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छठ दूसरा दिन खरना आज : बहुआयामी महापर्व के जनसरोकार

मणिकांत ठाकुर वरिष्ठ पत्रकार आज व्रतधारी दिनभर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करेंगे. इसे ‘खरना’ कहा जाता है. प्रसाद के रूप चावल की खीर, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनायी जाती है. छठ पर्व के आयाम इतने विविध हैं कि उन्हें सिर्फ पारंपरिक नियम-निष्ठा वाले व्रत-त्योहार की शक्ल में सीमित […]

मणिकांत ठाकुर
वरिष्ठ पत्रकार
आज व्रतधारी दिनभर का उपवास रखने के बाद शाम को भोजन करेंगे. इसे ‘खरना’ कहा जाता है. प्रसाद के रूप चावल की खीर, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनायी जाती है.
छठ पर्व के आयाम इतने विविध हैं कि उन्हें सिर्फ पारंपरिक नियम-निष्ठा वाले व्रत-त्योहार की शक्ल में सीमित कर के सही रूप में नहीं समझा जा सकता. हालांकि, सबसे उल्लेखनीय है इसका सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष, जिसमें बीते तीन-चार दशकों के दौरान मैंने आयोजन के क्षेत्र-विस्तार के अलावा पर्व के पुराने संस्कार में कई तरह के बदलाव देखे हैं. जैसे कि बिहार के उत्तरी (मिथिला-अंगिका-वज्जिका) और दक्षिणी (मगध-भोजपुर) क्षेत्र समेत पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुख्यत: केंद्रित यह त्योहार अब देश के कई हिस्सों में विस्तारित हो चुका है.
यहां तक कि विदेशों में भी कहीं-कहीं इसके आयोजन की खबरें आने लगी हैं. यानी जहा‍ं-जहां गये बिहारी, वहां-वहां पहुंचा छठ पर्व. और इस तरह ले लिया एक व्यापक महोत्सव का रूप. लेकिन जब इस महापर्व के प्रति अगाध आस्था वाले पुराने प्रदूषण मुक्त स्वरूप पर नजर लौटती है, तो थोड़ी निराशा हो ही जाती है.
पिछली सदी के आठवें दशक में जब मैंने पटना में पत्रकारिता शुरू की थी, उन दिनों पटना का छठ पर्व काफी मशहूर हुआ करता था. तब गंगा नदी शहर से बिल्कुल सट कर बहती थी और उसकी धारा भी अपेक्षाकृत अविरल और निर्मल हुआ करती थी.
सुधरते-बिगड़ते आचरण
जब मैं पटना नया-नया आया था, तब यह देख कर हैरत में पड़ जाता था कि छठ महापर्व के चार दिनों में अपराध से जुड़ी खबरें हमें मिलनी तकरीबन बंद हो जाती थी. आम दिनों में जो युवक आवारागर्दी और दूसरी नकारात्मक गतिविधियों में रमे रहते थे, वो सब अचानक काफी समझदार और जिम्मेदार दिखने लग जाते थे. वे घाटों की सफाई करते, ट्रैफिक संभालते, व्रतियों की मदद करते और गलियों-सड़कों से गंदगी हटाने में पूरी तत्परता से जुट जाते थे. यह एक अनोखी बात थी जो छठ की तैयारी में समर्पित युवा वर्ग की प्रशंसा में कही और सुनी जाती थी.
मगर बाद के वर्षों में यह धारणा कुछ टूटती हुई-सी दिखने लगी. छठ के मौक़े पर भी आपराधिक वारदातों की खबरें आने लगीं. इस अवसर-विशेष पर लोगों के जैसे सात्विक व्यवहार पहले नजर आते थे, उनमें ह्रास होने लगा. और युवाओं का आचरण भी बदलने लगा. अब तो छठ-घाटों के आसपास रात में फिल्मी नाच-गाने के आयोजन भी होने लगे हैं, जो कई दफा अश्लीलता की हद तक पहुंच जाते हैं.
