी बुनियाद धर्मनिरपेक्षता की नींव पर रखी गयी है.
मत भूलिए कि इस विचार पर जितना ग्रहण लगेगा, शांतिपूर्ण और समृद्ध भारत का लक्ष्य उतना ही दूर होता जायेगा. हिंसक झड़प की आग में जलते चान्हो की चिंता करनेवालों ने ही चान्हो को चिता पर सुलाने का काम किया. ऐसा पहली बार हुआ कि जिन गांवों ने हमेशा सौहार्द का झंडा बुलंद रखा था, वे भरोसों को टूटने और रिश्तों के छूटने के दर्द से कराह रहे थे. आज जरूरत है अफवाहों का बाजार का गर्म करने के बजाय इस हिंसक झड़प पर भाईचारे का शीतल लेप लगाया जाये.
नवनीत कुमार सिंह, रांची