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नेताजी की जयंती पर विशेष : स्वतंत्रता संघर्ष के महानायक

कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार kp_faizabad@yahoo.com लंबे स्वतंत्रता संघर्ष ने हमारे देश को जितने महानायक दिये, नेताजी सुभाष चंद्र बोस उनमें सबसे अलग हंै. इस अर्थ में कि देशवासियों ने न सिर्फ उनके शौर्य को अप्रतिम माना, बल्कि उसे लेकर मिथ भी रचे. इतना ही नहीं, 18 अगस्त, 1945 को ताइपेई में हुई विमान दुर्घटना […]

कृष्ण प्रताप सिंह

वरिष्ठ पत्रकार

kp_faizabad@yahoo.com

लंबे स्वतंत्रता संघर्ष ने हमारे देश को जितने महानायक दिये, नेताजी सुभाष चंद्र बोस उनमें सबसे अलग हंै. इस अर्थ में कि देशवासियों ने न सिर्फ उनके शौर्य को अप्रतिम माना, बल्कि उसे लेकर मिथ भी रचे. इतना ही नहीं, 18 अगस्त, 1945 को ताइपेई में हुई विमान दुर्घटना में उनके निधन की खबर को खारिज करके उन्हें अपनी उम्मीदों में जिंदा रखा. हाल के दशकों तक उनके कहीं रहस्यमय ढंग से रहने या ‘प्रकट’ होने की ‘खबर’ मिलते ही अनेक श्रद्धाविह्वल लोग उन्हें निकट से निहारने की लालसा लिये वे वहां पहुंच जाते थे.उनका दिल किसी भी तरह मानता ही नहीं था कि वे अब इस संसार में नहीं हैं. कुछ का दिल तो अब भी नहीं मानता.

अभी दो साल पहले तक कुछ लोगों का विश्वास था कि गत शताब्दी के नवें दशक में नेता जी ने गुमनामी बाबा के रूप में अपने अंतिम दिन उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में बिताये. इस विश्वास का आधार यह था कि गुमनामी बाबा के देहावसान के बाद उनके निवास ‘राम भवन’ से अनेक ऐसी चीजें प्राप्त हुई थीं, जिनका संबंध उनसे जोड़ा जा सकता था.

लेकिन इसकी जांच के लिए गठित जस्टिस विष्णु सहाय आयोग ने 19 सितंबर, 2017 को अपनी रिपोर्ट में उनके विश्वास को सर्वथा नकार दिया. इससे पहले 2015 में केंद्र सरकार ने नेता जी से जुड़ी फाइलें सार्वजनिक करना शुरू किया, तो गुमनामी बाबा को नेता जी माननेवालों को उम्मीद थी कि उनमें से कोई न कोई ऐसा सूत्र जरूर निकलेगा, जो गुमनामी बाबा को नेता जी सिद्ध करने की उनकी मुहिम में मददगार होगा. लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ आयी.

बहरहाल, 23 जनवरी, 1897 को कटक में धर्मपरायण माता श्रीमती प्रभावती देवी और वकील पिता जानकीनाथ बोस के पुत्र के रूप में जन्मे सुभाष चंद्र बोस के व्यक्तित्व व कृतित्व में बचपन से ही वीरता व बुद्धिमत्ता का मणिकांचन संयोग था.

मैट्रिक परीक्षा में उन्होंने तत्कालीन कल्कत्ता सूबे में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया, जबकि दर्शनशास्त्र के साथ स्नातक डिग्री कलकत्ता के ही स्काटिश चर्च काॅलेज से प्रथम श्रेणी में पायी थी. वर्ष 1920 में इंग्लैंड में प्रतिष्ठित आइसीएस परीक्षा में चौथे स्थान पर आकर वे उज्ज्वल भविष्य के सपने संजो ही रहे थे कि नृशंस जलियांवाला बाग कांड ने देश के अनेक नौजवानों के साथ उनको भी हिला कर रख दिया.

