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धान के गीत गानेवाले
डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया anujlugun@cub.ac.in धान रोपनी का एक गीत है- ‘रोपा रोपे गेले रे डिंडा दंगोड़ी गुन्गु उपारे जिलिपी लगाये / लाजो नहीं लगे रे डिंडा दंगोड़ी गुन्गु उपारे जिलिपी लगाये /हर जोते गेले रे डिंडा दंगोड़ा एड़ी भईर तोलोंग लोसाते जाये /लाजो नहीं लगे रे डिंडा दंगोड़ा […]
डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
anujlugun@cub.ac.in
धान रोपनी का एक गीत है- ‘रोपा रोपे गेले रे डिंडा दंगोड़ी गुन्गु उपारे जिलिपी लगाये / लाजो नहीं लगे रे डिंडा दंगोड़ी गुन्गु उपारे जिलिपी लगाये /हर जोते गेले रे डिंडा दंगोड़ा एड़ी भईर तोलोंग लोसाते जाये /लाजो नहीं लगे रे डिंडा दंगोड़ा एड़ी भईर तोलोंग लोसाते जाये.’ झारखंड के आदिवासियों के द्वारा गाये जानेवाले इस गीत में धान की खेती के समय का उल्लास है. यह धान की खेती से जुड़े युवक और युवतियों का चित्रण है. हल जोतते हुए युवक की धोती का ‘तोलोंग’ लहरा रहा है और धान रोपती युवती की बाली ‘गुन्गु’ के ऊपर हिल रही है.
आमतौर पर लोक गीतों का सरलीकरण करते हुए यह कहा जाता है कि वे मनोरंजन के लिए होते हैं. लेकिन, लोक गीतों का समाजशास्त्रीय संदर्भ होता है. धान रोपनी के गीतों में खेती और उससे जुड़ी क्रियाओं में उल्लास दिखायी देता है. अभावों के बीच यह उल्लास भविष्य में होनेवाली बेहतर फसल की उम्मीद में होता है. गौरतलब यह है कि फसलों में धान की खेती के ही गीत गाये जाते हैं.
चूंकि धान मुख्य अनाज है और सालभर इसी पर निर्भरता होती है, ऐसे में उसकी बुआई और रोपनी के समय का उल्लास स्वाभाविक है. धान की खोज का इतिहास लगभग पांच हजार साल पुराना है और यह उल्लास भी सदियों पुराना है. किसानी संस्कृति का यह आधार है.
वर्ष 2004 को अंतरराष्ट्रीय धान (चावल) वर्ष घोषित किया गया था. इसके तहत धान को केंद्र में रखकर कृषि, खाद्य सुरक्षा, जैव विविधता, पर्यावरण और रोजगार के परस्पर संबंधों को नये रूप में विश्लेषित किया जाना था. हमारे देश में धान की खेती को लेकर दो बड़ी चुनौतियां हैं- एक, उसकी उत्पादकता को बढ़ाना, और दूसरा, रोजगार का सृजन. समय के साथ जोत के आकार कम होते जा रहे हैं और उस पर दबाव बढ़ गया है.
उत्पादकता बढ़ाने के लिए खेती को आधुनिक तकनीकों से जोड़ने की योजना चल रही है, लेकिन इससे जहां एक ओर खेती की लागत बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर पारंपरिक खेती व्यवस्था की वजह से नये तकनीकों से जुड़ने में समस्या खड़ी हो रही है. जबकि आज भी छोटे किसान जो महानगरों में मजदूरी के लिए चले जाते हैं, वे खेती के दिनों में लौट आते हैं. यानी, धान और उससे जुड़े उत्पादों में रोजगार का स्थायित्व नहीं है.
देश के आदिवासी क्षेत्रों से अलग क्षेत्रों में सामंती एवं वर्ण व्यवस्था के मजबूत होने से खेतों में कथित निम्न जाति के लोग ही मजदूरी करते रहे हैं.
इस वर्ग का अस्तित्व अब भी मौजूद है और उसके यहां गीतों का एक दूसरा स्वरूप मिलता है, जो कि शोषण और उत्पीड़न से बुना हुआ होता है. खेतिहर मजदूरों की स्थिति अब भी एक समस्या के रूप में कृषि से जुड़ी हुई है. आमतौर पर उनकी अपनी जमीनें नहीं हैं और अगर हैं भी, तो उनके जोत का आकार इतना छोटा है कि कुल उत्पादन में उनका कोई योगदान नहीं होता है.
यह माना जाता है कि विश्वभर में 80 प्रतिशत धान का उत्पादन कम आय वाले देशों में होता है. भारत विश्व में दूसरा सबसे बड़ा धान उत्पादक देश है.
इसे हम इस तरह भी देख सकते हैं कि धान की खेती से देश की एक बड़ी आबादी जुड़ी हुई है, जो गांवों में रहती है और उसके आय का स्तर निम्न वर्ग का है. हालांकि, अंतरराष्ट्रीय चावल बाजार में भारत की महत्वपूर्ण हिस्सेदारी तो है, लेकिन धान की खेती अब भी अधिकतर पारंपरिक और अव्यावसायिक ही है. इसकी खरीद अधिकतर सरकारी एजेंसियों के द्वारा होती है, जिसका प्रतिशत उत्पादन की तुलना में बहुत कम है.
ऊपर जिस गीत का उल्लेख किया गया है, वह सामूहिकता का सूचक है. धान के खेतों की सामूहिकता उसकी सहजीविता का लक्षण है. न सिर्फ धान की फसल लोगों को एकत्रित होने के लिए आकर्षित करती है, बल्कि धान की फसलें जैव विविधता की पोषक होती हैं.
धान के खेतों में ही मछली, केकड़े, घोंघे इत्यादि अंडे देने के लिए आते हैं. पहली बारिश में ही ये धान के खेतों में जमा होने लगते हैं और धान के पकने पर वापस नदियों की तरफ लौटते हैं. धान की फसलों के साथ, किसानों और जीवचरों का यह विलक्षण रिश्ता है. यह रिश्ता गीत गानेवालों को ऊर्जा देता है.
पिछले कुछ दशकों से, जब से अधिक उत्पादकता के लिए आधुनिक तकनीकों, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का इस्तेमाल हो रहा है, धान की खेती के रिश्तों में विघटन हुआ है.
अब जहां एक और बाजार और पूंजी के प्रवेश से बिचौलियों का उदय हो गया है, वहीं दूसरी ओर जैव विविधता बुरी तरह से प्रभावित हुई है. इसने सामूहिकता और सहजीविता पर गहरा आघात पहुंचाया है. जैसे मछली, केकड़े, घोंघे इत्यादि लोहे के भारी मशीनों से पिस रहे हैं, वैसे ही कहीं गीत गाने वाले भी जख्मी हो रहे हैं. उनके लिए एक तरफ उपज को बचाये रखने का संकट है, तो दूसरी और खुद को बचाये रखने का.
जमीन पर खेती की मुकम्मल व्यवस्था अब तक नहीं की गयी है, लेकिन जमीन को अधिगृहित करने के सैकड़ों उपाय और बहाने हैं. किसानी संस्कृति पर पूंजी के हमले ने खेती के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े किये हैं. ऐसे में मौसम बारिश का ही हो, लेकिन खेती की बात कौन करेगा? किसके पास अब गीतों के लिए धैर्य बचा है?
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