दूसरी खबर उत्तराखंड से आयी. नैनीताल हाइकोर्ट ने 22 जून को सख्त निर्देश जारी किया कि प्रदेश सरकार कार, एसी, फर्नीचर जैसी चीजें नहीं खरीद सकेगी, क्योंकि वह राज्य के सरकारी स्कूलों को न्यूनतम जरूरी सुविधाएं भी दे पाने में विफल रही है. दरअसल, हाइकोर्ट ने पिछले नवंबर में सरकार को निर्देश दिया था कि वह स्कूलों को बेंच, डेस्क, स्कूल ड्रेस, मिड-डे मील, कंप्यूटर, ब्लैक-बोर्ड की सुविधा उपलब्ध कराये. साथ ही साफ-सुथरे शौचालय बनवाये. अदालत ने पाया कि सरकार ने इस निर्देश पर अमल नहीं किया है.
तीसरी खबर भी जून महीने की ही है कि उत्तर प्रदेश की बेसिक शिक्षा राज्यमंत्री अनुपमा जायसवाल ने संपन्न लोगों से सरकारी स्कूलों को गोद लेने की अपील की है, ताकि बेहतर शिक्षा की व्यवस्था की जा सके, यानी विद्यालयों को सुधारने के लिए सरकार के पास इससे बेहतर उपाय नहीं है.
ये खबरें साफ बताती हैं कि सरकारों की प्राथमिकता में शिक्षा कहां है. बेसिक स्कूल हों या विश्वविद्यालय या चिकित्सा एवं शोध-संस्थान, आवश्यक खर्चों के लिए भी सरकार का मुंह ताकते रहते हैं या खुद धन जुटाने की मशक्कत करते हैं. दूसरी तरफ, सरकारें लोक-लुभावन योजनाओं पर जनता का धन पानी की तरह बहाती हैं. पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने विभिन्न वर्गों को खुश करने के लिए ‘मुख्यमंत्री तीरथ दर्शन स्कीम’ चलायी. यह उनकी ‘प्रिय’ योजनाओं में था, जिसमें लोगों को विभिन्न तीर्थ-स्थानों की यात्रा करायी गयी. जाहिर है, इसका उद्देश्य वोट हासिल करना था.
उत्तर प्रदेश की पिछली समाजवादी सरकार ने भी इसी तरह की ‘समाजवादी श्रवण योजना’ योजना चलायी थी. उसमें भी वरिष्ठ एवं गरीबों का चयन कर तीर्थ स्थानों के लिए विशेष ट्रेनें चलवायीं. सपा तब भाजपा और हिंदूवादी संगठनों की ओर से मुस्लिम-तुष्टीकरण का आरोप झेल रही थी. हज यात्रा के लिए सरकारी सहायता निशाने पर थी. भाजपा के आक्रामक प्रचार की काट के लिए सरकार ने स्वयं श्रवण कुमार बन कर आस्थावान हिंदुओं को तीर्थ-स्थलों में नि:शुल्क घुमा कर ‘पुण्य’ कमाया. यही नहीं, हज-यात्रा- सब्सिडी के जवाब में कैलाश-मानसरोवर यात्रियों को 50 हजार रुपये की नकद सहायता देना शुरू किया.
इस पूरे दौर में सरकारी विद्यालयों के भवन, अध्यापकों, कॉपी-किताबों, ड्रेस, शौचालयों आदि मूल जरूरतों के लिए तरसा दिये गये. शैक्षणिक संस्थानों को धन उपलब्ध कराने के लिए तीरथ दर्शन स्कीम बंद कराने का पंजाब सरकार का फैसला स्वागतयोग्य तो है, लेकिन सिर्फ इतने से जाहिर नहीं होता कि शिक्षा के लिए दीर्घकालीन योजना क्या है? प्राथमिक विद्यालयों का हाल पूरे देश में कमोबेस एक जैसा है. उनमें बच्चों के बैठने के लिए साधारण बेंच-डेस्क, ब्लैक बोर्ड और पढ़ाने के लिए अध्यापक तक नहीं हैं. कहीं-कहीं तो स्कूल भवन खंडहर हैं, कंप्यूटर और अलग शौचालय की कौन कहे. यही वजह है कि निजी विद्यालय बेतहाशा फल-फूल रहे हैं. गरीब-से-गरीब आदमी भी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भरती कराना चाहता है. उनकी लूट-खसोट हमेशा खबरों में रहती है.
उत्तराखंड हाइकोर्ट के सख्त आदेश से अदालत की वह चिंता और बेचैनी समझी जा सकती है, जो शिक्षा के हालात सुधारने के प्रति सभी दलों की सरकारों की अनिच्छा या उपेक्षा से उपजती है. अगर सरकार स्कूलों को अत्यंत जरूरी सुविधाएं भी नहीं दे सकती, तो उसे अपने लिये कार, एसी, फर्नीचर आदि खरीदने का भी हक नहीं, यह आदेश असाधारण स्थितियों में ही दिया गया है. उत्तराखंड राज्य बने सोलह वर्ष हो चुके. वहां की जनता अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थितियों के मद्देनजर उत्तर प्रदेश में अन्याय और शोषण की शिकायत करती थी. शिक्षा और
उत्तराखंड सरकार को अदालत के इस आदेश से परेशानी स्वाभाविक थी. सो, वह इसे बदलने का अनुरोध लेकर उसकी चौखट पर जा पहुंची (अदालत ने थोड़ी-सी राहत दी) लेकिन सभी स्कूलों को जरूरी संसाधन देने के मूल मुद्दे का क्या होगा? पंजाब के शैक्षिक संस्थानों का आर्थिक संकट, माना कि, अभी कुछ दूर कर दिया जायेगा, लेकिन शिक्षा का संपूर्ण सुधार सरकारों का प्राथमिक एजेंडा कब बनेगा? उत्तर प्रदेश की नयी योगी सरकार ने कैलाश- मानसरोवर यात्रियों की सहायता राशि बढ़ा कर एक लाख रुपये करने में तनिक देर नहीं लगायी, लेकिन सरकारी स्कूलों में छात्रों को बांटने के लिए किताबें, ड्रेस, आदि की खरीद उसी तरह विलंबित है, जैसे पूर्ववर्ती सरकार में थी. और, स्कूलों को गोद लेने की अपील क्या यह नहीं बताती कि सत्ता में सिर्फ पार्टी बदली है, प्राथमिकताएं नहीं?