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खस्ताहाल होते बैंक
देश के सबसे बड़े कर्जदाता बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को गुजरे वित्तवर्ष की चौथी तिमाही में 7,718 करोड़ का शुद्ध एकल घाटा उठाना पड़ा है. वित्त क्षेत्र की एजेंसियों का आकलन था कि बैंक को 1,285 करोड़ रुपये का घाटा हो सकता है, लेकिन बैंक को हुआ घाटा इससे करीब छह गुना ज्यादा है. […]
देश के सबसे बड़े कर्जदाता बैंक स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को गुजरे वित्तवर्ष की चौथी तिमाही में 7,718 करोड़ का शुद्ध एकल घाटा उठाना पड़ा है. वित्त क्षेत्र की एजेंसियों का आकलन था कि बैंक को 1,285 करोड़ रुपये का घाटा हो सकता है, लेकिन बैंक को हुआ घाटा इससे करीब छह गुना ज्यादा है. तीसरी तिमाही की तुलना में भी यह घाटा चौंकानेवाला है.
तब आंकड़ा 2,416 करोड़ का था. एक तिमाही के अंतराल में आखिर बैंक के घाटे में लगभग तिगुना इजाफा कैसे हुआ? देश की बैंकिंग संपदा में स्टेट बैंक की करीब 20 फीसदी की हिस्सेदारी है, सो इस बैंक की सेहत से ग्राहकों के भरोसे का सवाल जुड़ा हुआ है. बैंक ने बड़े घाटे की वजह फंसे कर्जों की वसूली से जुड़े प्रावधानों को बताया है.
लेकिन इस बैंक पर बढ़ते एनपीए के बोझ पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए. चौथी तिमाही में बैंक के कुल कर्ज में फंसे कर्जों का अनुपात 11 फीसदी के आस-पास था, जो तीसरी तिमाही से कुछ ज्यादा है. जाहिर है, देश का सबसे बड़ा बैंक कर्ज वसूली की समस्या से जूझ रहा है. उसकी जमा राशि में भी अपेक्षित बढ़त नहीं है. लेकिन, बात सिर्फ इसी बैंक तक सीमित नहीं है. सार्वजनिक क्षेत्र के दूसरे सबसे बड़े बैंक पंजाब नेशनल बैंक ने चौथी तिमाही में 13,417 करोड़ रुपये का शुद्ध एकल घाटा दिखाया था. इसी तरह इलाहाबाद बैंक, यूको बैंक, केनरा बैंक आदि ने भी कई हजार करोड़ का घाटा दिखाया है.
इनके साथ भी एनपीए तुलनात्मक रूप से बढ़ने का तथ्य लागू होता है. कुछ बैंकों की ब्याज से हासिल रकम में भी कमी आयी है. फर्जीवाड़ा रोकने को लेकर आलोचना का निशाना बने रिजर्व बैंक ने फरवरी में फंसे कर्जों को लेकर कुछ सख्त नियम बनाये थे. इन नियमों के कारण बैंकों को अपना एनपीए कर्ज के किसी और विवरण के साथ जोड़कर दिखाना मुश्किल हो गया है.
बैंकों की चौथी तिमाही के बढ़े घाटे पर इसका भी असर है. बैंकिंग क्षेत्र में फर्जीवाड़े की घटनाएं भी खूब बढ़ी हैं. हाल में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ध्यान दिलाया था कि ठगी की घटनाएं अब लगभग चौगुनी हो गयी हैं. सितंबर, 2013 में बैंकों की 28,416 करोड़ रुपये की रकम ठगी का शिकार हुई थी, लेकिन सितंबर, 2017 में यह आंकड़ा बढ़कर 1.11 लाख करोड़ रुपये का हो गया. बैंकों को घाटे से उबारने का एक चलन उन्हें सरकारी मदद देना रहा है. सरकारी खजाने से बीते ग्यारह सालों में सरकारी बैंकों को 2.6 लाख रुपये की सहायता हासिल हुई. लेकिन, असल बात फंसे कर्जे की वसूली और निगरानी तथा अंकुश के तंत्र को मजबूत करने की है.
जब तक ऐसा नहीं होता है, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को खस्ताहाली से उबारने के लिए सरकार को मदद देने के लिए मजबूर होता रहना पड़ेगा. मजबूत बैंकिंग व्यवस्था आर्थिक प्रगति की प्रक्रिया में अहम भूमिका निभाती है. इस लिहाज से भारतीय अर्थव्यवस्था को पटरी पर बनाये रखने के लिए बैंकों की बेहतरी बहुत जरूरी है.
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