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अमरूद नहीं ये खुशियां हैं!
मिथिलेश कु. राय युवा कवि mithileshray82@gmail.com आजकल अमरूद के पेड़ फलों से झुक गये हैं और आते-जाते लोगों के आकर्षण के केंद्र में रहते हैं. खेतों की ओर निकले कृषक और स्कूल की ओर जाते बच्चे पके अमरूदों को निहारते हुए चलते हैं. अगर कोई न हो, तो पहले दो-चार तोड़ लेते हैं, फिर आगे […]
मिथिलेश कु. राय
युवा कवि
mithileshray82@gmail.com
आजकल अमरूद के पेड़ फलों से झुक गये हैं और आते-जाते लोगों के आकर्षण के केंद्र में रहते हैं. खेतों की ओर निकले कृषक और स्कूल की ओर जाते बच्चे पके अमरूदों को निहारते हुए चलते हैं. अगर कोई न हो, तो पहले दो-चार तोड़ लेते हैं, फिर आगे बढ़ते हैं. कभी-कभी एक अमरूद के लिए दो बच्चों में उठ्ठम-पटका भी हो जाता है. यह सब पूरे सावन-भादो चलता ही रहता है.
कल पिता खिसिया रहे थे. वे बीच दरवाजे पर कुर्सी लगाकर बैठ गये थे और धमकी दे रहे थे. कह रहे थे कि गाछ को काट कर फेंक देंगे. जब तक अमरूद का सीजन खत्म न हो जावेगा, लोग चैन से रहने नहीं देंगे. उनको बोलता सुन कनिया दादी भी बोलने लगीं. कह रही थीं कि लताम के चक्कर में नाशपिटो ने फूल के पौंधों को भी रौंद दिया है.
इस झंझट को ही समाप्त करना होगा. न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी! पिता कहने लगे कि बारिश का मौसम है. गाछ हमेशा भीगा रहता है. हरदम पछिया या पुरवाई बहती रहती है, लेकिन बच्चे फुनगी तक चढ़ जाते हैं. कभी किसी को कुछ हो-हवा गया, तो दस लोग मुझे ही दोष देंगे. पिता की बात का कनिया दादी ने समर्थन किया. कहा- इस बार फल समाप्त हो, तो झंझट की जड़ खत्म कीजिये.
सड़क पर खड़े कक्का पिता और दादी का बोलना चुपचाप सुन रहे थे. पिता कह रहे थे कि जरा बाजार में जाकर अमरूद का भाव पता करे तो. चालीस का किलो मिल रहा है. यहां मुफ्त में उपलब्ध है, तो लगता है कि टहनियां-पत्ते सब तोड़ लेंगे.
कक्का ने कहा- पहले बड़े-बड़े बगीचे हुआ करते थे. एक-एक बगीचे में सौ-सौ पेड़ हुआ करते थे. उस समय टिकोले के समय से ही माली खार खाये बैठे रहते थे. पीले-पीले पके आमों पर बच्चों की झुंड की नजर पड़ती थी और उनसे रहा नहीं जाता था. वे ढेला चला देते थे. माली बिफर उठता था.
जब कक्का यह कह रहे थे, मेरी आंखों के आगे एक हसीन दृश्य तैरने लगा. आह! क्या जमाना रहा होगा! वृक्ष ही वृक्ष से दुनिया पटी रहती होगी और फल के समय लोग एक गमक को अपनी सांसों से खींचते होंगे. कक्का ने बीती बातों के तार को आज के दृश्य से जोड़ते हुए कहा- लेकिन अब तो वह समय रहा नहीं. पुराने बाग-बगीचे उजड़ गये. नये बसाये ही नहीं गये. लेकिन जहां कहीं भी ऐसे फलदार वृक्ष देखने को मिल जाते हैं, लोग उसे निहारने से अपने आप को नहीं रोक पाते.
धान की रोपाई करके कुछ मजदूरिन आ रही थीं. वे अमरूद के पेड़ के पास आकर ठिठक गयीं. एक तोता पके अमरूद खा रहा था. अमरूद के अंदर का लाल हिस्सा चमकने लगा. मैंने कहा- तोते गांव में अब नहीं दिखते!
कक्का ने बताया कि पेड़ से सबकी आस पूरी होती है. फलों के पकने का इंतजार पंछी भी करते हैं. कक्का से पूछकर मजदूरिन अमरूद तोड़ने लगीं. उन्हें एक लंबा डंडा वहीं मिल गया. जब एक अमरूद नीचे गिरता, तो उसे लपकने सारी दौड़तीं. लेकिन जिसको अमरूद मिलता, उसकी खिलखिलाहट देखते ही बनती थी. लगता था कि उसने खुशियां बटोर ली हैं!
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