-विजय बहादुर-
एक-दो दिन पहले ही यह खबर आयी थी कि रांची के लगभग 13 वर्षीय एक लड़के ने आत्महत्या कर ली. यह खबर ना सिर्फ चौंकाने वाली है बल्कि 13 साल के बच्चे का आत्महत्या करना अपने आप में बहुत ही पीड़ादायक है. अख़बारों से जानकारी मिली कि गर्मी छुट्टी में मिले असाइनमेंट को पूरा नहीं कर पाने के कारण तनाव में उसने आत्महत्या कर ली. दूसरी घटना आज अख़बार में पढ़ने को मिली की दसवीं क्लास के एक छात्र ने रिजल्ट में बेहतर नहीं कर पाने के डर से स्कूल के छत से छलांग ला दी और उसकी हालत गंभीर है. सनद रहे दोनों बच्चे रांची शहर के दो सबसे प्रतिष्ठित स्कूल में पढ़ते थे.
मेरे मन में ये विचार बार- बार आ रहा है क्या कोई बच्चा तात्कालिक गुस्से या अवसाद में आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठा सकता है या फिर यह महीनों -वर्षों की कुंठा थी, जो आत्महत्या के रूप में सामने आयी. क्या हम बच्चों की भावना को नहीं समझ पा रहे हैं या बच्चे अपने बड़ों को नहीं समझ पा रहे हैं. यह कोई पहली घटना नहीं है, रोज इस तरह की घटना सुनने को मिलती है. आंकड़े बताते हैं कि अपने देश में हरेक घंटे में एक बच्चा आत्महत्या कर रहा है.
पिछले दिनों प्रभात खबर के द्वारा स्कूलों में ‘बचपन बचाओ अभियान के तहत कई कार्यक्रम पूरे झारखंड में आयोजित किया गया था जिसमें बच्चों के साथ सीधे संवाद का कार्यक्रम था. कुछ बातें जो खुल कर सामने आयी.
*अभिभावक बच्चों के माध्यम से अपने सपनों को साकार करने की कोशिश करते हैं. बच्चों से जब संवाद होता है तो वे खुल कर बोलते हैं कि वे अपने माता- पिता के सपनों के तले दबा हुआ महसूस करते हैं. हर अभिभावक यह चाहता है कि उसका बेटा सबसे अव्वल रहे डॉक्टर बने, अभियंता बने, आईएस बने. कोई ये नहीं पूछता है कि तुम्हारे सपने क्या हैं?
*टेक्नोलॉजी ने जीवन को आसान बनाने का काम किया है लेकिन मोबाइल ,इंटरनेट, सोशल मीडिया और एकल परिवार ने माता -पिता ,परिवार और बच्चों के बीच संवादहीनता बना दी है. आज बच्चे फेस टू फेस कम फेसबुक में ज्यादा संवाद करते हैं.
*कंक्रीट के जंगलों के बढ़ने के कारण खेल के मैदानों की कमी हो रही है, जिससे बच्चों का सर्वांगीण शारीरिक और मानसिक विकास नहीं हो पा रहा है. आज बच्चे मैदान में खेलने की जगह मोबाइल में गेम ज्यादा खेल रहे हैं. बाकी कसर तो बच्चों पर पढ़ाई के दबाव ने पूरी कर दी है.
*शिक्षकों और बच्चों की यह बहुत बड़ी शिकायत है कि अभिभावक बच्चों की सुविधाओं का तो ख्याल रख रहे हैं लेकिन उनके पास बच्चों के लिए समय नहीं है. लेकिन अभिभावकों की अपनी दलील है. अगर कोई अभिभावक जीवनयापन की समस्या से जूझ रह है या बमुश्किल अपना जीवन यापन कर रहा है, तो वह नहीं चाहता है कि उनका बच्चा भी जीवकोपार्जन के लिए संघर्ष करे.
* किशोरावस्था के बच्चे स्वभाव से थोड़ा विद्रोही होते हैं, कहते हैं जब हम खुद से कोई निर्णय करते हैं तो माता पिता कहते हैं कि तुम तो अभी छोटे हो और अगर कोई काम नहीं कर पाते हैं , तो ये कहा जाता है की इतने बड़े हो गये हो लेकिन अभी भी समझ नहीं बढ़ी है.
*शिक्षकों के अपने विचार हैं. अभिभावक अपने बच्चे को सबसे बेहतर देखना चाहता है लेकिन वह सबकुछ स्कूल के भरोसे ही छोड़ना चाहता है.
*शिक्षकों पर भी सिलेबस पूरा करने का दबाव है. एक दौर था बच्चों पर सख्ती करने पर अभिभावक खुश होते थे. आज बच्चों को मामूली डांट पड़ने पर भी अभिभावक आपत्ति दर्ज करा देते हैं. एक वाक्या स्कूल के एक प्रिंसिपल ने सुनाया. उनके स्कूल में बच्चों का स्कूल मोटर साइकिल से आना मना है. एक बार एक अभिभावक को बुलाकर शिकायत की गयी कि उनका बच्चा मोटरसाइकिल से स्कूल आता है और मोटरसाइकिल स्कूल के बाहर एक चाय की दुकान में पार्क करता है तो अभिभावक उन्हीं पर भड़क गया और कहा कि जब मुझे कोई आपत्ति नहीं है तो आपको क्या तकलीफ है.
*शिक्षकों और प्रिंसिपल्स का कहना है कि ज्यादातर अभिभावकों को पैरेंटिंग आती ही नहीं है. बच्चे , अभिभावक और शिक्षक तीनों के तर्क को आसानी से ख़ारिज नहीं किया जा सकता है. बाल मनोवैज्ञानिक और एक्सपर्ट्स का मानना है कि बच्चों के साथ सामंजस्य बहुत आसान नहीं है लेकिन इसके अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं है.
* बच्चों के साथ दोस्ताना संबंध बनाने की जरुरत है. उनके साथ ज्यादा संवाद करने की जरूरत है, ताकि वे अपने मन की बात अपने अभिभावक और शिक्षकों के साथ आसानी से साझा कर सकें.
*बच्चों के व्यवहार में कोई असामान्य बदलाव हो तो उसे समझने और जानने की कोशिश करें. इसे इग्नोर करना धीरे- धीरे बड़ी परेशानी का कारण बन जाता है.
*बच्चों की क्षमता को पहचाने और उसी के आधार पर उसके करियर की प्लानिंग करें. दूसरे बच्चें के साथ तुलना करना बच्चे पर अनावश्यक दबाव बनाता है.
*बच्चों की जरूरतों का ख्याल रखें लेकिन उसकी हर जिद को मानने की जरुरत नहीं है.
*बच्चों को टेक्नोलॉजी से रूबरू करायें, लेकिन उसके इस्तेमाल की एक तय समय सीमा रखनी चाहिए.
*नार्मल टीचिंग के साथ -साथ बच्चें को नैतिक शिक्षा भी दें ताकि वो एक अच्छा इंसान भी बने
*स्कूलों के करिकुलम में बदलाव कर क्रिएटिव लर्निंग पर फोकस की जरूरत है ताकि शिक्षा का अनावश्यक दबाव कम हो.
आज जरूरत इस बात की है कि हम-आप अपने दृष्टिकोण में बदलाव करें अन्यथा हम इस तरह की घटनाओं पर सिर्फ कुछ दिन मातम मनाएंगे और फिर एक होनहार की दुखद आत्महत्या की कहानी सुनेंगे.