मेजर जनरल (रिटायर्ड) अशोक मेहता
वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध को छोड़ कर अन्य सभी युद्धों में शामिल रहे अशोक मेहता देहरादून स्थित इंडियन मिलिट्री कॉलेज से पासआउट हैं. 1957 में भारतीय सेना में पांचवीं गोरखा राइफल के इंफैट्री रेजिमेंट में शामिल हुए. ब्रिटेन स्थित रॉयल कॉलेज ऑफ डिफेंस स्टडीज और अमेरिका स्थित कमांड एंड जनरल स्टॉफ कॉलेज से सेना का विशेष कोर्स करने वाले अशोक मेहता वर्ष 1991 में सेना से सेवानिवृत्त हुए. देहरादून स्थित इंडियन मिलिट्री एकेडमी और वेलिंगटन स्थित डिफेंस सर्विस स्टाफ कॉलेज में पढ़ा चुके मेहता श्रीलंका में भारतीय शांति सुरक्षा बल के जनरल कमांडिंग ऑफिसर भी रह चुके हैं. वे सैन्य, सामरिक मामलों के कुशल जानकार हैं.
वर्ष 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध की सबसे बड़ी खासियत यह है कि भारत के इतिहास में यह सबसे बड़ी जीत है. इससे बड़ी जीत पर गौर करें, तो हमें एक हजार साल पीछे जाना होगा. यह युद्ध इस मायने में भी अहम रही कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद हुए इस युद्ध के परिणाम स्वरूप एक नये देश बांग्लादेश का उदय हुआ. किसी भी युद्ध के बाद ऐसा पहली बार हुआ कि 90 हजार से अधिक पाकिस्तानी सैनिक युद्ध बंदी बनाये गये. यह सिर्फ दो देशों की लड़ाई नहीं थी, बल्कि आत्मरक्षा के अधिकार के लिए उठाया गया कदम माना जा सकता है.
विभाजन के बाद पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से में बांग्लाभाषी लोगों के खिलाफ पाक सेना का दमन बढ़ता जा रहा था. पाक फौज के आतंक के कारण भारत में लगभग एक करोड़ रिफ्यूजी आ गये. दमन के खिलाफ वहां के लोगों में भी गुस्सा बढ़ता जा रहा था. ऐसे में भारत को लोगों की रक्षा के लिए दखल देना पड़ा और भारतीय सेना ने ऑपरेशन सर्चलाइट चलाया. इस युद्ध की एक और खास बात यह है कि भारत-पाकिस्तान के बीच सबसे छोटे समय का युद्ध था और महज 13 दिनों में समाप्त हो गया. यह दोनों देशों के बीच व्यापक पैमाने पर लड़ा जाने वाला आखिरी परंपरागत युद्ध रहा है.
अवामी लीग के नेता शेख मुजीबुर्रहमान को बहुमत के बाद भी 1970 में सरकार नहीं बनाने दिया गया. इस बात के खिलाफ पूर्वी पाकिस्तान के लोग सड़कों पर उतर कर आंदोलन करने लगे. आंदोलन को दबाने के लिए पाकिस्तानी सेना ने दमन चक्र चलाना शुरू कर दिया. दमन से बचने के लिए लाखों लोग भारत में शरणार्थी के तौर पर आने लगे. इससे भारत पर कार्रवाई का दबाव बढ़ने लगा. पूर्वी पाकिस्तान की मुक्ति वाहिनी भी भारत से सैन्य दखल की मांग करने लगी. भारत सरकार वहां के हालात पर नजर बनाये हुई थी और सेना को तैयार रहने का आदेश दिया जा चुका था. आखिरकार तीन दिसंबर, 1971 को भारतीय सेना को पूर्वी पाकिस्तान में दखल देने का आदेश दिया गया. इसकी तैयारी सेना काफी पहले से कर रही थी.
भारतीय सेना के लिए सबसे पहले अखौरा पर कब्जा करना जरूरी था. अखौरा में पाकिस्तानी सेना काफी मजबूत स्थिति में थी. यहां पर पाकिस्तानी सेना की 12 फ्रंटियर फोर्स तैनात थी, जिसे टैंक, आर्टिलरी और वायु सेना का समर्थन हासिल था, लेकिन भारतीय सेना ने पाकिस्तान के इस मजबूत किले को बड़ी बहादुरी और चतुराई से ढहा दिया. अखौरा की हार के बाद पाक सेना की 27 आर्टिलरी ब्रिगेड मेघना नदी की ओर चली गयी.
