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विकास की नयी रणनीति में गरीब

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार क्या हम आशा करें कि मोदी सरकार जल्दी ही अपनी गलतियों को दुरुस्त करेगी और एडम स्मिथ के 18वीं सदी के पुराने पूंजीवादी मंत्र ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ को नजरअंदाज कर ‘जन-सरोकार, अच्छी सरकार’ के नारे पर चलेगी? नरेंद्र मोदी सरकार के कुछ प्रमुख नारों और अहम नीतियों के बीच अभी से […]

उर्मिलेश

वरिष्ठ पत्रकार

क्या हम आशा करें कि मोदी सरकार जल्दी ही अपनी गलतियों को दुरुस्त करेगी और एडम स्मिथ के 18वीं सदी के पुराने पूंजीवादी मंत्र ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ को नजरअंदाज कर ‘जन-सरोकार, अच्छी सरकार’ के नारे पर चलेगी?

नरेंद्र मोदी सरकार के कुछ प्रमुख नारों और अहम नीतियों के बीच अभी से अंतर्विरोध दिखने लगे हैं. चुनाव-प्रचार के दौरान भाजपा और नरेंद्र मोदी की तरफ से इस बात का जोर-शोर से प्रचार किया गया कि उनकी सरकार आने पर देश में ‘अच्छे दिन आयेंगे’ और गरीबों के हितों को प्राथमिकता दी जायेगी. सरकार गठन के बाद संसद में अपने पहले भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि वह गरीबों के हक में काम करेंगे. लेकिन, मोदी सरकार की अहम नीतियों, खासतौर पर अर्थनीति का जो प्रारूप फिलहाल सामने आ रहा है, वह गरीबों के हक में काम करने के सरकारी दावे के अनुरूप नहीं है.

अगर उत्पादक और रोजगार-सृजन के क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने, मुद्रास्फीति पर निर्णायक अंकुश लगाने, राष्ट्रीय-विकास में कॉरपोरेट का अधिकतम योगदान सुनिश्चित करने, नौकरशाही को जनपक्षी बनाने या भ्रष्टाचार मिटाने के लिए ‘कड़े फैसले’ लिये जाते, तो बात समझ में आती, लेकिन सरकार ने तो रेल-भाड़े की बढ़ोतरी, खाने-पीने और रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों की मूल्यवृद्धि को जायज ठहराने के लिए ‘कड़े फैसले’ के जुमले का प्रयोग किया. सवाल स्वाभाविक है, ये ‘कड़े फैसले’ सिर्फ आम आदमी के खिलाफ क्यों, उसे लूटनेवालों के खिलाफ क्यों नहीं?

‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ का अर्थ है कि राजकाज और विकास-रणनीति में निजी क्षेत्र की भागीदारी में भारी विस्तार किया जायेगा. सरकार अपने इस नारे को अमलीजामा पहनाने के लिए गंभीर है, इसके संकेत मिलने शुरू हो गये हैं. कृषि से लेकर रक्षा (उपकरण) उत्पादन, रेलवे से संचार और स्वास्थ्य से शिक्षा तक, हर जगह निजी निवेश या पीपीपी मॉडल को बढ़ावा देने की तैयारी तेज हो गयी है. परंतु, कॉरपोरेट की ज्यादा रुचि उन्हीं क्षेत्रों में है, जिनमें मुनाफा ज्यादा हो. उनकी प्राथमिकता तय है, सरकार की अपनी प्राथमिकता क्या है? संसद के बजट सत्र से पहले ही सरकार की तरफ से संकेत दिया गया कि रेलवे में बड़े पैमाने पर निजी निवेश, विदेशी पूंजी को प्रोत्साहित किया जायेगा. सवाल है, किस तरह की योजनाओं को प्राथमिकता दी जा रही है?

सरकारी स्तर पर बताया गया कि रेलवे क्षेत्र में बुलेट-ट्रेनों, हाइ-स्पीड ट्रेनों और अनेक शहरों में मेट्रो ट्रेनों के विस्तार को प्राथमिकता दी जायेगी. रेलवे स्टेशनों को अमेरिका, फ्रांस, रूस, जापान, जर्मनी या चीन की तरह अत्याधुनिक बनाया जायेगा. जिन देशों का उदाहरण दिया गया है, उन्होंने अपने यहां पूंजीवादी या समाजवादी कार्यक्रमों के जरिये पहले गरीबी दूर की, खुशहाल समाज का निर्माण किया, अपनी आबादी को स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं से लैस किया, सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को पुख्ता बनाया. फिर हाइस्पीड ट्रेनों या बुलेट ट्रेनों के बारे में सोचा. लेकिन अपने देश में उल्टी गंगा बहाने की कोशिश हो रही है.

