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किसानों से क्रूरता की राजनीति

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक शिवराज सिंह चौहान संभवतः एक सदाशयी व्यक्ति हैं. व्यापम घोटाले के गहरे दाग के बावजूद, सामान्यतः उन्हें एक अच्छा प्रशासक माना जाता रहा है. यह भी संभव है कि अपने शासन में पुलिस की गोलियों से छह किसानों की नृशंस हत्या से वे वस्तुतः क्षुब्ध हों. मंदसौर में […]

पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
शिवराज सिंह चौहान संभवतः एक सदाशयी व्यक्ति हैं. व्यापम घोटाले के गहरे दाग के बावजूद, सामान्यतः उन्हें एक अच्छा प्रशासक माना जाता रहा है. यह भी संभव है कि अपने शासन में पुलिस की गोलियों से छह किसानों की नृशंस हत्या से वे वस्तुतः क्षुब्ध हों. मंदसौर में अमन और आम हालात की बहाली के लिए किया गया उनका एकदिनी अनशन उनके समर्थकों के अनुसार एक सद्भावनापूर्ण संकेत था, हालांकि उनके द्वारा अपना अनशन तोड़े जाने के वक्त मंदसौर में लागू धारा 144 के मद्देनजर यह निरर्थक ही था.
पर, एक बुनियादी प्रश्न फिर भी अनुत्तरित ही रह जाता है कि मध्य प्रदेश के किसानों की बढ़ती बदहाली से वे अनजान क्यों रहे और क्यों इस संकट के गहराने से उन्हें और उनके प्रशासन के वाकिफ होने के लिए छह कृषकों को गोलियां खानी पड़ीं?
सच यह है कि शिवराज ने खेती तथा किसानों की जरूरतों पर वाजिब गौर नहीं किया. निस्संदेह, यह भाजपा के उस शीर्ष नेतृत्व से उन्हें प्राप्त संकेतों के अनुरूप ही था, जिसके लिए बुलेट ट्रेनों एवं स्मार्ट शहरों के बड़े, दिलकश सपनों के सामने पूरे भारत में व्याप्त कृषि संकट हाशिये पर सिमटा एक गैर अहम मुद्दा बन कर रह गया. यदि यह बात न होती, तो प्रधानमंत्री मोदी ने भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में किया गया वह सार्वजनिक तथा लिखित वादा कभी न तोड़ा होता कि किसानों को उनकी फसल लागत पर पचास प्रतिशत का फायदा देते समर्थन मूल्य तय किये जायेंगे.
इस पर विवाद हो सकता है, पर चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री द्वारा किये मगर अपूरित छोड़े गये वादों में शायद यह सबसे महत्वपूर्ण वादा था. सुखाड़ों के दो लगातार वर्षों के बाद, इससे किसानों के बीच अपनी उपज पर अच्छा फायदा पाने की आस जगी और उन्हें ऐसा लगा कि नयी सरकार उनकी जरूरतों के प्रति ज्यादा जागरूक रहेगी, पर ऐसा होना न था. विश्वासघात की एक जाहिर मिसाल के तहत भाजपा सरकार ने फरवरी 2015 में सुप्रीम कोर्ट को यह बताया कि वह समर्थन मूल्यों में इजाफा नहीं करेगी.
एक भाजपा शासित राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में शिवराजजी के लिए यह संकेत साफ रहा होगा कि अब जबकि भाजपा के लिए विशाल बहुमत से विजय का चुनावी उद्देश्य पूरा हो चुका है, तो किसानों के कल्याण को ताक पर रखा जा सकता है. नतीजतन, वे शायद यह न समझ सके हों कि जब मध्य प्रदेश में कृषि उत्पादन 20 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा था, किसानों के सामने प्याज, टमाटर और आलू की अपनी जोरदार उपज कूड़े के ढेर में डाल देने के सिवाय कोई चारा नहीं था, क्योंकि राज्य सरकार ने न तो उस उपज की खरीद के कोई इंतजाम किये थे, न ही किसानों को उनके वाजिब दाम दिलाने के. ऐसे में, अपने कृषि कर्मण पुरस्कार से गौरवान्वित शिवराज चौहान इस तथ्य को लेकर शायद उतने चिंतित न रह गये हों कि नवंबर 2016 से लेकर फरवरी 2017 तक के अरसे में उनके राज्य के 287 कृषकों तथा कृषि श्रमिकों ने आत्महत्या कर डाली.