फिर तो वे आइसीएस की अप्रेंटिसशिप छोड़कर देश वापस लौट आये और स्वतंत्रता संघर्ष में कूद पड़े. देशबंधु चितरंजनदास को उन्होंने अपना राजनीतिक गुरु माना और कांग्रेस में अपने दृष्टिकोण का पहला बड़ा परिचय 1928 में कांग्रेस द्वारा नियुक्त मोतीलाल नेहरू समिति के बहुचर्चित ‘डोमिनियन स्टेटस’ के सुझाव को खारिज करके दिया.

तब उन्होंने कहा था कि अब पूर्ण स्वराज्य से कम कुछ भी स्वीकार नहीं किया जा सकता. साल 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में वे जेल गये, तो गांधी-इरविन समझोते के बाद ही छूटे. इस समझौते और आंदोलन के स्थगन का तो उन्होंने मुखर विरोध किया ही, भगत सिंह को फांसी के वक्त भी गांधीजी से अलग स्टैंड लिया.

साल 1938 में हरिपुरा महाधिवेशन में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गये, तो इतने अतुलनीय सिद्ध हुए कि अगले अध्यक्षीय चुनाव में गांधी द्वारा समर्थित पट्टाभिसीतारमैया उनके सामने नहीं टिक सके. पर यह अध्यक्षी उन्हें रास नहीं आयी, क्योंकि गांधीजी ने पट्टाभिसीतारमैया की हार को अपनी हार की तरह लिया और नरमदली कांग्रेसी नेता जी द्वारा अंग्रेजों को छह महीने में भारत छोड़कर चले जाने अथवा परिणाम भुगतने को तैयार रहने के अल्टीमेटम के विरोधी हो गये.

आगे चलकर अंग्रेजों को बलपूर्वक देश से बाहर करने का सपना देखते हुए नेताजी ने कांग्रेस छोड़ दी, फारवर्ड ब्लाॅक बनाया और नया नारा दिया- ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा!’ गोरी सत्ता के देश से निर्वासन के क्रूर दंड को तो वे पहले ही बेकार कर चुके थे, 1941 में भूमिगत होकर अफगानिस्तान के रास्ते जर्मनी जा पहंुचे और ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त’ की रणनीति के तहत भारत की स्वाधीनता के लिए ब्रिटिश साम्राज्य के जर्मनी व जापान जैसे शत्रु देशों का सहयोग सुनिश्चित करने में लग गये.

सिंगापुर पहुंचकर उन्होंने रासबिहारी बोस से भेंट की और 21 अक्तूबर, 1943 को आजाद हिंद सेना व सरकार गठित करके अपना सशस्त्र अभियान आरंभ किया. उन्हें विश्वास था कि वे जल्दी ही अंग्रेजों को हराकर भारत को मुक्त करा लेंगे.

देश-विदेश में भारी सहयोग व समर्थन के बीच अंडमान निकोबार को मुक्त कराते हुए 18 मार्च, 1944 को वे भारतभूमि तक पहुंच गये थे. लेकिन विश्वयुद्ध में उनके सहयोगी देशों की हार के साथ ही उनका मिशन अधूरा रह गया. लेकिन, यह अधूरापन उनके अभियान की महत्ता कम नहीं करता.

अब तो ब्रिटेन का नेशनल आर्मी म्यूजियम भी मानता है कि उनकी आजाद हिंद सेना द्वारा कोहिमा में चार अप्रैल, 1944 से 22 जून,1944 तक तीन चरणों में लड़ी गयी लड़ाई ‘लड़ाइयों के इतिहास में महानतम’ थी. पूरब के स्तालिनग्राद के नाम से मशहूर इस लड़ाई में उसके व उसकी सहयोगी जापानी सेना के 53 हजार सैनिकों ने शहादत दी थी. इसमें आजाद हिंद सेना की विजय हुई होती, तो हमारे देश के स्वतंत्रता संघर्ष का इतिहास बदल देती.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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