जब हमारी परंपरा और विरासत जड़ होती जाये, जब शर्म और हया के तार टूटने लगें, तब हमें अपनी संस्कृति पर नजर डालनी चाहिए. आज ऐसा ही उत्तर प्रदेश में और अन्य राज्यों में कुछ कम-बेशी घटित हो रहा है. सत्ता का मद होता ही ऐसा है कि व्यक्ति सही और गलत में अंतर नहीं कर पाता. जब आदमी को पैसा, पद और प्रतिष्ठा तीनों प्राप्त होते हैं, तब इसे विरले ही पचा पाता है. सत्ता का मद तो मीठी तासीर में हलाहल होता है, जो डुबोने के बाद ही व्यक्ति को होश में लाता है. आज उत्तरप्रदेश के सत्ताधारी समाज की स्थिति ऐसी ही बन गयी है.
रावण जब सीता को हर कर लंका लाया था, तब उसने कभी इसे अनर्थ नहीं कहा, उलटे जब विभीषण ने समझाया तब उसे लात मर कर भगा दिया. कुंभकरण के मना करने पर भी कि वह गलत रास्ते पर है, तब उसे भला-बुरा कह कर खुद को युद्ध तक खींच लाया और परिणाम सबको मालूम है. राक्षस वंश का नाश किया और स्वयं मारा गया.
हमारी संस्कृति हमें जगाती है. वह विरासत है, हमारी धरोहर है. साहित्य ने उसे आकार दिया है.हम उन तमाम संत-साहित्यकारों को नमन करते हैं जिन्होंने हमारी संस्कृति को साहित्य के पन्नों में पिरोया है. हमें गोस्वामी तुलसीदास, वाल्मीकि, व्यास आदि महान आत्माओं का आभारी होना चाहिए. रामधारी सिंह ‘दिनकर’, मैथिलीशरण गुप्त जैसे साहित्यकारों ने भी साहित्य को संस्कृति में आस्था का स्थान देकर हमें आज जैसी जड़तावादी सामाजिक सोच से निजात पाने का अवसर प्रदान किया है. आशा है साहित्य समाज इस परिस्थिति में अपने कर्तव्य का निर्वाह कर राक्षसी प्रवृत्ति से उबरने में अपनी कलम को धार देगा और फिर से समाज को प्रकाशित करेगा. डॉ अरुण सज्जन, जमशेदपुर