नयी दिल्ली : भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले हिंदू पलायन का मुद्दा छेड़कर राजनीति गरम कर दी है. जानकारों की माने तो भाजपा सांसद हुकुम सिंह द्वारा जारी की गई लिस्ट में हिंदू शब्द का उपयोग नहीं किया है लेकिन विपक्ष इसे हिंदू पलायन से जोड़कर भाजपा के वोट बैंक को थोड़ा ढीला करना चाह रहा है. केंद्रीय मंत्री श्रीपद नाईक ने मंगलवार को पत्रकारों के साथ बातचीत में बताया कि कैराना के विवाद पर पीएम मोदी नजर बनाए हुए हैं और तीन केंद्रीय मंत्रियों का एक दल भी उत्तर प्रदेश के इस क़स्बे में जाएगा और ‘हिन्दुओं के पलायन’ की ख़बरों की जांच करेगा.
कैराना की सूची के बाद अब भाजपा सांसद हुकुम सिंह ने पास के ही क़स्बे कांधला के 68 लोगों की सूची जारी की है. लेकिन नई सूची में ‘हिन्दू’ शब्द का प्रयोग नहीं है. हुकुम सिंह के इस तरह के हिंदू पलायन को जानकार ‘हुकुम का इक्का’ मान रहे हैं क्योंकि भाजपा इस प्रकार के मुद्दे उठाकर 2017 के वि धानसभा चुनाव के पहले अपना वोट बैंक मजबूत करना चाह रही है जो काफी हद तक सही दिशा में भी जा रहा है. ऐसे में अब सवाल यह उठता है कि आख़िर हुकुम सिंह कौन हैं और वो पहले इस तरह के विवाद को जनता और सरकार के समक्ष लाने में क्यों विफल रहे….
आज़म ख़ान भी हैं हुकुम के मुरीद
मार्च 2013 में उत्तर प्रदेश की विधानसभा सत्र के दौरान सपा नेता और वर्तमान में शहरी विकास मंत्री आजम खान भी हुकुम सिंह के मुरीद हो गए थे. जब एक दिन सत्र के दौरान मजेदार बहस चल रही थी इस दौरान भाजपा विधायक दल के नेता हुकुम सिंह ने अपने बोलने के अंदाज से अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को आकर्षित होने पर मजबूर कर दिया था. सत्ता पक्ष की ओर से आजम खान खड़े हुए और हुकुम सिंह की ओर से सदन में रखी गई बातों को ग़ौर से सुनने के बाद कहा कि हुकुम सिंह जी के मूल्यों और उनकी राजनीतिक सोच से मैं प्रभावित हूं और मैं उनसे आग्रह करता हूं कि वे समाजवादियों के साथ आकर जुड़ जायें.
जज बनने की जगह की भारत मां की सेवा
हुकुम सिंह का अतित काफी विचित्र है. कानून की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने उत्तर प्रदेश की न्यायिक सेवा की परीक्षा भी पास की लेकिन उन्होंने जज बनने की जगह भारत मां की सेवा करना बेहतर समझा और सेना में चले गए. हुकुम सिंह ने 1965 में चीन के साथ हुए युद्ध में भी हिस्सा लिया. फ़ौज से रिटायर होकर उन्होंने वकील के पेशे को अपनाया लेकिन 1974 में वे राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने पहुंचे. 2013 से पहले मीडिया में उनकी इतनी चर्चा लोगों ने कभी नहीं सुनी जबकि वो सात बार विधायक और उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री के पद पर भी रह चुके हैं.
तो ऐसे आए चर्चा में
हुकुम सिंह के चर्चा में आने की कहानी भी अजीब है. जब मुज़फ्फरनगर दंगे के बीच हुकुम सिंह ने कथित तौर पर ‘नफ़रत भरे बयान’ दिए तो लोग उन्हें पहचानने लगे जबकि शामली में और उत्तर प्रदेश की विधानसभा में उन्हें एक ‘सुलझा हुआ’ और ‘गंभीर’ वक्ता के रुप में जाना जाता है. वे कह चुके हैं कि कैराना से हो रहे पलायन का मामला सांप्रदायिक नहीं है. यह क़ानून व्यवस्था का मुद्दा है. लोग इसे अपने फायदे के लिए सांप्रदायिक मुद्दा बनाना चाहते हैं ताकि आसामाजिक तत्वों को संरक्षण दिया जा सके.
हुकुम सिंह ने कांग्रेस से की शुरुआत
हुकुम सिंह का राजनीतिक सफ़र 1974 में कांग्रेस के साथ शुरू हुआ. वे कांग्रेस के टिकट पर दो बार विधायक रह चुके हैं. कांग्रेस का दामन छोडने के बाद वे जनता पार्टी में शामिल हुए और चुनाव लड़ा. जनता पार्टी के टिकट पर भी जनता का साथ उन्हें मिला और विधायक चुने गए. 1995 में उन्होंने भाजपा पर विश्वास दिखाया और पार्टी में शामिल हुए. भाजपा के टिकट से भी वे चार बार विधायक रहे लेकिन 2009 में वो लोकसभा चुनाव हार गए थे. फिर वे मुज़फ्फरनगर के दंगों के बाद हुए लोकसभा चुनाव में भारी मतों से जीते.