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विषमता चरम पर

गैर-बराबरी चाहे आर्थिक हो या सामाजिक, व्यक्ति की आजादी की राह की बाधा है और व्यक्ति की आजादी बाधित हो, तो वह अपनी संभावनाओं को साकार ही नहीं कर सकता है. यह स्थिति मनुष्यता की हानि की ओर संकेत करती है. तकलीफ की बात यह है कि 1980 के दशक के ठीक पहले वैश्विक स्तर […]

गैर-बराबरी चाहे आर्थिक हो या सामाजिक, व्यक्ति की आजादी की राह की बाधा है और व्यक्ति की आजादी बाधित हो, तो वह अपनी संभावनाओं को साकार ही नहीं कर सकता है. यह स्थिति मनुष्यता की हानि की ओर संकेत करती है. तकलीफ की बात यह है कि 1980 के दशक के ठीक पहले वैश्विक स्तर पर भूमंडलीकरण की प्रक्रियाओं की नयी शुरुआत के समय तक गैर-बराबरी लोकतांत्रिक राज-व्यवस्थाओं के लिए बुनियादी सवाल हुआ करती थी, पर अब वह शीर्ष प्राथमिकताओं में शामिल नहीं. दुनिया के चंद धनी लोगों के हाथ में हैरतअंगेज तेजी से सिमटती संपदा इस रुझान का सबसे प्रकट प्रमाण है. बीते सालों में विभिन्न रिपोर्टों ने आगाह किया है कि आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने की जरूरत से हो रहे ढांचागत बदलावों के कारण लोगों के बीच आर्थिक विषमता की गहरी खाई पैदा हो रही है.
लेकिन आमदनी के मामले में लोगों के बीच बढ़ते भेद को कम करने के प्रयास आधे-अधूरे मन से हो रहे हैं. ऑक्सफैम की रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में दुनिया में उपार्जित संपदा का 82 फीसदी हिस्सा विश्व की सिर्फ एक फीसदी आबादी के हाथ में गया, जबकि दुनिया के सबसे गरीब लोगों में शुमार 3.70 अरब आबादी की आमदनी में कोई बढ़त नहीं हुई. भारत में पिछले साल उपार्जित संपदा का 73 फीसदी हिस्सा देश की सबसे समृद्ध एक फीसदी आबादी के खाते में गया. इस संस्था की पिछली रिपोर्ट में कहा गया था कि देश की कुल संपदा का 58 फीसदी हिस्सा महज एक फीसदी लोगों के हाथ में है. गैर-बराबरी सालाना कितनी तेजी से बढ़ रही है, इसका अनुमान लगाने के लिए यह तथ्य काफी है.
लेकिन, भारत जैसे देश के लिए यह स्थिति सिर्फ आर्थिक उदारीकरण के दशक तक सीमित नहीं है. बीते साल अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी का भारत-विषयक एक अध्ययन चर्चा में था, जिसमें कहा गया कि भारत में आयकर की शुरुआत (1922) के बाद से 2014 के वक्त में राष्ट्रीय आय में देश की एक फीसदी आबादी की आमदनी का स्तर अभी से ज्यादा पहले कभी नहीं रहा.
साल 1930 के देश में सबसे ज्यादा आमदनी वाली एक फीसदी आबादी के हाथ में कुल राष्ट्रीय आय का 21 फीसदी हिस्सा था, 1980 के दशक में घटकर यह छह फीसदी पर पहुंचा, लेकिन 2014 तक फिर से बढ़कर 22 प्रतिशत तक जा पहुंचा, जबकि 1951-1980 के बीच कम आमदनी वाली निचली 50 फीसदी आबादी के हाथ में राष्ट्रीय आय का महज 28 फीसदी हिस्सा आया. पैमाना चाहे प्रति व्यक्ति मासिक खर्च का बनाएं या फिर सेहत, शिक्षा, आवास, भोजन जैसे गरिमापूर्ण जीवन जीने योग्य परिवेश का, देश की एक तिहाई से ज्यादा आबादी अब भी अपनी मनुष्योचित संभावनाओं को साकार करने की हालत में नहीं है.
उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकारें और समृद्ध तबका विषमता की इस बढ़ती खाई को कम करने के लिए प्रयासरत होंगी तथा मौजूदा नीतियों का लाभ गरीबों तक पहुंचाने को प्राथमिकता देंगी.

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