अपनी इस अनदेखी में वे वस्तुतः केंद्र में भाजपा-एनडीए सरकार की नीति ही प्रतिबिंबित कर रहे थे. 2014-2015 के दौरान किसानों के बीच आत्महत्या की घटनाओं में 42 प्रतिशत वृद्धि हई, जिनमें 2015 में अकेले मध्य प्रदेश की 581 किसान-आत्महत्याएं शामिल हैं.
किसानों की दुर्दशा से शिवराजजी यदि वस्तुतः उतने ही द्रवित थे, जितने वे हमेशा से होने की बात बता रहे हैं, तो उन्हें तभी अनशन पर बैठ जाना था, जब भाजपा सरकार ने समर्थन मूल्यों में बढ़ोतरी का अपना चुनावी वादा तोड़ दिया. यद्यपि इससे दिल्ली में बैठे उनके आका खुश न हुए होते, पर यह एक साहसिक कदम होता. जब केंद्रीय सरकार ने यह ऐलान किया कि राज्य सरकार द्वारा किसानों को कोई बोनस नहीं दिया जाना चाहिए, और यदि राज्य सरकारों द्वारा यह दिया भी जाता है, तो इसका पूरा वित्तीय बोझ खुद उन्हें ही उठाना होगा और यह भी कि किसानों से ज्यादा खरीद की गयी उपज के लिए एफसीआइ के भंडारों में कोई जगह मुहैया नहीं की जायेगी, तब वे कुछ घंटों के लिए भी भोजन का परित्याग तो कर ही सकते थे.
कृषि ऋणों की आंशिक माफी अथवा उन पर देय ब्याजों पर सब्सिडी बढ़ाना स्पष्टतः बहुत देर से उठाया गया बहुत छोटा कदम है. ऋणों की माफी एक अल्पकालिक राहत दे सकती है, पर अंततः वे दर्दनिवारक गोलियां ही हैं, जबकि जरूरत नीतिगत उपायों के रूप में एंटीबायोटिक दवाओं की एक कड़ी खुराक की है. कोल्ड स्टोरेजों, भंडारों, परिवहन, बीजों एवं कीटनाशकों तथा सिंचाई की उपलब्धता-सुविधाओं में वृद्धि, उपयुक्त विपणन नीतियां और शोषणकारी बिचौलियों के उन्मूलन जैसे उपायों के जरिये कृषि निवेश में एक बड़ी बढ़ोतरी होनी ही चाहिए.
कुछ और भी अत्यंत चिंताजनक प्रश्न शेष हैं. जब देश ने अरहर दाल की उपज में खासी वृद्धि दर्ज की थी, तो फिर म्यांमार, तंजानिया, मोजांबीक तथा मलावी से दालें क्यों आयात की गयीं? इसी निर्णय की वजह से दिसंबर 2015 में 11,000 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बिकती दालों की कीमतें दिसंबर 2016 तक गिर कर 4,000 रुपये प्रति क्विंटल पर पहुंच गयीं.यदि यह सच है, तो क्यों न इसका उत्तरदायित्व तय किया जाना चाहिए और जांच होनी चाहिए कि आखिर इससे लाभान्वित कौन हुआ?
जो कुछ वाकई हैरान करनेवाला है, वह यह कि जब विपक्षी नेताओं ने मारे गये किसानों के शोकग्रस्त परिवारों से मिलना चाहा, तो भाजपा के राजनेताओं और उनके मित्र मीडिया निकायों ने इसे ‘राजनीतिक पर्यटन’ का नाम दे डाला. यह सुविधापूर्वक भुला दिया गया कि 2008 के मुंबई आतंकी हमले के तहत जिस वक्त आतंकी अपनी कार्रवाई अंजाम दे ही रहे थे, तभी गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री सुरक्षा एजेंसियों की सलाह दरकिनार कर मुंबई पहुंच गये और वहां मनमोहन सिंह को अक्षम बताते हुए एक भाषण दिया था. तब तो उसे ‘राजनीतिक पर्यटन’ नहीं, बल्कि एक देशभक्तिपूर्ण कदम बताया गया था. यह तो दोहरा मानक है.
कृषि संकट की गंभीरता देखते हुए भारत को एक नये ‘मिशन कृषि’ की जरूरत है, जबकि अब तक किसानों का साबका ‘मिशन उपेक्षा’ से ही पड़ता रहा है.

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