सांस्कृतिक स्वरूप में बदलाव
पिछले कुछ सालों में एक और गौरतलब बदलाव मैं देख रहा हूं कि छठ पर गाये जाने वाले पारंपरिक लोकगीत, और उन्हें गाने वाली महिलाओं का अभाव होता जा रहा है. अब व्यावसायिक आधार पर तैयार छठ गीतों की या तो धूम है या शोर. मरहूम लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी के बाद मशहूर गायिका शारदा सिन्हा ने इस सांगीतिक धरोहर को बचाने की दिशा में सराहनीय योगदान किया है. फिर भी आशंका है कि छठ पूजा-अर्चना के लोक-स्वर बने हुए वो गीत, जो बिहार के ग्राम्य-महिला समाज से उपजे और लोकसंगीत में ढल कर ‘छठी मैया के गीत’ बन कर ख्यात हुए, अब कहीं लुप्त तो नहीं हो जाएंगे!
पहले घाटों पर महिलाएं सुबह-शाम अर्घ के समय गीत गा-गाकर सूर्य देवता से जल्दी उगने की जो मनुहार करती थीं, वह मौलिक माधुर्य अब की रेकॉर्डिंग वाले बोल और धुन में कहां मिलेगा? एक और बदलाव जो मैंने छठ-पर्व आयोजन के सिलसिले में महसूस किया है, वह इसमें घुस आये राजनीतिक पहलू से संबंधित है. पिछले कुछ समय से राजनीतिक दलों के नेता भी अपने लिए समर्थन या वोट जुटाने की मंशा ले कर छठ घाटों पर सक्रिय दिखने लगे हैं.
खासकर मुंबई, दिल्ली समेत कई नगर-महानगर में यह चलन जोरों पर है. पहले ऐसी बात नहीं थी. राजनेता छठ घाट पर जाते थे, मगर सामान्य व्रती या पारिवारिक सदस्य के रूप में. अब वे मतदाता बिहारी जमातों को लक्ष्य करके टेलीविजन चैनलों के जरिये प्रचार पाने पहुंच जाते हैं. देखा-देखी बिहार के नेता भी घाटों की सफाई से लेकर सुरक्षा-व्यवस्था तक में अपनी भूमिका तलाशने लगे हैं.
बिहारी अस्मिता
राज्य से बाहर के लोग जब कहते हैं कि यह ‘बिहार का छठ पर्व ‘ है, तो जाहिर है कि इसे बिहार की पहचान या अस्मिता से ही जोड़ कर देखा जाता है. हालांकि कई जगहों पर गैर बिहारियों ने देखा-देखी ही सही, छठ पर्व के प्रति आस्था महसूसते हुए इसे अपना भी लिया है.
खासकर बिहार के हिंदू महिला समाज में इस महाव्रत के जरिये मन्नतें या मनोकामनाएं पूरी होने का जो अटूट विश्वास गहरे समाया हुआ है, उसका प्रभाव अन्य सामाजिक समूहों पर भी पड़ा है. वैसे भी, इस पर्व की शुरुआत चूंकि बिहार से हुई, इसलिए बिहारवासी इसमें अपनी अस्मिता का एहसास करेंगे ही. उन्हें लगता है कि इस व्रत ने बिहार को भी सामाजिक समरसता दिखाने का मौका दिया है.
ऐसी लोक-आस्था कुछ हद तक अंधविश्वास से अलग दिखती भी है क्योंकि संबंधित सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियां कई तरह के सकारात्मक असर छोड़ती हैं. बिहार के हिंदू समाज का जातीय भेदभाव या द्वेषभाव छठ के घाटों पर नहीं दिखना या नहीं उभरना भी इस पर्व को खास बनाता है.
घटते और गंदलाते नदी-सरोवर
सचयह भी है कि अब पहले जैसे नदी-सरोवर के उतने घाट भी नहीं रहे. बहुत-सी जल धाराएं सूख गयीं और तालाब भी कम होते चले गये. जो बचे हैं, वे जल प्रदूषण के मारे हुए हैं. लोगों को अब सुरक्षित घाटों की तलाश में यहां-वहां भटकना पड़ता है.
यहां तक कि पटना शहर के अधिकांश मुहल्लों से गंगा नदी दूर जा चुकी है. फिर सिकुड़े घाटों पर भीड़-भाड़ और भगदड़ के खतरों से डरे लोग अब गंगा घाट जाने के बजाय अपने घरों की छतों पर जलाशय बनवाकर या कहीं गढ्ढों में पानी भर कर काम चला रहे हैं. इससे इस पर्व की सामाजिकता पर खतरा मंडराता दिख रहा है.
