भारत में अंगरेजी शिक्षा का प्रारंभ ईसाई मिशनरियों द्वारा बहुत सौहाद्र्रपूर्ण वातावरण में हुआ और कुलीन ब्राह्नाण छात्र भी अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए संस्कृत/फारसी के अलावा अंगरेजी सीखने लगे थे.
जब भी भारतीय शिक्षा प्रणाली की दुर्गति की चर्चा होती है, लोग इसके लिए सामान्यत: लॉर्ड मैकाले द्वारा पूर्व प्रचलित संस्कृत-फारसी शिक्षा पद्धति को हटा कर अंगरेजी शिक्षा पद्धति लागू करने को दोष देते हैं. लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है. उसके लिए मंच-यवनिका आदि पहले से तैयार कर दी गयी थी. वह केवल अभिनेता की तरह आया और नायक की ऐतिहासिक भूमिका निभा कर चला गया. 1834 से 1838 तक कुल चार वर्षो के अपने भारत-प्रवास में उसने दो महत्वपूर्ण कार्य किये-उपनिवेश के क्रिमिनल कोड में सुधार और ब्रिटिश मॉडल पर शिक्षा पद्धति की स्थापना.
2008 में अपनी ब्रिटेन-यात्र के दौरान मैं मैकाले के जन्मस्थान लीस्टरशायर सिर्फ इस उत्सुकता से गया था कि देखूं, भारत में अनंत काल के लिए अंगरेजी का साम्राज्य स्थापित करनेवाले मैकाले को उसके गृहनगर में लोग किस रूप में याद करते हैं. मुङो यह देख कर आश्चर्य हुआ कि वहां के लोग मैकाले को राजनेता, वक्ता, निबंधकार, कवि और इतिहासकार के रूप में ही थोड़ा बहुत जानते हैं और उसका भारत के सुप्रीम काउंसिल में चार वर्षो के लिए हुई नियुक्ति को भूल चुके हैं. उसका पूरा नाम टॉमस बेबिंग्टन मैकाले था. जन्म अक्तूबर, 1800 में निकटवर्ती रोथली गांव के धर्मस्थल में हुआ था, जो अब आंशिक रूप से होटल में बदल चुका है. उसके पिता अफ्रीका के भूतपूर्व औपनिवेशिक गवर्नर और दास-प्रथा विरोधी गतिविधियों में सक्रिय थे.
मैकाले छात्रवस्था में अत्यंत मेधावी था. उसे पाश्चात्य साहित्य और संस्कृति पर बहुत घमंड था. वह आजीवन अविवाहित रहा. फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश, डच भाषा अच्छी तरह जानता था और ग्रीक की क्लासिक कविता का परम भक्त था. यूरोपीय साहित्य को हीरा और भारतीय तथा अरबी साहित्य को दो कौड़ी का माननेवाला मैकाले कभी भारत आना भी नहीं चाहता था. 10 जुलाई, 1833 को ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस में दिया गया उसका वह भाषण- ‘संपूर्ण भारतीय साहित्य यूरोप के किसी पुस्तकालय की एक आलमारी में रखा जा सकता है’, हम कभी भूल नहीं सकते. दुर्भाग्य है कि जिस ‘जंगली उपनिवेश’ को सभ्य बनाने के लिए मैकाले ने 1834 में अंगरेजी शिक्षा का बीज बोया था, उसके पेड़-पौधे आज गांव-गांव में गाजर घास की तरह फैल रहे हैं.
वैसे संस्कृत शिक्षा के छागर को नहा-धोकर, फूल-माला पहना कर बलिवेदी तक ले जाने का काम इससे बहुत पहले अलेक्जेंडर डफ (1806-1878) उच्च शिक्षा के बहाने कर चुका था. मई, 1830 में चर्च ऑफ स्कॉटलैंड से आकर धर्म-प्रचार के लिए पद-दलित भारत-भूमि पर कदम रखनेवाला वह प्रथम ईसाई मिशनरी था. अंगरेजी माध्यम से आधुनिक विषय की शिक्षा देने के लिए जुलाई, 1830 में कलकत्ता में सर्वप्रथम स्कॉटिश चर्च कॉलेज की स्थापना की. कलकत्ता में उसने देखा कि मिशनरी के अथक प्रयासों के बावजूद सवर्ण हिंदू ईसाई धर्म की ओर आकृष्ट नहीं हो रहे हैं. तब उसने त्रिसूत्रीय शिक्षा मिशन बनाया-(1)भारत सरकार की शिक्षा-नीति में परिवर्तन, (2) ईसाई चर्च द्वारा दी गयी शिक्षा को मिशनरी कार्य की मान्यता, (3) सवर्ण हिंदुओं में शिक्षा के माध्यम से ईसाई विचार का प्रवेश. डफ से पहले फ्रेंच मिशनरी ज्यां एंतोन दिबुआ ने 1823 में पांडिचेरी, मद्रास प्रेसिडेंसी और मैसूर में भारतीय वेश-भूषा में रह कर और ईसा मसीह के गॉस्पेल सुना-सुना कर हार गया और यह सोच कर पेरिस लौट गया कि भारतीयों को ईसाई रंग में रंगना असंभव है. उस समय शिक्षा की आधिकारिक भाषा फारसी थी और आनुषंगिक रूप से संस्कृत-अरबी में भी शिक्षा दी जाती थी. डफ कामयाब हुआ और अंतत: 1835 में लॉर्ड बेंटिक ने मैकाले द्वारा तैयार नयी शिक्षा-नीति के प्रारूप को अधिकृत रूप से घोषित कर दिया.
