ढाई दशक पहले शुरू हुए उदारीकरण के दौर में विकास की गति बढ़ने के साथ इंजीनियरों की मांग भी बढ़ी. शिक्षा में निजी क्षेत्र का आगमन हुआ और बड़ी संख्या में पेशेवर शिक्षा के लिए संस्थान बने. लेकिन, पहले चमकदार जान पड़ती यह तस्वीर बीते कुछ सालों में स्याह हो चली है. अर्थव्यवस्था में उथल-पुथल और रोजगार के संकुचन की मार इंजीनियरों पर भी पड़ी है. पिछले पांच सालों में इंजीनियरिंग और टेक्नोलॉजी से स्नातक 50 फीसदी से भी कम छात्रों का कैंपस प्लेसमेंट हुआ है और गत वर्ष तो यह दर करीब 40 फीसदी ही रही थी.
इस हालत का असर दाखिले में गिरावट के रूप में भी पड़ा है. अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद् के आंकड़ों के हवाले से छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देशभर में 51 फीसदी सीटें खाली रह जाती हैं. दाखिले नहीं होने का बड़ा कारण यह भी है कि शिक्षा के निजीकरण के नाम पर अंधाधुंध खुले संस्थानों में बुनियादी सुविधाएं और संसाधन तक नहीं हैं. शिक्षकों की कमी है तथा शिक्षा का तौर-तरीका भी लचर है.
अच्छी पगार और स्थायित्व न होने के कारण ठीक-ठाक शिक्षक भी ऐसी संस्थाओं से किनारा कर रहे हैं. समुचित संख्या में नामांकन नहीं होने के कारण देश के कई राज्यों में इंजीनियरिंग कॉलेज लगातार बंद हो रहे हैं. वर्ष 2008-09 तक निजी संस्थानों में खूब दाखिले हुए और इन संस्थाओं की संख्या भी बढ़ी, परंतु अब जब हालात बद-से-बदतर होते जा रहे हैं, तो यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि संसाधन और सुविधाओं में निवेश क्यों नहीं किया गया? तकनीकी शिक्षा परिषद् सर्वोच्च नियामक और निगरानी संस्था है.
इस संस्था पर भी जवाबदेही है कि कॉलेज खोलने की अनुमति देने और समय-समय पर उनकी जांच करने के जरूरी काम में लापरवाही क्यों बरती गयी? अक्सर सर्वेक्षणों में बताया गया है कि 80 फीसदी से अधिक इंजीनियरिंग स्नातक इस लायक ही नहीं हैं कि उन्हें अपने क्षेत्र में साधारण नौकरी भी मिल सके.
ऐसे में सरकारों और नियामक संस्थाओं की गैरजिम्मेदाराना रवैये ने बड़ी संख्या में छात्रों का भविष्य अंधकारमय बना दिया. भ्रष्टाचार, नेताओं और शिक्षा कारोबारियों की मिलीभगत तथा छात्रों-अभिभावकों की चुप्पी ने स्थिति को इस खराब दशा तक पहुंचा दिया है. इसी साल परिषद् ने 800 इंजीनियरिंग संस्थाओं को बंद करने का फैसला किया है. इसके बावजूद मौजूदा संस्थानों में सुधार के आसार नजर नहीं आते हैं.
हालांकि, कुछ नामचीन संस्थानों को छोड़कर सरकारी कॉलेजों की स्थिति भी कोई अच्छी नहीं है. इंजीनियरिंग कॉलेजों की यह दुर्दशा तभी ठीक की जा सकती है, जब शिक्षा के निजीकरण तथा उसके नियमन व निगरानी की पूरी प्रणाली की पूरी समीक्षा हो एवं उसके आधार पर ठोस रास्ता बनाया जाये. ध्यान रहे, एक बड़ी अर्थव्यवस्था सतही इंजीनियरों और लचर पढ़ाई के सहारे बड़ी ऊंचाई नहीं पा सकती है.