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जोड़नेवाले नारों की जरूरत

प्रभु चावलाएडिटोरियल डायरेक्टरन्यू इंडियन एक्सप्रेसprabhuchawla@newindianexpress.com सियासी पार्टियों के नारे कार्यकर्ताओं तथा समर्थकों में एकता का पोषण करते हैं. पर चालू चुनाव में वे संहार तथा विभाजक उन्माद से संयुक्त सनक के शब्दों में तब्दील हो चुके हैं. ‘राम-राम’ की शब्दावली कभी हिंदुओं और मुसलिमों के बीच उभयपक्षीय अभिवादन के लिए इस्तेमाल हुआ करती थी. मगर […]

प्रभु चावला
एडिटोरियल डायरेक्टर
न्यू इंडियन एक्सप्रेस
prabhuchawla@newindianexpress.com

सियासी पार्टियों के नारे कार्यकर्ताओं तथा समर्थकों में एकता का पोषण करते हैं. पर चालू चुनाव में वे संहार तथा विभाजक उन्माद से संयुक्त सनक के शब्दों में तब्दील हो चुके हैं. ‘राम-राम’ की शब्दावली कभी हिंदुओं और मुसलिमों के बीच उभयपक्षीय अभिवादन के लिए इस्तेमाल हुआ करती थी.
मगर जब से भगवान राम का राजनीतिकरण हुआ, यह बहुमत के सांस्कृतिक उत्पीड़न का प्रतीक बन गयी. इसी तरह विभिन्न राजनीतिक रैलियों एवं सामाजिक आयोजनों में नियमित रूप से उच्चरित नारे के रूप में ‘भारत माता की जय’ पहले कभी भी एक विभाजक उदघोष नहीं रहा.
संसदीय चुनावी मुहिम के पिछले दो दौर के दौरान नरेंद्र मोदी ने पश्चिम बंगाल में ‘जय श्री राम’ बोलने पर भाजपा कार्यकर्ताओं को धमकाये जाने की घटनाओं को लेकर ममता बनर्जी से पूछा कि यदि लोग ‘जय श्री राम’ का नारा भारत में बुलंद नहीं कर सकते, तो और कहां करेंगे? इसका जवाब ममता ने ‘जय महाकाली, कलकत्तावाली’ कहकर दिया. इस तरह, पश्चिम बंगाल में ये चुनाव मोदी के राम और ममता की काली के बीच एक धर्मयुद्ध में बदल गये हैं.
नकल एक खुशामदी कदम हो सकती है, पर इन चुनावों में वह घटिया पैरोडी में बदल चुकी है. हिंदुत्व बनाम तुष्टीकरण के आरोपों के उत्तर में विपक्ष हिंदुओं के ही विभिन्न मंदिरों में जाकर अन्य देवी-देवताओं के आवाहन में लगा है और अपनी हिंदू विरासत प्रदर्शित कर भारतीय राजनीतिक कथ्य को अतिशय धर्माधारित करने में योगदान कर रहा है.
भाजपा एवं प्रधानमंत्री इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके लगते हैं कि धर्मनिरपेक्ष विमर्श तथा प्रशासनिक हस्तक्षेप साठगांठ कर सांप्रदायिक एवं सांस्कृतिक घुसपैठ के माध्यम से भारत की हिंदू पहचान मिटाने पर तुले हुए हैं.
भाजपा ने 1990 के दशक में हिंदुओं को एकताबद्ध करने हेतु एक नारा अथवा एक विचार का सहारा लिया, ताकि विंध्य के दक्षिण के अलावा पूरब में भाजपा का प्रभाव विस्तृत किया जा सके. लाल कृष्ण आडवाणी ने अपनी ‘राम रथ यात्रा’ द्वारा हिंदू राजनीतिक पुनर्जागरण का एक रोड मैप तैयार किया.
वर्ष 1992 में बाबरी मसजिद विध्वंस के पश्चात, भाजपा ने कट्टरपंथी इसलाम को जम्मू-कश्मीर के साथ ही देश के अन्य हिस्सों में आतंकी हमले फैलाने का जिम्मेदार बताया. राम मंदिर एवं धारा 370 की समाप्ति भाजपा के सबसे प्रभावी समकालीन नारे बन चुके हैं, जिन्हें उसने पूरे विपक्ष को हिंदूविरोधी रंग में रंगा बताने का माध्यम बना रखा है.
पिछले दो दशकों के दौरान भाजपा ने हिंदुओ का ध्रुवीकरण कर देनेवाले नारों को सूक्ष्मता से राष्ट्रवादी युद्धघोष में परिवर्तित कर दिया है. एक आधुनिक हिंदू राष्ट्र के प्रतीक के रूप में ‘पहले भारत’ का नारा इसकी विजय का पासवर्ड बन चुका है. पार्टी के नारे एवं मोदी की वक्तृताएं पिछले पांच वर्षों के दौरान सरकार के प्रदर्शन की बजाय राष्ट्रवाद के लिए वोट देने के आह्वान से भरी होती हैं.
यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि आदर्शों पर व्यक्तियों के हावी होने के साथ ही सियासी नारों के स्वर तथा रंग भी बदल जाया करते हैं. एक समय नारे इस तरह गढ़े जाते थे कि वे एक नेता तथा शासन के वैकल्पिक मॉडल को पेश कर सकें. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 1960 के शुरुआती दशक तक कांग्रेस भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर हावी थी.
जब इंदिरा गांधी ने देश के साथ ही पार्टी की पूरी कमान अपने हाथों ले ली, तो ‘इंदिरा हटाओ, देश बचाओ’ के नारे के साथ जनसंघ उन पर व्यक्तिवादी हमला करनेवालों में पहला था. इंदिरा की पार्टी ने ‘वे कहते हैं इंदिरा हटाओ, हम कहते हैं देश बचाओ’ के द्वारा इसका जवाब दिया. उसके बाद के चुनावों में ‘गरीबी हटाओ’ के दमदार नारे से लैस कांग्रेस ने लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत हासिल कर लिया.
हालांकि, आपातकाल के बाद वर्ष 1977 में इंदिरा बुरी तरह पराजित हुईं, पर मात्र 32 महीनों बाद वे ‘काम करनेवाली सरकार चुनिये’ के चमत्कारी नारे के बल पर अपनी शानदार वापसी में सफल रहीं, क्योंकि इस नारे ने मोरारजी-नीत जनता पार्टी की सरकार में व्याप्त अराजकता तथा गुटबाजी से मुक्ति का एक आदर्श विकल्प पेश किया.
वर्ष 2014 तक सियासी नारे हल्के-फुल्के ही रहे, जब राष्ट्रीय फलक पर ‘अच्छे दिन’ एवं ‘मजबूत भारत’ के वादे के साथ मोदी का उदय हुआ. इन शब्दावलियों ने मतदाताओं पर एक मोहक असर डाला, जो भ्रष्टाचार से लड़ने की एक मजबूत इच्छाशक्ति वाले नेता के लिए बेकरार थे.
प्रधानमंत्री के रूप में मोदी का रिकॉर्ड उनके पूर्ववर्तियों में कई से बेहतर है. फिर भी उन्होंने दोबारा चुने जाने हेतु अपना भावी एजेंडा सामने रखने की बजाय भावनात्मक आक्रमण का सहारा लेना चुना.
मोदी के कई प्रशंसक महसूस करते हैं कि उन्हें उन अंतरराष्ट्रीय नेताओं से सीख लेनी चाहिए थी, जिन्होंने चुनाव जीते अथवा वे दूसरे कार्यकाल के लिए मैदान में उतरे. साल 1979 में मार्गरेट थैचर ने श्रम यूनियनों द्वारा अपनी हड़तालों से ब्रिटिश अर्थव्यवस्था को पंगु कर देने के खतरे का फायदा उठाते हुए ब्रिटिश मतदाताओं से कहा कि ‘श्रमिक काम नहीं करते.’
बराक ओबामा ने 2008 में पहला चुनाव यह कहकर जीता कि ‘हां, हम कर सकते हैं. हां, हम इस देश के जख्म भर सकते हैं.’ दूसरी बार, वर्ष 2012 में उन्होंने अमेरिका से यह वादा किया कि वे सुधारों को आगे ले जायेंगे. डोनाल्ड ट्रंप, जिनके जीतने की कोई उम्मीद नहीं थी, लेकिन वे निराश अमेरिकी नागरिकों से यह कहते हुए ह्वॉइट हाउस पहुंचने में सफल रहे कि वे ‘अमेरिका को पुनः महान बनायेंगे.’
इसमें कोई संशय नहीं कि सारगर्भित, चुस्त तथा स्पष्ट नारे लोगों के साथ तादात्म्य बिठाने में सफल होते हैं. एक बेहतर, सुकूनदेह भविष्य की आश्वस्ति प्रदान करते भावनात्मक, काव्यात्मक एवं ध्वन्यात्मक आदर्शकथन, जिनमें व्यंग्य का पुट हो, ज्यादा वोट बटोरने की शक्ति रखते हैं.
भारत जैसे विविधतापूर्ण देश को एक ऐसा नारा चाहिए, जो केवल राष्ट्रीयता को नहीं, बल्कि इसकी विविधता पर बल देता हो. जब तक कोई शब्दावली सीधा दिलों में उतरती तथा सियासी संदर्भ तथा सामाजिक भावना से मेल खाती न हो, वह सिर्फ एक और निरर्थक नारा बनकर रह जाती है. वर्ष 2019 के नारों ने भारत को विभाजित कर डाला है. उम्मीद है, आता जनादेश चुनावी मुहिम द्वारा सृजित गुस्से व गंदगी का आईना नहीं होगा.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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