बेहाल गरीबों, बेरोजगारों, अस्वस्थ और अशिक्षित लोगों की तेजी से बढ़ती आबादी के बड़े सवालों को दरकिनार कर जिस तरह के विकास मॉडल को प्राथमिकता देने की बात हो रही है, वह सिर्फ कॉरपोरेट, उच्च और खुशहाल मध्यवर्ग के खाते में जायेगा. फिर इस महादेश की करोड़ों जनता का क्या होगा? उसके लिए पर्याप्त स्कूल-अस्पताल नहीं हैं. जो थे, वे खत्म या अनुपयोगी हो रहे हैं.

आज शिक्षा के व्यवसायीकरण के दौर में आम लोगों के बच्चों का प्रगति की दौड़ में आगे आना असंभव हो गया है. ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ की विकास-रणनीति में इन समाजों के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए क्या जगह होगी? सिर्फ अहमदाबाद-मुंबई प्रस्तावित बुलेट ट्रेन योजना पर 62 हजार करोड़ का खर्च आ रहा है. यह रकम भारतीय रेल को साल भर के यात्राी-किराया से होनेवाली आमदनी से भी ज्यादा है. फिर आम आदमी की रेल की देखरेख और विकास के लिए कहां से आयेगी रकम? सरकार अपने पहले बजट में विनिवेश, पीपीपी और निजीकरण की बड़ी रणनीति का ब्लूप्रिंट पूरी तरह पेश करे या न करे, इसमें अब कोई शक नहीं कि भारतीय समाज के आर्थिक विकास की उसकी रणनीति इन्हीं फॉमरूलों पर आधारित होगी. ‘न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन’ का उसका रास्ता यही होगा. सवाल है, इस तरह के विकास में दलित-आदिवासियों, पिछड़ों, गरीब अल्पसंख्यकों और आम आदमी की अपनी हिस्सेदारी क्या होगी?

सरोकार और चिंता के सबसे बड़े क्षेत्र स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार हैं. देखना होगा, अपने पहले बजट में नयी सरकार इन क्षेत्रों के लिए क्या एजेंडा पेश करती है! संसद के पिछले सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण से इन क्षेत्रों के बारे में सरकार की सुसंगत सोच का संकेत नहीं मिला. प्रधानमंत्री ने अब तक इनके बारे में अपनी प्राथमिकताओं का कोई खास खाका नहीं पेश किया है. ऐसे में बजट से अचानक कोई नयी तस्वीर उभर कर सामने आ जायेगी, इसकी आशा करना बहुत व्यावहारिक नहीं लगता. क्या सरकार विश्वबैंक और विश्व व्यापार संगठन द्वारा अनुशंसित विकास-नीति से अलग हट कर सोचेगी और फैसले लेगी या यूपीए-2 के ही नक्शेकदम पर चलती रहेगी?

शिक्षा और स्वास्थ्य को बीते दो दशकों के बीच जिस तरह लगातार ‘वाणिज्यिक क्षेत्र’ के रूप में रूपांतरित किया गया है, वह सिर्फ भारत की कहानी नहीं है. दुनिया के अनेक विकासशील देशों में विश्वबैंक और विश्व व्यापार संगठन के इस मंत्र को लागू किया गया है. ऐसे देशों में विकास का टपकन सिद्धांत (ट्रिकल डाउन थ्योरी) विफल साबित हुआ है. दक्षिण अफ्रीका जैसे बड़े देश की हालत खराब है. अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन के बावजूद ब्राजील की अश्वेत आबादी के बड़े हिस्से को वहां की विकास-यात्रा में वाजिब हिस्सेदारी नहीं मिली है. अच्छी बात है कि शासन ने इस तरह की नीतियों के खराब नतीजों से सबक लिया है.

मोदी सरकार को विकासशील देशों के ऐसे अनुभवों से सबक लेने की जरूरत है. सबसे बड़ा सबक यही है कि शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में केंद्र और राज्यों को अपनी भूमिका और फंडिंग बढ़ानी होगी. आज बड़े पैमाने पर राज्य-संचालित स्कूल-कॉलेज, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और बड़े अस्पतालों की जरूरत है. मौजूदा दौर में निजी क्षेत्र की भूमिका को पूरी तरह नकारना व्यावहारिक नहीं होगा. लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में निजी संस्थानों की भूमिका तभी बेहतर और जनता के लिए उपयोगी हो सकती है, जब उनका राज्य और समाज की तरफ से कारगर नियमन और निगरानी हो. क्या हम आशा करें कि मोदी सरकार जल्दी ही अपनी गलतियों को दुरुस्त करेगी और एडम स्मिथ के 18वीं सदी के पूंजीवादी मंत्र ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ को नजरअंदाज कर ‘जन-सरोकार, अच्छी सरकार’ के नारे पर चलेगी?

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