केसी त्यागी
राष्ट्रीय प्रवक्ता, जदयू
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पिछले लोकसभा चुनाव से अब तक 10 राज्यों में भाजपा व कांग्रेस की सरकारों द्वारा किसानों के 2,33,069 करोड़ रुपये की कर्जमाफी की घोषणा की जा चुकी है.
हाल ही में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में की गयी कर्जमाफी के बाद तेज बहस भी हुई कि क्या कर्जमाफी मौजूदा किसानी संकट का हल है? साल 2018 के दसवें माह तक कुल 10.5 लाख करोड़ रुपये का कृषि कर्ज बकाया था, जिसका लगभग एक-चौथाई हिस्सा माफ कर दिया गया है. इससे पहले भी कई अवसरों पर किसानों के कर्ज माफ होते रहे हैं. वहीं बड़ी विडंबना है कि औसतन प्रत्येक 41वें मिनट में देश अपना एक किसान खो देता है.
एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, 1995 से 2015 तक देश के 3,18,528 किसानों ने आत्महत्या की. इस स्थिति में कृषि कर्जमाफी किसानों के लिए तात्कालिक राहत जरूर है, लेकिन किसी भी सूरत में यह स्थायी समाधान नहीं हो सकता. इस बीच बिहार में न ही कर्जमाफी को लेकर किसानों का कोई बड़ा आंदोलन देखने को मिला और न ही किसान आत्महत्याओं से जुड़ी खबर.
हाल ही में नीति आयोग द्वारा जारी सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने से जुड़ी एक रिपोर्ट सार्वजनिक हुई है, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय स्थिति के आधार पर राज्यों का प्रदर्शन आंका गया था.
इन संकेतकों पर उत्तर प्रदेश, बिहार और असम जैसे राज्यों का प्रदर्शन उत्साहवर्धक नहीं रहा, वहीं केरल, हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु, पुद्दुचेरी व चंडीगढ़ अग्रणी श्रेणी में रहे. इन आंकड़ों के मध्य एक निष्कर्ष यह भी है कि आर्थिक रूप से संपन्न व विभिन्न सूचकांकों पर बेहतर प्रदर्शनकारी राज्यों में किसान आत्महत्या की शिकायत अत्यधिक रही है. कर्जमाफी के बावजूद 2018 में महाराष्ट्र से प्रतिदिन 7 किसानों की आत्महत्या अफसोसजनक रही. हिमाचल में भी 2013 व 2014 में क्रमशः 554 और 644 किसानों की खुदकुशी की खबर है. हमें यह समझना ही होगा कि कृषक वर्ग द्वारा आत्महत्या की मुख्य वजह क्या है?
विभिन्न राज्यों से खबरों के अनुसार कर्ज का बोझ, फसल नष्ट होने पर घाटा, लागत मूल्य तक न मिल पाने की स्थिति में परिवार के पालन-पोषण में असमर्थता समेत नगदी फसल हेतु लिये गये ऋण की भारी रकम चुकाने में असमर्थता आदि आत्महत्या की मुख्य वजहें हैं.
ऐसे में स्पष्ट है कि कर्जमाफी जैसी सरकारी पहल सिर्फ ‘पेन किलर’ का काम करेगी. कृषि क्षेत्र में व्याप्त कैंसररूपी बीमारी के इलाज हेतु लाभकारी मूल्य व किसानोन्मुखी नीतियों का सख्त क्रियान्वयन ही उपाय है.
शायद ही कोई वर्ष हो, जब बिहार ने भीषण बाढ़ और सूखा का सामना नहीं किया हो. इसके बावजूद यह कृषि, अर्थव्यवस्था की रीढ़ बना हुआ है.
इसके पीछे राज्य सरकार द्वारा नीतियों के सफल क्रियान्वयन की भूमिका रही है. कभी बीमारू राज्य कहलानेवाले बिहार को आज अनाज उत्पादन में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है. साल 2005-06 की तुलना में 2017-18 में बिहार ने चावल उत्पादन में 135 फीसदी की वृद्धि दर्ज की है. गेहूं व मक्का उत्पादन में क्रमशः 116 तथा 184 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है. मत्स्य उत्पादन में राज्य चौथे स्थान है, तो आलू समेत सब्जियों के उत्पादन में तीसरे स्थान पर है. डेयरी उत्पादन साल 2005-06 के 48 लाख टन की तुलना में आज 87.10 लाख टन पर पहुंच चुका है. मखाने के उत्पादन में लगभग चार गुना इजाफा आंका गया है. फसल वर्ष 2016-17 के दौरान 27.77 क्विंटल प्रति हेक्टेयर का अनाज उत्पादन एक रिकाॅर्ड है.
इसी वर्ष मक्का उत्पादन 53.55 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से हुआ. इन उपलब्धियों के पीछे केंद्र व राज्य सरकार द्वारा किसानों को निरंतर प्रोत्साहित करना है. फसल नष्ट होने और बीमा योजनाओं की असफलता की स्थिति में गत वर्ष जून में बिहार सरकार ने राज्य फसल सहायता योजना शुरू की. किसानों के लिए बीमा योजना शुरू करनेवाला बिहार पहला राज्य बना.
बिहार में सूखाग्रस्त क्षेत्रों के किसानों की मदद हेतु इनपुट सब्सिडी के तहत सूखे के कारण सिंचाई पर होनेवाले अतिरिक्त खर्चे के एवज में सहायता राशि का प्रावधान है.
फसल सूख जाने या उत्पादन में 33 फीसदी तक की गिरावट आने की दिशा में वर्षा आधारित फसल क्षेत्र में प्रति हेक्टेयर 6,800 रुपये और सिंचाई आधारित क्षेत्रों के किसानों के लिए 13,500 रुपये प्रति हेक्टेयर की दर से सब्सिडी की व्यवस्था किसानों को प्रत्येक मौसम की मार से बचाने में कारगर साबित होगी. अनियमित माॅनसून, सूखे की स्थिति में एक एकड़ के लिए प्रति सिंचाई 10 लीटर डीजल, 40 रुपये प्रति लीटर के हिसाब से, अनुदानस्वरूप दिये जाने की पहल किसानों को हताश नहीं होने देगा.
मौजूदा कृषि संकट के दौर में किसानों को कर्ज, घाटे, कुपोषण, भुखमरी व आत्महत्या की मनोदशा से बाहर निकालने की जरूरत है. जहां तक बिहार विशेष का सवाल है, यहां कृषि क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं. कई बार बिहार को कृषिकर्मण पुरस्कार से नवाजा जा चुका है.
हालांकि, इतनी उपलब्धियों और आत्मनिर्भरता, विकास दर राष्ट्रीय औसत से अधिक होने के बावजूद कई मानकों पर बिहार पिछड़ा हुआ है. इसे पाटने की दिशा में औद्योगिक विस्तारीकरण की आवश्यकता है. इसलिए विशेष राज्य के दर्जे की उठती रही मांग निरर्थक नहीं है. नीति आयोग को भी हाल के संकेतकों की सुध लेकर बिहार के सर्वांगीण विकास को प्रोत्साहित करना चाहिए.