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खतो-किताबत की खुशबू

बीबीसी पर दिल्ली और कश्मीर की दो बच्चियों के बीच दस खतों की सीरीज मैं एक सांस में पढ़ गयी. उन खतों में सच्चाई के अल्फाज दोनों की जिंदगी को बयां कर रहे थे. अजीब इत्तेफाक है, जब कल सुबह मैं कमरे की सफाई कर रही थी, तो नीले रंग का अंतरदेसी (जिसे अंतरदेशीय पत्र […]

बीबीसी पर दिल्ली और कश्मीर की दो बच्चियों के बीच दस खतों की सीरीज मैं एक सांस में पढ़ गयी. उन खतों में सच्चाई के अल्फाज दोनों की जिंदगी को बयां कर रहे थे. अजीब इत्तेफाक है, जब कल सुबह मैं कमरे की सफाई कर रही थी, तो नीले रंग का अंतरदेसी (जिसे अंतरदेशीय पत्र कहते हैं) मिला, जो पापा को कोई तीस साल पहले लिखा गया होगा. शब्द धुंधले पड़ चुके थे. बमुश्किल मैं ‘बबुआ सब ठीक बा’ जैसे कुछ शब्दों को ही पढ़ पायी, बाकी के शब्दों को गुजरता वक्त अपने साथ ले जा चुका था.

शाम होते-होते मैं खतों के बंडल को निकाल कर बैठ गयी, जो कभी मेरे दोस्तों ने मुझे लिखे थे. उस बंडल में मेरे कुछ खत और ग्रीटिंग कार्ड्स भी थे, जिनमें मेरे कॉलेज के फर्स्ट, सेकेंड और थर्ड इयर के दिन जस-के-तस पड़े थे. उस वक्त पैसों को जोड़-जोड़ कर फूल-पत्तियों वाला लेटर हेड खरीदना, खूबसूरत लिखावट के लिए फाउंटेन पेन या फिर बाजार में आया नया खुशबूदार पेन खरीदना जुनून था. उन्हीं खतों में से एक खत उदयपुर की एक दोस्त ने कुछ दिन पहले ही मुझे व्हॉट्सएप किया, तो मैं अपनी ही लिखावट पहचान नहीं पायी. जब पता चला कि वह मेरी लिखावट है, तो बहुत हंसी आयी. उन दिनों खत लिखने का जुनून सवार था, कहानी, खत लिखने तक ही नहीं थी, उसमें खूबसूरत कोटेशंस, पेंटिंग्स और शायरी (जो निहायत ही बकवास हुआ करती थी) को भी ऐसे बयां किया जाता था कि खत ज्यादा वजनी लगे. उम्र के उसी दौर में जगजीत सिंह और गुलाम अली की गजलों के कैसेट्स का कलेक्शन किया था. गालिब व तमाम शायरों को भी कॉपी करने की नाकाम कोशिश की थी. गुजरते सालों ने कई दोस्तों के साथ शुरू हुई दोस्ती को और गहरा कर दिया, तो कुछ से अब इन खतों में ही मुलाकात हो पाती है. कुछ के भेजे फूल कार्ड्स में सूख गये हैं, लेकिन उनकी खुशबू आज भी वक्त के साथ रिश्तों के टूट जाने का दर्द महसूस करवाती है.

अब कोई भी किसी को खत नहीं लिखता. अब मैं पूरे घर को एक साथ खुशी का सनेसा (संदेश) पढ़नेवाले की आंखों की चमक से होते हुए सुननेवालों के चेहरे पर उतरते भाव को देखने के लिए तड़प गयी हूं. अब घरवालों को भी खुशी के सनेसे सोशल मीडिया के मार्फत मिल जाते हैं. अब अल्फाज कम होते जा रहे हैं. बातों को ट्विटर फॉर्मेट में बयां करनेवाले दो-दो पन्नों के खतों में जज्बात को बयां करने का दस्तूर भूला चुके हैं.

खुशनसीबी है कि गालिब, फैज और तमाम शायर सोशल मीडिया के दौर में पैदा नहीं हुए, वर्ना हम उनकी बाकमाल और प्यारी शायरी से महरूम रह जाते. अब हम व्हॉट्सएप, ट्विटर और फेसबुक पर नये भाषा और साहित्य को गढ़ रहे हैं, जो आनेवाली पीढ़ी के लिए कितना फायदेमंद होगा, मालूम नहीं.

नाजमा खान

टीवी पत्रकार

nazmakhan786@gmail.com

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