बिहार में खाद्य सुरक्षा को लेकर चिंता पैदा होना स्वाभाविक है. इसके तहत गरीब परिवारों को सस्ती दर पर अनाज मिलना अब तक सुनिश्चित नहीं हो सका है. खाद्य सुरक्षा को लेकर राष्ट्रीय कानून है. इस कानून के तहत शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों के गरीब परिवारों को भुखमारी से बचाना सरकार की जवाबदेही है. इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर खाद्य सुरक्षा योजना शुरू की गयी.
इस उम्मीद के साथ कि अब कोई गरीब भूखा नहीं सोयेगा. गरीबों को फरवरी माह से दो रुपये किलो की दर से गेहूं और तीन रुपये किलो की दर से चावल मिलना था. राज्य सरकार ने यह जिम्मेवारी तो ली, लेकिन अपना सिस्टम दुरुस्त नहीं कर पायी. इसी का नतीजा है कि तीन माह बीत जाने के बाद भी बिहार में राशन दुकानदारों से लेकर गरीब उपभोक्ता तक संशय में हैं. इसे सरकारी तंत्र की विडंबना ही कहेंगे कि राज्य सरकार के गोदामों से गरीबों के लिए अनाज निकला, दुकानदारों तक पहुंचा, पर अनाज लेनेवालों की पहचान नहीं हो पायी जिससे वितरण नहीं हो सका.
सामाजिक, आर्थिक और जाति पर आधारित जनगणना के जरिये जिन परिवारों को इस योजना का लाभ लेने के लिए चुना गया, उन्हें इसके लिए नया राशन कार्ड उपलब्ध कराया जाना था. इस काम में तंत्र विफल रहा. नया राशन कार्ड इन परिवारों को नहीं मिल पाया, जबकि इस काम को फरवरी के पहले ही पूरा लेना था. हालांकि अनाज आवंटन में भी विलंब हुआ है, लेकिन देर से मिला अनाज भी गरीब लाभुकों को मिल जाता, तो एक अच्छी बात होती. यह योजना उतनी ही जनकल्याणकारी है, जितनी कि मनरेगा.
मनरेगा भी केंद्रीय कानून है जो रोजगार की गारंटी देने के लिए लागू हुआ, लेकिन सिस्टम ने इसे फेल कर दिया. नतीजा हुआ कि मजदूरों को इस योजना पर भरोसा नहीं रहा. खाद्य सुरक्षा की सफलता को लेकर पहले से आशंकाएं जतायी जाती रही हैं. अब, इसे लागू करने में जिस तरह की लापरवाही उजागर हुई है, उसने इन आशंकाओं को बल दिया है. हम गारंटी देनेवाले कानून और योजना तो बनाते हैं, उसके जरिये जनता को लाभ और उसके कल्याण की उम्मीद तो जताते हैं, लेकिन उन्हें सही-सही लागू करने की गारंटी हमारे पास नहीं है. इस स्थिति से सरकारी तंत्र को बाहर निकालना पहली बड़ी जरूरत है.