।। डॉ प्रसेनजीत बोस।।
(अर्थशास्त्री)
सन् 2007-08 में सिंगूर-नंदीग्राम की घटनाओं के बाद से वामपंथ के सबसे मजबूत गढ़ पश्चिम बंगाल में वामपंथी दलों, खासकर सीपीएम का जनसमर्थन लगातार घटा है. पश्चिम बंगाल की राजनीति में मील का पत्थर साबित होनेवाले सिंगूर-नंदीग्राम के भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन के अलावा भी राशन व्यवस्था में गड़बड़ी, रिजवानुर रहमान की मौत, जंगलमहल में माओवादी आतंक, सच्चर कमिटी के बाद मुसलिमों का वाम से अलगाव और सीपीएम नेताओं द्वारा महिलाओं के प्रति अपमानजनक बयान जैसी घटनाओं ने वाम मोरचे की सरकार के खिलाफ जनाक्रोश पैदा किया और 2009 के चुनावों में उसके हार की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी. आत्ममंथन के बजाय सीपीएम नेतृत्व इस गुमान में था कि उसने कोई गलती नहीं की है. यही दंभ 2011 में तीन दशक पुरानी वाम सरकार की हार का कारण बना.
आज शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में न सिर्फ गरीब और कामगार वर्ग बड़ी संख्या में वामपंथ को छोड़ गया है, बल्कि ‘औद्योगीकरण’ और ‘ब्रांड बुद्धा’ से रिझाये जा रहे शहरी मध्यवर्ग के मन में भी वामपंथ के लिए न तो कोई आशा बची है, न कोई लगाव. इसके बावजूद न तो कोई जिम्मेवारी तय की गयी, न ही जनमानस की आकांक्षाओं के अनुरूप कोई बदलाव लाने का प्रयास किया गया. विडंबना है कि इस दौरान पार्टी नेतृत्व की पूरी ऊर्जा राजनीतिक-सांगठनिक यथास्थिति बनाये रखने और इसके खिलाफ उठनेवाली हर आवाज को दबाने के लिए इस्तेमाल की गयी. 2014 के आम चुनावों में बंगाल में एक तरफ जहां वाम मोरचे का वोट प्रतिशत 10 फीसदी घटा है, वहीं भाजपा का वोट 2011 के 4 फीसदी से बढ़ कर 17 फीसद हो गया है. इससे साफ है कि वाम मोरचे के समर्थकों का एक बड़ा हिस्सा उसे छोड़ कर भाजपा के पीछे चला गया है. तृणमूल और भाजपा के बीच ध्रुवीकरण में वाम मोरचा न घर का रहा है न घाट का. अपनी इस बदहाल स्थिति के लिए वह खुद जिम्मेवार है.
सीपीएम का असफल शीर्ष नेतृत्व आज कार्यकर्ताओं के अंदर हताशा पैदा कर रहा है. यह बात पश्चिम बंगाल के नेताओं के लिए विशेष तौर पर लागू होती है. जब तक इन्हें हटा कर नये चेहरों और नये विचारों को सामने नहीं लाया जाता, न तो किसी सकारात्मक बदलाव की आशा की जा सकती है, न ही मेहनतकश जनता, खास तौर पर युवाओं को वामपंथ की तरफ पुन: लाया जाया सकता है. दिग्गज वामपंथी आलोचक और वाम मोरचे की पहली सरकार में वित्त मंत्री रहे अशोक मित्र 2011 से ही इस बात को कहते रहे हैं. यह जरूरी है कि बंगाल में पार्टी नेतृत्व अपनी जिम्मेवारी कबूल करते हुए इस्तीफा दे. देशभर में अपनी भद पिटवा चुकी सीपीएम के लिए एकमात्र अपवाद त्रिपुरा रहा है, जहां 64 फीसदी वोट पाकर पार्टी ने एक कमजोर विपक्ष के खिलाफ दोनों सीटें दोबारा जीती हैं. इसका श्रेय मुख्यत: माणिक सरकार व उनके सहयोगियों को जाता है, जिन्होंने न सिर्फ कामकाज से जनहित को सुनिश्चित किया है, बल्कि पार्टी में मौजूद नकारात्मक प्रविृत्तियों को भी दूर रखा है.
जहां तक हिंदी पट्टी का सवाल है, यहां सारे वामपंथी दल राजनीति के हाशिये पर हैं. इसका प्रमुख कारण सामाजिक न्याय के संघर्ष में उनकी उदासीन भागीदारी है. आज आरएसएस भी सोशल इंजीनियरिंग के साथ सफल प्रयोग कर रहा है, परंतु वामपंथी दल नहीं. इसके साथ ही वामपंथी दलों को इस रूढ़ीवादी सोच से भी बाहर आना होगा कि भारत अब भी अर्ध-सामंती देश है. तेजी से विकसित होनेवाले पूंजीवाद ने गावों-शहरों में वर्ग-समीकरणों को बदला है. हर तबके की समस्याओं व आकांक्षाओं का वहन करने के लिए नये नारे और नयी राजनीति की जरूरत है.
आज वामपंथी जनसंगठनों में न तो संघर्ष का जज्बा देखने को मिलता है, न ही कोई स्वतंत्र कार्यप्रणाली. जेएनयू जैसे गिनती के कैंपसों के अलावा वामपंथी छात्र संगठनों की उपस्थिति आंशिक ही है. समय की मांग है कि जन-संगठनों में युवा नेतृत्व को बढ़ावा दिया जाये और उनको कामकाज और निर्णय करने की स्वाधीनता दी जाये. नेतृत्व किसका होगा, इसका फैसला संघर्ष खड़े करने और लड़ने की कुशलता पर लिया जाना चाहिए, न कि पार्टी नेताओं की चापलूसी करने की कला पर.
आज वामपंथी दल जाहिर तौर पर राजनीति के तीसरे धड़े में कोई भी केंद्रीय भूमिका निभाने में अक्षम हैं. उन्हें ‘आप’ जैसे दूसरे दलों के साथ आरएसएस-भाजपा की तरफ से आनेवाले दक्षिणपंथी हमले के विरुद्ध प्रतिरोध खड़ा करने में अहम भूमिका निभाते हुए खुद की शक्ति बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए. सीपीएम यदि वाम आंदोलन को फिर से ऊर्जान्वित करना चाहता है, तो पार्टी नेतृत्व व ढांचे में मौलिक बदलाव के अलावा कोई चारा नहीं है. अगर अब भी बदलाव नहीं हुआ और सीपीएम इस बदलाव को रोकने की धुरी बनता है, तो पार्टी के अंदर से एक नयी राजनीतिक शक्ति का जन्म अनिवार्य हो जायेगा.