सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायर्नमेंट ने दिल्ली की दुकानों से लिये गये चिकेन के 70 नमूनों पर शोध में 40 फीसदी चिकेन में एंटीबायोटिक दवाइयां पायी हैं. इन नमूनों के 22.9 फीसदी में एक एंटीबायोटिक और 17.1 फीसदी में एक से अधिक एंटीबायोटिक मिले हैं.हालांकि इन दवाइयों की मात्रा बहुत अधिक नहीं है, पर इस शोध से दो खतरनाक संकेत मिलते हैं. एक, एंटीबायोटिक मिले मांस के निरंतर सेवन से व्यक्ति के अंदर इन दवाओं की प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो सकती है, जिसके कारण बीमारियों के लिए ली जानेवाली दवाएं असर नहीं कर सकेंगी.
दूसरा, मुर्गीपालन में लगे व्यवसायी बिना किसी नियंत्रण के ऐसी दवाओं का प्रयोग कर रहे हैं, जिससे मांसाहारी व्यक्ति के स्वास्थ्य को नुकसान होने के साथ चिकेन में भी प्रतिरोधी क्षमता बढ़ सकती है, जिस कारण उनमें बीमारियां भी बढ़ने लगेंगी. इसका खामियाजा भी अंतत: मांसाहारियों को ही भुगतना पड़ेगा. ध्यान रहे, मांस पकाने से भी इन रसायनों की मात्रा में कोई कमी नहीं आती.
विशेषज्ञ और चिकित्सक पहले से ही मांग करते रहे हैं कि खाद्य-पदार्थो और कृषि में एंटीबायोटिक के इस्तेमाल पर ठोस नियंत्रण होना चाहिए. उनका कहना है कि विभिन्न खाद्य-पदार्थो की जांच में भी ऐसे परिणाम संभावित हैं. अगर इन चेतावनियों पर ध्यान नहीं दिया गया, तो रोगों के ठीक होने में समय लगेगा और चिकित्सा के खर्च में बढ़ोतरी होगी. कई स्थितियों में मौत की संभावना भी बढ़ जायेगी.
2002 से 2013 के बीच देश के विभिन्न अस्पतालों के अध्ययनों में लोगों में सिप्रोफ्लोक्सासिन, डॉक्सीसाइक्लीन और टेट्रासाइक्लीन की प्रतिरोधक क्षमता सबसे अधिक पायी गयी है. इस शोध में चिकेन में इन्हीं तीन एंटीबायोटिक की मात्रा पायी गयी है. यह भी चिंताजनक है कि मनुष्यों के लिए प्रयुक्त होनेवाली दवाएं मुर्गो को दी जा रही हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन बहुत पहले मनुष्यों की दवाएं जानवरों को नहीं देने का सुझाव दे चुका है.
विकसित देशों में एंटीबायोटिक के प्रयोग पर कठोर नियंत्रण है. भारत में कुल मांस का 50 फीसदी पॉल्ट्री फार्मो से आता है. इसलिए सरकार को इस शोध और इसके सुझावों को गंभीरता से लेते हुए एंटीबायोटिक के इस्तेमाल को तुरंत नियंत्रित करना चाहिए.