नयी दिल्ली : आधुनिक समय में व्यस्त जीवनशैली के कारण उत्तर भारत और दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में भगवान राम के चरित्र को रंगमंच पर उतारने की परंपरा एवं यूनेस्को विश्व धरोहर ‘रामलीला’ के प्रति लोगों की रुचि कम होती जा रही है जिसके कारण आज न तो पर्याप्त संख्या में दर्शक मिल रहे है और न ही कलाकार.
लालकिला के पास रामलीला का मंचन करने वाली धार्मिक लीला कमेटी के अध्यक्ष वेद प्रकाश गोयल ने ‘भाषा’ से कहा कि व्यस्त जीवन शैली के कारण लोग परंपराओं से दूर होते जा रहे हैं, रामलीला की परंपरा इससे अछूती नहीं रही है. एक जमाना था जब गली मोहल्ले में रामलीला का मंचन होता था लेकिन आज हालत यह है कि न तो पर्याप्त संख्या में दर्शक मिल रहे हैं और न ही कलाकार.राम कला मंदिर के प्रमुख आनंद खजूरिया ने कहा कि आज रामलीला के मंचन के लिए कलाकार भी नहीं मिल रहे हैं. पहले पात्र को निभाने के लिए कई कलाकार लाइन में लगे रहते थे लेकिन आज के कलाकार केवल मुख्य पात्र निभाने के लिए आगे आते हैं.
उन्होंने कहा कि टीवी, इंटरनेट और पढ़ाई के बोझ के कारण युवाओं में रामलीला के प्रति रुझान कम हो गया है. रामलीला केवल भारत ही नहीं बल्कि इंडोनेशिया, मलेशिया, थाईलैंड, म्यांमा जैसे देशों में भी काफी लोकप्रिय हैं. यूनेस्को ने इसकी लोकप्रियता और सांस्कृतिक महत्व को देखते हुए 2005 में इसे विश्व धरोहर की सूची में शामिल किया था.
थाईलैंड के नरेश वोरमत्रयी के राजभवन की नियमावली में रामलीला का उल्लेख मिलता है जिसकी तिथि 1458 ई. दर्ज है. वर्मा के राजा ने 1767 ई. में थाईलैंड पर आक्रमण किया था. इस युद्ध में थाईलैंड पराजित हो गया. विजेता सम्राट स्वर्ण आभूषण के साथ रामलीला कलाकारों को भी अपने साथ ले गये थे. दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में रामलीला कई रुपों में पायी जाती है. इनमें मुखौटा रामलीला और छाया रामलीला प्रसिद्ध है. इंडोनेशिया और मलेशिया में यह ‘लाखोन’ और वर्मा में ‘ल्खोनखाल’, थाईलैंड में ‘नंग’ के नाम से प्रचलित है. यूनेस्को के अनुसार, दशहरा के मौके पर कस्बों, गांवों, शहरों में आयोजित की जाने वाली ‘रामलीला’ असत्य पर सत्य की विजय को प्रदर्शित करने का महत्वपूर्ण माध्यम है.