प्रो सतीश कुमार
सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ हरियाणा
singhsatis@gmail.com
पिछले दिनों पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने भारत के साथ दोस्ती और बातचीत की गुहार लगायी. उन्होने कहा कि पाकिस्तान की सेना, सरकार और अवाम एक कतार में खड़े हैं तथा उनके बीच कोई विरोधाभास नहीं है.
सबकी तमन्ना यही है कि भारत-पाकिस्तान के बीच संबंध बेहतर हो. इमरान खान की कोशिश कई नये सिद्धांतों की पुष्टि करती है. पहला यह कि प्रधानमंत्री की यह अभिव्यक्ति पाकिस्तान के सेना प्रमुख कमर जावेद बाजवा की उपस्थिति में कही गयी. इसलिए इमरान की उक्ति के पीछे सेना की स्वीकृति है.
सेना के मंसूबे भी कमजोर पड़ गये हैं. इसलिए पाकिस्तान हर कीमत पर भारत के साथ दोस्ती की शुरुआत करना चाहता है. दूसरा, अमेरिकी दबाव और पश्चिमी देशों ने सामूहिक रूप से पाकिस्तान को कटघरे में लाकर खड़ा कर दिया है, जहां से देश की अर्थव्यवस्था पर शिंकजा निरंतर सख्त होता गया.
तीसरा, पाकिस्तान अपने आर्थिक ढांचे को किसी तरह बचाने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की चौखट पर कटोरा लिए खड़ा है, जहां पर अमेरिका पाकिस्तान के सामने चट्टान की तरह दृढ़ है. इस विषम परिस्थिति ने पाकिस्तान की जेहादी प्रवृत्ति पर सवालिया निशान लगा दिया है. चीन की जोर-अाजमाइश और तमाम समर्थन के बावजूद भी पाकिस्तान की राजनीति दलदल में धंसती जा रही है.
यही कारण है कि पाकिस्तानभारत के साथ बातचीत की शुरुआत को अपनी पहली प्राथमिकता मानता है. जबकि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अड़ियल रूख बरकरार है. उनका सीधा सा फार्मूला है- आंतक और बातचीत साथ-साथ नहीं चल सकती. पहले आतंकी गतिविधियों को रोकने के इंतजाम और तौर-तरीके स्पष्ट रूप से दिखाने होंगे, तब कहीं जाकर बातचीत की शुरुआत हो सकती है. यह भी सच है कि भारत की इस सोच को बदलने की क्षमता किसी भी बाहरी शक्ति के पास नहीं है.
अब यहां पर प्रश्न उठता है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी का सख्त और अड़ियल रवैया राष्ट्रहित में है या बातचीत की शुरुआत ज्यादा बेहतर और कारगर सोच होती.
इसके पीछे राष्ट्र का हित ही किसी भी नीति की प्राथमिकता होनी चाहिए अगर मोदी की पाकिस्तान नीति की विवेचना करें, तो सार्थक बातें सामने आती हैं, जिनपर बहस और चर्चा की जरूरत है. कई तरह की लाॅबिंग भी भारत में सक्रिय है, जिसमें सबसे मजबूत लाॅबी आतंकवादी गतिविधियों के बावजूद वार्ता को बनाये रखना चाहती है. पिछले 6 दशकों से भारत की अलग-अलग सरकारें यहीं तो कर रही थीं. फिर भी कोई बदलाव नहीं आया.
प्रधानमंत्री मोदी ने सख्त रुख अपनाने से पहले पाकिस्तान को वह हर मौका दिया था, जहां से दोनों देशों के बीच एक मजबूत सेतु का निर्माण किया जा सके. मसलन, शपथ के दौरान नवाज शरीफ को न्यौता दिया जाना. रूस में सैन्य-व्यवस्था पर पारदर्शिता को स्थापित करने की कोशिश.
पुनः, मोदी द्वारा नवाज शरीफ के जन्मदिन पर शुभकामनाएं देने लाहौर पहुंच गये. पठानकोट में आंतकी हमले की जांच के लिए पाकिस्तान की टीम को आने की इजाजत. इन तमाम प्रयासों का हल क्या निकला? कहीं आक्रमण हुआ, सीमा पर जेहादियों की मशक्कत बढ़ गयी. मुंबई में आतंकी हमले का मुख्य दोषी, जैश-ए-मोहम्मद के सरगना लखवी को जेल से छोड़ दिया गया.
पुनः पाकिस्तान की सरकार द्वारा कश्मीर में संलग्न जेहादियों के नाम स्टांप टिकट छापे गये. ये तमाम प्रयास पाकिस्तान की कुटिल मानसिकता की दास्तान सुनाते हैं, जहां पर दो ही बातें मुख्यत: होती हैं. पहली, पाकिस्तान सरकार के हाथ में कुछ भी नहीं है, सबकुछ सेना के इशारे पर होता है. इस इकाई को ‘डीप स्टेट’के बतौर जाना जाता है, अर्थात् राज्य के भीतर कोई दूसरा राज्य है.
और दोनों की आपस में बनती नहीं है. इसलिए, आतंकी गतिविधियों के कारण वार्ता को बंद करना ठीक नहीं है. दूसरा भारत की विवशता और एक मुलायम राज्य होने का दर्जा. यह माना जाने लगा है कि आण्विक विस्फोट के बाद से भारत-पाकिस्तान के बीच परंपरागत सैन्य असतुंलन खत्म हो गया है और दोनों का वजन एक समान है. इसलिए युद्ध की आशंका बर्बादी का सबब होगा.
प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले दो दशक के इस मिथक को चुनौती दे डाली. यह मान लिया गया था कि पाकिस्तान की रीढ़ सेना है. उस ताकत को तोड़ना देश को तोड़ना होगा. इसलिए, 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया गया.
पाकिस्तानी सेना के होश उड़ गये. दुनिया के सामने पाकिस्तान ने यह जताने की कोशिश की, जैसे कुछ हुआ नहीं है. यह भी सच है कि उस घटना के बाद पाकिस्तानी आक्रमण सीमा पार से और ज्यादा हो गये हैं. सेना बेचैन और बेहाल है. वर्ष 2016 से 2018 के बीच हुए आक्रमण पाकिस्तानी सेना द्वारा किये जा रहे हैं. उसके बावजूद भी भारत की सोच भीष्म की तरह अटल है.
अब पाकिस्तान की सेना और उसकी कठपुतली सरकार को समझ नहीं आ रहा है कि कैसे इस दीवार को तोड़ा जाये. भारत अपनी सोच और नीति के साथ खड़ा है. उसके हाथों में एक बैनर है. जिस पर स्पष्ट लिखा हुआ है- ‘बम और बातचीत एक साथ नहीं’. अगर पाकिस्तान के सेना प्रमुख और कठपुतली इमरान खान की सरकार को यह सूचनापट्टी समझ में आ जाती है, तो बहुत अच्छी बात है, अन्यथा पाकिस्तान की राजनीतिक पीड़ा असहाय कष्ट का कारण बनेगी.