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आत्मसम्मान की परीक्षा
पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक दो हजार साल से भी ज्यादा हुए, चौथी सदी ईसा पूर्व में चाणक्य ने एक आततायी राजा को सत्ताच्युत किया, यूनानियों को पीछे धकेलने में सहायता की, एक खंड-खंड धरती को एकाकार किया, एक संभावनाभरे व्यक्ति को शिक्षा-संस्कार दे उसे मगध की गद्दी पर बिठाया और मगध राज्य […]
पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
दो हजार साल से भी ज्यादा हुए, चौथी सदी ईसा पूर्व में चाणक्य ने एक आततायी राजा को सत्ताच्युत किया, यूनानियों को पीछे धकेलने में सहायता की, एक खंड-खंड धरती को एकाकार किया, एक संभावनाभरे व्यक्ति को शिक्षा-संस्कार दे उसे मगध की गद्दी पर बिठाया और मगध राज्य को अफगानिस्तान से बंगाल तथा दक्षिण भारत तक का विस्तार देकर उसे भारतीय इतिहास का प्रथम साम्राज्य बनाया. यही नहीं, मैकियावेली द्वारा ‘दि प्रिंस’ के लेखन से तकरीबन 1800 साल पूर्व उन्होंने राजनय पर विश्व को उसका प्रथम ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र’ भी दिया.
अर्थशास्त्र में विदेश नीति के संचालन पर भी एक अध्याय है. संभव है, तब से आज की परिस्थितियां अलग हों, पर रणनीतिक स्पष्टता की जिस कला में चाणक्य निष्णात थे, उसकी आवश्यकता आज भी वैसी ही है, जैसी तब थी. भारत-चीन-भूटान सरहदों की त्रिसंधि पर स्थित डोकलाम में भारत-चीन के बीच चल रही संगीन रस्साकशी में आज यही स्पष्टता परीक्षा की कसौटी पर चढ़ी है.
डोकलाम मुद्दे पर चीन के खुले उकसावे के विरुद्ध भारत की प्रतिक्रिया नपी-तुली रही है और हमने राजनयिक समाधान के विकल्प भी खुले रखे हैं.
साम (मेल-मिलाप), दाम (लालच), दंड तथा भेद (फूट) का चाणक्य का सिद्धांत साम से ही शुरू होता है. पर बढ़ती आक्रामकता के चीनी बोलों का जवाब उसी भाषा में न देने का अर्थ उसकी मंशा से हमारी अनिभिज्ञता नहीं होनी चाहिए. चीन की एक स्पष्ट नीति है- भारत के प्रभाव को नियंत्रित रखने के साथ उसके साथ संबंध कायम रखना. वह भारत को ऐसे प्रतियोगी के रूप में देखता है, जिसके साथ संबंध तो रखे जाने चाहिए, पर साथ ही उसे नियंत्रित भी रखना चाहिए. डोकलाम पर चीनी आक्रमण का समय तथा प्रकृति उसकी इसी नीति के अनुरूप है.
अपनी विदेश नीति के संदर्भ में चीन के लक्ष्यों के प्रति यदि हमारी दृष्टि स्पष्ट रहे, तो वह जिस सातत्य से भारत के हितों का विरोध करता रहा है, हम उसे आसानी से समझ सकेंगे. उसकी भारत विरोधी कार्रवाइयों की सूची खासी लंबी है.
मसलन, अरुणाचल प्रदेश के हमारे नागरिकों के लिए नत्थी वीजा के प्रावधान, परमाण्विक आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) की हमारी सदस्यता का विरोध, पाक अधिकृत कश्मीर में अरबों डॉलर का निवेश, जिस भूभाग को हम अपना बताते आये हैं, उससे होकर वन बेल्ट-वन रोड (ओबोर) का निर्माण, हमारे पड़ोसियों के साथ सोची-समझी नीति के तहत संबंध बढ़ाना तथा उनमें निवेश कर भारत को चारों ओर से घेरने के प्रयास, दक्षिण चीन सागर में तेल की खोज के प्रति उसकी आधारहीन आपत्ति; भारतीय भूभाग में घुसपैठ के लिए जान-बूझकर नाजुक मौकों का चुनाव, जिसमें हैरतभरे रूप से चुनार में घुस आने का वह वक्त भी शामिल है, जब स्वयं चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत की राजकीय यात्रा पर थे; दोनों देशों के बीच असामान्य व्यापार असंतुलन के प्रति सोची-समझी उदासीनता, जिसमें अपने माल को यहां खपाते हुए हमारे निर्यातों के लिए अपने यहां अदृश्य शुल्क अवरोध खड़े करना शामिल है; साथ ही, संयुक्त राष्ट्र द्वारा मसूद अजहर को आतंकी घोषित करने का रास्ता रोकना.
