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बुलेट ट्रेन नहीं चाहिए

संतोष उत्सुक व्यंग्यकार आप मुझे माफ कीजिये या न कीजिये, लेकिन यह मेरा नहीं, सिर पर बचे खुचे सात सौ निन्यानवे बालों वाले एक घाघ आदमी का कहना है. वे हैं तो हमारे पुराने दोस्त, मगर उनकी बात अब वे खुद तो क्या, उनकी बीवी, बच्चे व उनके भी बच्चे नहीं मानते. उनका कहना है […]

संतोष उत्सुक

व्यंग्यकार

आप मुझे माफ कीजिये या न कीजिये, लेकिन यह मेरा नहीं, सिर पर बचे खुचे सात सौ निन्यानवे बालों वाले एक घाघ आदमी का कहना है. वे हैं तो हमारे पुराने दोस्त, मगर उनकी बात अब वे खुद तो क्या, उनकी बीवी, बच्चे व उनके भी बच्चे नहीं मानते. उनका कहना है कि हमारे देश ‘न्यू इंडिया’ के काबिल नहीं है, शीघ्र चलायी जानेवाली जापानी बुलेट ट्रेन.

हमने पूछा क्यों, विस्तार से बताइये हुजूर. वे बोले, जापान में सुकूबा एक्सप्रेस लाईन पर चलनेवाली ट्रेन बीस सेकेंड जल्दी क्या छूट गयी, यात्रियों को होनेवाली संभावित असुविधा के कारण, जापानी कंपनी के अधिकारियों को बहुत शर्मिंदगी महसूस हुई और उन्होंने बड़े सलीके से माफी मांगी. उल्लेखनीय है कि जापान में झुककर स्वागत करने की परंपरा है, तो माफी भी झुककर ही मांगी होगी.

घाघजी ने कहा, मैं विचार कर रहा हूं कि क्या बुलेट ट्रेन अपना वर्किंग कल्चर भी साथ लायेगी? हमारे यहां तो हवाई जहाज में सफर करनेवाले को जरा सी शिकायत करने पर वह बढ़िया से धुना जाता है कि बंदा रोगी हो जाये. चलती ट्रेन के आगे हम पटरी ठीक करना शुरू कर देते हैं. यह हमारा ऐतिहासिक वर्तमान है कि हमें आज भी कहीं भी ठीक समय पर पहुंचने की आदत नहीं है. हमने देर से पहुंचना अपने जन्मसिद्ध अधिकारों में शामिल कर लिया है. माफी मांगना हम भीख मांगने के समान समझते हैं.

माफी मांगने का स्वभाव नहीं है, तभी माफ करने का भी अभाव है. बाकी रही दूसरों को हो रही दिक्कतों की बात, हमें अपने स्वार्थ पूरे करने से कभी फुर्सत मिले, तभी तो हम दूसरों को हो रही संभावित और वास्तव में हो रही परेशानियों के बारे सोचें. और ये जापानी कंपनियां बीस सेकेंड के लिए माफी मांग रही हैं.

कह रही हैं, हमारे यात्रियों को अगले स्टेशन पर दिक्कत का सामना तो करना ही पड़ा होगा, अपने काम पर लेट पहुंचने के कारण शर्मिंदा होना पड़ा होगा. यहां तो ट्रेन क्या हवाई जहाज घंटों लेट हो जाये, तो भी झुका नहीं जाता, बल्कि झुकाकर काफी देर से माफी मांगी जाती है.

बस स्टैंड से बस ठीक समय पर निकल पड़े, तो हैरानी होती है और एडवांस चले, तो खुशी दोगनी हो जाती है यह सोचकर कि चलो हम तो जल्दी पहुंच जायेंगे औरों से हमें क्या लेना. मरीज ट्रैफिक में मर जाते हैं. हमारे यहां तो प्रजा कुछ भी चाहे, मिलता वही है जो राज दरबार चाहता है हर युग की यही सच्ची कहानी है. आम लोगों के लिए तो कभी फुटपाथ भी नहीं बनाये जाते हां सड़कें बनायी जाती हैं, क्योंकि उन पर नेता अफसर व ठेकेदार के हित बिछे होते हैं.

सरकारी मामला है इसलिए ट्रेन तो आकर रहेगी, हम इसके सामान के साथ मुंबई से गोवा जानेवाली ट्रेन जैसा व्यवहार जरूर करेंगे और माफी नहीं मांगेंगे. हां सरकार को इसका नाम बदलने के बारे में अभी से विचार करना चाहिए, ताकि बाद में नकली शर्मिंदगी न हो. नाम भी लेट या लेट ट्रेन हो सकता है.

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