वहीं भारतीय सेना भी मेघना नदी की ओर बढ़ने लगी. इससे पाकिस्तान सेना को लगा कि भारतीय सेना मेघना नदी पर बने पुल पर कब्जा करना चाहती है. इस पर कब्जे के लिए दोनों सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध हुआ, लेकिन भारतीय वायु सेना की मदद से दुश्मनों के हौसले को पस्त कर दिया. हार को देखते हुए पाकिस्तानी सेना ने पुल का उड़ा दिया, ताकि भारतीय सेना नदी को पार नहीं कर सके. इसे देखते हुए कॉर्प्स कमांडर सगत सिंह ने हेलीकॉप्टर से सैनिकों को उस पर भेजने का आदेश दिया.
इसके बाद सैनिकों को हेलीकॉप्टर से नदी के उस पार पैरा ड्रॉप किया गया. साथ ही टैंकों रेजीमेंट को नदी पार करने का आदेश दिया गया, लेकिन मेघना नदी के तेज बहाव को देखते हुए यह काफी चुनौतीपूर्ण काम था, लेकिन इस चुनौती को टैंक रेजीमेंट ने स्वीकार किया और मेघना नदी को पार कर लिया. पाकिस्तानी सेना को इसका अंदाजा नहीं था. इससे पाकिस्तानी सेना में डर का माहौल पैदा हो गया और भारतीय सेना ढाका की ओर बढ़ने लगी और सिर्फ 13 दिन में पूर्वी पाकिस्तान पर भारतीय सेना का कब्जा हो गया.
पूर्वी पाकिस्तान में पाक सेना के दमन और भारत में रिफ्यूजी की बढ़ती संख्या को देखते हुए भारत सरकार ने सेना के पश्चिमी कमांड को आदेश दिया कि पूर्वी पाकिस्तान के अंदर सैन्य ऑपरेशन करना है. सरकार का मकसद पूर्वी पाकिस्तान में जमीन पर कब्जा करना नहीं था, बल्कि वहां की प्रांतीय सरकार को मदद मुहैया कराना था. ढाका पर सैन्य कब्जा करना नहीं था, बाद में ढाका को शामिल किया गया.
भारतीय सेना का ऑपरेशन चार दिशा से किया गया. एक उत्तर से, दो पश्चिम दिशा से और एक पूर्वी दिशा से किया गया. भारतीय सेना के इतिहास में यह पहला ऑपरेशन था, जिसे तीनों सेना ने मिलकर चलाया. युद्ध की तैयारी 9-10 महीने पहले शुरू कर दी गयी थी. इस दौरान लॉजिस्टिक सपोर्ट जुटाया गया, ताकि समग्र ऑपरेशन चलाया जा सके. इस युद्ध में पहली बार 20-21 नवंबर को खुखरी अटैक किया गया, पहली बार सिलेट में हेलीबोर्न अटैक मेघना नदी के पास किया गया और पहली बार बटालियन को पैरा ड्रॉप किया गया.
1971 का युद्ध ऐसा है, जिसमें पहली बार महज तीन दिन में भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान पर व्यापक बढ़त हासिल कर ली. खास बात है कि भारतीय सेना को मुक्ति वाहिनी का समर्थन मिला. यह पहला युद्ध था, जिसमें भारतीय सेना ने डिसेप्शन और मनोवैज्ञानिक युद्ध के तरीकों का इस्तेमाल किया. इस युद्ध की सबसे अहम बात यह है कि पाकिस्तान सीजफायर चाहता था, लेकिन भारतीय सेना ने इसे आत्मसमर्पण में तब्दील किया.
इस युद्ध में भारत के कब्जे में 90 हजार पाकिस्तानी युद्ध बंदी थे. पूर्वी पाकिस्तान पर भारतीय फौज का पूरी तरह नियंत्रण हो चुका था. इसके बावजूद भारत सरकार जम्मू-कश्मीर के मसले का स्थायी समाधान नहीं कर पायी. यह इस युद्ध की सबसे बड़ी कमी मानी जा सकती है. इस लड़ाई में हार के बाद पाकिस्तानी सेना ने भारत से बदला लेने के लिए अपनी रणनीति में बदलाव किया और सीधे युद्ध लड़ने की बजाय आतंकवाद को बढ़ावा देना शुरू कर दिया, जिसका खामियाजा आज भी देश को उठाना पड़ रहा है.
इस युद्ध से शुरू होने से पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने सोवियत संघ के साथ 20 साल की शांति एवं मित्रता संधि की. इस संधि के कारण युद्ध के दौरान भारत का अमेरिका और चीन जैसे देशों से बचाव हुआ. इस संधि का फायदा यह हुआ है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में जब अमेरिका, चीन, ब्रिटेन और फ्रांस पाकिस्तान के साथ सीजफायर की मांग उठाते थे, तो सोवियत संघ वीटो कर देता था. सोवियत संघ ने ऐसा चार बार किया. इसे देखते हुए भारत पर तेजी से युद्ध खत्म करने का दबाव बन रहा था, जिसे सेना ने नियत समय में पूरा कर दिखाया.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)
Posted by: Pritish Sahay