यदि पिछले दो सदी के इतिहास पर नजर डालें, तो भारत में अंगरेजी शिक्षा का प्रारंभ ईसाई मिशनिरियों द्वारा बहुत सौहार्दपूर्ण वातावरण में हुआ और कुलीन ब्राrाण छात्र भी अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए संस्कृत/फारसी के अलावा अंगरेजी सीखने लगे थे. उनमें सबसे अग्रणी राजा राम मोहन राय हुए, जिनका जन्म (1772) कुलीन बंगाली ब्राrाण परिवार में हुआ था. पिता रमाकांत राय (वंद्योपाध्याय) वैष्णव थे और मां तारिणी देवी शैव थीं. 1795 में वे तांत्रिक हरिहरानंद विद्यावागीश के मारफत बैप्टिस्ट मिशनरी विलियम कैरी के संपर्क में आये और उससे अंगरेजी सीखने की इच्छा जाहिर की. 1803 से 1815 तक वे इस्ट इंडिया कंपनी में मुर्शिदाबाद के रजिट्रार के निजी क्लर्क (मुंशी) रहे. ब्रिटिश बुद्धिजीवियों के संपर्क में आकर उन्होंने तत्कालीन हिंदू समाज के अवगुणों (सती प्रथा, बहुपत्नी प्रथा, जातिगत कट्टरता, बाल विवाह आदि) को दूर करने में उल्लेखनीय योगदान किया. वे ‘ब्रrा सभा’ के संस्थापकों में थे और ईसाई धर्म के अनुरूप एकेश्वरवाद का स्वर वेदांत में रहने के कारण अनेक उपनिषदों का अंगरेजी में अनुवाद भी किया.
1811 में लॉर्ड मिंटो ने यह पाया कि भारत में विज्ञान और साहित्य का ह्रास बहुत तेजी से हो रहा है. इसलिए 1813 के चार्टर एक्ट में भारतीय साहित्य शिक्षण को सुदृढ़ करने तथा यूरोपीय विज्ञान की शिक्षा शुरू करने के लिए प्रतिवर्ष न्यूनतम एक लाख रुपये खर्च करने का प्रावधान किया गया. कंपनी इस राशि को संस्कृत-अरबी और फारसी पर खरचना चाहती थी, क्योंकि ब्रिटिश जजों को हिंदू और मुसलिम कानून के जानकारों की जरूरत थी. जून, 1814 में इसके निदेशक मंडल ने संस्कृत की उत्कृष्टता की प्रशंसा करते हुए संस्तुति की कि भारतीय साहित्य और विज्ञान में विधि, नीतिशास्त्र, औषधि, गणित,ज्योतिष आदि सब कुछ है, इसलिए संस्कृत शिक्षा को अधिक प्रोत्साहित किया जाये. इसी पृष्ठभूमि में लॉर्ड एम्हस्र्ट ने कलकत्ता में संस्कृत कॉलेज की स्थापना भी की. मगर उसके बाद संस्कृत शिक्षा के प्रोत्साहन के विरोध में राजा राम मोहन राय आकर खड़े हो गये. उन्होंने 11 दिसंबर, 1823 को वायसराय को एक लंबा पत्र लिखा, जिसमें संस्कृत अध्यापकों पर और राशि न खरचने का अनुरोध करते हुए लिखा कि ‘इस देश को अंधकार में रखने के लिए संस्कृत शिक्षा सर्वथा उपयोगी होगी, यदि यही ब्रिटिश विधायिका की मंशा हो. लेकिन यदि सरकार का लक्ष्य भारतीय जनता की प्रोन्नति है, तब इसको अधिक उदार और परिपक्व शिक्षा प्राणाली लागू करनी होगी, जिसमें गणित, भौतिकी, रसायनशास्त्र, शरीर-रचना विज्ञान तथा अन्य विज्ञानों को शामिल किया जाये.’ इसके बाद देश में जो वातावरण बना या बनाया गया, उसमें 1835 में मैकाले की शिक्षा-नीति लागू हुई और 1858 में ब्रिटिश राज पूरी तरह से कायम हो गया.
डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
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