छठ पर्व में सभी धर्मों के लोगों की है आस्था
डॉ सुहेली मेहता
लोक
आस्था का महापर्व छठ पूरे विश्व में इसलिए प्रचलित है कि यह पर्व विज्ञान और अध्यात्म का अद्भुत संगम है. चार दिनों के छठ महापर्व में प्रकृति की पूजा बड़े ही आस्था के साथ हम सब करते हैं. विशेष बात तो यह है कि सभी धर्मों के लोग इस महापर्व के प्रति आस्था रखते हैं.
मैं जब आठ वर्ष की ही थी, तभी से मां के साथ छठ पर्व के काम में हाथ बटाना शुरू कर दिया था. गेहूं सुखाना व घर पर ही चक्की में बहनों के साथ मिल कर इसे पीसती थी. शादी के बाद ससुराल गयी, तो वहां मेरी सास भी छठ करती थीं. एक साल अस्वस्थ रहने के कारण मेरी सास ने कहा कि अब छठ नहीं कर पायेंगी और हमेशा के लिए समाप्त कर देंगी.
लेकिन, बचपन से छठ महापर्व को लेकर मेरी आस्था ने मुझे संकल्प लेने को मजबूर किया और मैं जिद करके उनकी जगह छठ पूजा करने लगी. पिछले 12 वर्षों से पूरी आस्था के साथ सूर्य की उपासना का पर्व छठ कर रही हूं.
लेखिका मगध महिला कॉलेज पटना में व्याख्याता हैं.
संयम और अनुशासन की सीख देती है छठ पूजा
प्रो अनिल कुमार राय
प्रकृति
और समाज के समागम का परिणाम है मानव सभ्यता का विकास. ऐसे में किसी भी सांस्कृतिक अभ्युदय को प्रकृति और मानव आचरण से पृथक देखना संभव नहीं है. छठ पूजा ऐसे ही मानव आचरण और प्रकृति के संगम का मूर्त रूप है. इस व्रत के विभिन्न चरणों में मानव आचरण के निर्माण के अनेकानेक प्रयास स्वतः दिखते हैं, तो सूर्योपासना इसके ‘प्राकृत’ से लगाव का बोध कराती है.
इस पूजा में अर्घ इसके समर्पण के भाव का बोध कराता है. प्रकृति से प्राप्त सब प्रकार के फलों को पुन: प्रकृति को ही अर्पित करना इस बात का बोध कराता है कि जो भी लिया प्रकृति से लिया और हमारा आचरण पुन: उसे प्रकृति को ही अर्पित करने वाला होना चाहिए.
ॐ सूर्य देवं नमस्तेस्तु गृहाणं करुणा करं |
अर्घ्यं च फलं संयुक्त गन्ध माल्याक्षतैयुतम् ||
सूर्य देव के प्रति यह समर्पण करने के भाव में न सिर्फ प्रकृति का प्रकृति को ही अर्पित करने का भाव निहित है बल्कि आचरण की पवित्रता और वैचारिक शुद्धता के लिए कठिन व्रत का रिवाज है. पर्यावरण और प्रकृति के प्रति समर्पण का ऐसा भाव शायद ही किसी संस्कृति में दिखता हो.
छठ पर्व का महत्व इसलिए और भी बढ़ जाता है कि इसमें त्याग, तपस्या के साथ कार्यव्यवहार को परिष्कृत करना भी शामिल होता है. व्रती लगभग पूरे सप्ताह के कठिन अनुशासन में व्रत के बाद इस पूजा को संपन्न करते हैं जो जीवन में संयम और अनुशासन की सीख दे जाती है.
इस व्रत में गाया जाने वाला गीत
केरवा जे फरेला घवद से
ओह पर सुगा मेड़राय
उ जे खबरी जनइबो अदिक (सूरज) से
सुगा देले जुठियाय
इस यथार्थ को चित्रित करता है कि ‘क्या मेरा’ ‘सब कुछ तेरा’ और तेरा तुझ को ही अर्पित करूं तो कैसे. यह भाव इतने सहज और सरल तरीके से समाज को सिखा देने वाले त्योहार का नाम है छठ पूजा. इस तरह अगर देखा जाये, तो छठ पूजा श्रद्धा, समर्पण, अर्पण और सामाजिक सामंजस्य के साथ आचरण के भाव से मनाया जाने वाला त्योहार है.
(लेखक महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय मोतिहारी में सम कुलपति हैं.)

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