उसका अंतिम कदम तो भारत के विरुद्ध पाकिस्तान से उसकी खुली और बेपरवाह सांठगांठ स्पष्टतः रेखांकित करता है. स्वयं भी कट्टरपंथी मुसलिम समूहों की आतंकी कार्रवाइयों का शिकार होने के बावजूद चीन इस मामले में पाकिस्तान का समर्थन करता है, तो इसकी कोई दूसरी वजह नहीं हो सकती. इससे उसका यह उद्देश्य ही साफ होता है कि भारत को घेरने के लिए पाकिस्तान को हर भले-बुरे वक्त का साथी बनाये रखा जाये. हमारे लिए इसका रणनीतिक निहितार्थ यह है कि अपने विरुद्ध दो पड़ोसियों में खुली सांठगांठ का सामना करने को हमें हर वक्त तैयार रहना चाहिए.
यदि इतना स्पष्ट है, तो सबसे पहले, हमें चीनी आक्रमण के प्रति अनावश्यक निरीहता प्रदर्शित करने की कोई जरूरत नहीं. इस संदर्भ में हालिया ओबोर बहुपक्षीय सम्मेलन से हमारी गैरहाजिरी का फैसला मुनासिब था.
मेरे विचार से तो हमें उसमें शरीक होनेवाले सभी देशों को आपत्ति का एक नोट भेज कर उनसे यह कहना चाहिए था कि यह सड़क उस भूभाग से गुजरेगी, जो भारत का है. चीन अभी भी प्रत्येक वैसे देश को नियमित रूप से घोर आपत्ति का नोट भेजा करता है, जहां दलाई लामा जाते हैं और हाल ही जब वे अरुणाचल प्रदेश की यात्रा पर थे, तो चीन की प्रतिक्रिया अत्यंत आक्रामक थी.
दुनिया में सिर्फ उन्हीं देशों का सम्मान होता है, जो स्वयं का सम्मान करते हैं. जब पाक अधिकृत कश्मीर में चीन अपने निवेश बढ़ा रहा था, या जब अरुणाचल के नागरिकों को नत्थी वीजा दे रहा था, तो उसके प्रति हमारी आपत्ति मामूली थी.
उसका माकूल जवाब तो हमारे द्वारा भी तिब्बती नागरिकों को नत्थी वीजा देना ही होता. चीनी उत्पादों के बहिष्कार के एक जनआंदोलन ने भी उसे अपनी दबंगई के विरुद्ध हमारे राष्ट्रीय संकल्प का भान करा दिया होता.
भारत स्वयं ही एक उभरती महाशक्ति है. रक्षा की दृष्टि से भी हम किसी शत्रु शक्ति के लिए एक आसान शिकार नहीं होनेवाले. चीन के पास एक बेहतर तथा ज्यादा बड़ी रक्षा क्षमता है, पर 2017 भी कोई 1962 नहीं. फिर भी, जैसा चाणक्य ने जोर देकर कहा था, किसी भी देश को अपनी रक्षा तैयारियों में कोई ढील नहीं आने देनी चाहिए.
हमें अपनी सशस्त्र सेनाओं पर अप्रतिम यकीन है, पर यह भी सुनिश्चित करना होगा कि वे सुसज्जित तथा युद्ध को कमर कसे हों. हमारे सार्वजनिक रक्षा उत्पादन क्षेत्र का एक गंभीर सुदृढ़ीकरण अत्यंत आवश्यक है. इसी तरह, हमारी सीमाओं पर बुनियादी ढांचों में सुधार भी उतना ही जरूरी है. चीन के पास डोकलाम तक पहुंचनेवाली सड़क मौजूद है, जिससे वह सैनिकों की बड़ी खेप को बहुत शीघ्र वास्तविक नियंत्रण रेखा पर पहुंचा सकता है.
डोकलाम पर चल रही रस्साकशी चीनी खतरे के प्रति हमारी सामान्य प्रतिक्रिया में परिवर्तन का एक मोड़ सिद्ध होनी चाहिए. यह पठार हमारे लिए इतने सामरिक महत्व का है कि हम इस बिंदु पर किसी भी हाल में झुकना गवारा नहीं कर सकते और न ही अपने समयसिद्ध मित्र भूटान को नीचा दिखा सकते हैं. यदि राजनयिक राहों से बात बने, तो ठीक, वरना चीन को यह बता ही देना चाहिए कि हमें अब और अधिक बरदाश्त नहीं.
(अनुवाद: विजय नंदन)
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