सेनाध्यक्ष जेनरल बिपिन रावत के इस बयान से कोई भी विवेकवान भारतीय असहमत नहीं हो सकता है कि सेना को राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए. दक्षिण एशिया के इतिहास को देखें, तो हमारे पड़ोस के अनेक देशों में सेना के राजनीतिक इस्तेमाल और एक-दूसरे के दायरे में दखल के कई उदाहरण हैं तथा उन देशों को इसका भयानक खामियाजा भुगतना पड़ा है.
तख्तापलट, मार्शल लॉ, तानाशाही आदि के लंबे सिलसिलों से कुछ एशियाई देशों को गुजरना पड़ा है. एक पड़ोसी देश की हालत तो यह है कि जनमत से चुनी सरकार को भी उसकी सेना और सेना की खुफिया एजेंसियां निर्देशित करती हैं. इतना ही नहीं, उस देश में तो सेना की शह से कई लड़ाकू गिरोह बाहर-भीतर हिंसा और आतंक फैलाते रहते हैं. भारत इस लिहाज से बिल्कुल अलहदा देश है और हमारी सेनाएं पूरी तरह से अराजनीतिक रही हैं. सीमाओं की सुरक्षा करने और आंतरिक अस्थिरता से निपटने से लेकर आपदाओं में राहत और बचाव के कामों को हमारी सेना ने बखूबी अंजाम दिया है. सेना एक पेशेवर और प्रतिबद्ध संस्था है तथा उसकी जिम्मेदारियां और प्राथमिकताएं बिल्कुल स्पष्ट हैं.
सेना के तीनों अंगों के रिकॉर्ड पर हर भारतीय को गर्व है. हमारे देश में राजनीति करने और विचारधाराओं के टकराव की जगहें अलग से निर्धारित हैं. जेनरल रावत ने उचित ही रेखांकित किया है कि हमारी शानदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में सेना को राजनीतिक बहसों और चर्चाओं से दूरी रखनी चाहिए. हमारे राजनीतिक तंत्र को भी सेनाप्रमुख की बातों का संज्ञान लेना चाहिए.
अनेक विशेषज्ञों का मानना है कि सैनिकों के रैंक और पेंशन तथा सैनिकों की विधवाओं के बच्चों के लिए शिक्षा शुल्क को सीमित करने जैसे मसलों के द्वारा सरकार सशस्त्र बलों को मजबूर करती है कि वे सरकारी नीतियों के तय करने की प्रक्रियाओं पर सवाल उठायें. बीते दिनों में सेना के लिए निर्धारित कार्यों से अलग सैनिकों से काम लेने के कुछ मामलों पर भी सवाल खड़े किये गये थे. यह भी उल्लेखनीय है कि पड़ोसी देशों से युद्ध और कश्मीर में हिंसा जैसे संवेदनशील मुद्दों पर जेनरल रावत के बयानों पर भी पहले कुछ जानकारों ने सवाल उठाया था.
कई बार सैन्य संस्थाओं में गड़बड़ियों, अनियमितताओं और भ्रष्टाचार तथा किसी सैनिक या सैन्य टुकड़ी पर किसी आपराधिक कृत्य के आरोप सामने आ जाते हैं. सैन्य तंत्र के भीतर और रक्षा मंत्रालय के अधीन ऐसी व्यवस्थाएं हैं, जो ऐसे मामलों की बखूबी जांच कर सकती हैं. सैन्य प्रशासन को इन प्रक्रियाओं को चाक-चौबंद करना चाहिए, ताकि सेना की छवि चमकदार बनी रहे.
इसी तरह से सैनिकों की शिकायतों और चिंताओं पर भी समुचित ध्यान दिया जाना चाहिए, ताकि ऐसे मामले मीडिया के माध्यम से आम चर्चा का विषय न बनें. सेना से जुड़े मुद्दों को राजनीतिक स्वार्थ के लिए भुनाने की प्रवृत्ति से सरकारों और पार्टियों को भी बचना चाहिए.