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– हरिवंश – हमारी व्यवस्था में कुछ जन्मजात व शाश्वत विक्षुब्ध हैं. उनका एकसूत्री फार्मूला है, हर चीज का विरोध. यह ब्रीड (वर्ग) अपने आप से नाखुश और विक्षुब्ध है, इसका क्या इलाज है? अगर हम भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था चाहते हैं, ब्लैकमनी, घूस वगैरह अनैतिक हथकंडे रोकना चाहते हैं, तो हमें खुद अपनी सरकार या […]

– हरिवंश –
हमारी व्यवस्था में कुछ जन्मजात व शाश्वत विक्षुब्ध हैं. उनका एकसूत्री फार्मूला है, हर चीज का विरोध. यह ब्रीड (वर्ग) अपने आप से नाखुश और विक्षुब्ध है, इसका क्या इलाज है? अगर हम भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था चाहते हैं, ब्लैकमनी, घूस वगैरह अनैतिक हथकंडे रोकना चाहते हैं, तो हमें खुद अपनी सरकार या राज्यसत्ता को यह सहयोग करना पड़ेगा. बिना सारी सूचनाएं पाये, सरकार या संबंधित एजेंसियां कैसे निगरानी कर सकती हैं?
सरकार की महत्वाकांक्षी योजना यूआइडी (यूनिक आइडेंटिफिकेशन नंबर) में रजिस्टर्ड होने का मौका मिला. व्यक्तिगत सूचनाएं भरनी थीं. उसमें एक कालम है, अपना बैंक एकाउंट भी इससे जोड़ना चाहते हैं? यह स्वैच्छिक है. चाहें तो दें या नहीं. हमने अपने दोनों बैंक खाते डाल दिये.
फिर बनानेवाले ने पूछा, आप यह सूचना भी ‘आल इंडिया सर्किट’ (यूआइडी डाटा भंडार) में डालना चाहते हैं. जबाव था, हां. यह भी बताया कि दो खाते हैं. दोनों डाल दिया है. पहला, 20 वर्षों पहले जहां रहता था, उस घर के पास का. दूसरा अब 7-8 वर्षों से जहां रह रहा हूं, उसके पास की बैंक शाखा का.
पता चला, बहुत लोग ये सूचनाएं नहीं दे रहे. फिर दो दिनों बाद अखबारों में पढ़ा. दिल्ली और महानगरों की ‘इलीट और इंटेलेक्चुअल लाबी’ (प्रभावी, बौद्धिक वर्ग) निजी सूचनाएं ‘राजसत्ता’ या ‘सरकार’ को देने या सौंपने के खिलाफ है. उन्हें डर है कि इसका दुरुपयोग होगा.
याद रखें कि इस वर्ष अप्रैल से ‘इनफारमेशन टेक्नालाजी रूल्स 2011’ प्रभावी हो गया है. ‘आइटी एमेंडमेंट एक्ट 2008’ को हमारे बौद्धिक, बोलने की स्वतंत्रता या आजादी पर हमला कह रहे हैं. नये प्रावधानों के तहत सरकार के पास यह अधिकार है कि वह किसी व्यक्ति के बारे में गोपनीय सूचनाएं हासिल कर सकती है. वित्तीय सूचनाएं भी. इसमें बैंक खाते, क्रेडिट कार्ड के ब्योरे भी शामिल हैं.
अब इसका भी विरोध हो रहा है. हमारी व्यवस्था में कुछ जन्मजात व शाश्वत विक्षुब्ध हैं. उनका एकसूत्री फार्मूला है, हर चीज का विरोध. यह ब्रीड (वर्ग) अपने आप से नाखुश और विक्षुब्ध है, इसका क्या इलाज है? अगर हम भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था चाहते हैं, ब्लैकमनी, घूस वगैरह अनैतिक हथकंडे रोकना चाहते हैं, तो हमें खुद अपनी सरकार या राज्यसत्ता को यह सहयोग करना पड़ेगा.
बिना सारी सूचनाएं पाये, सरकार या संबंधित एजेंसियां कैसे निगरानी कर सकती हैं? यह भी तथ्य सामने आये हैं कि आतंकवादी संस्थाएं कैसे धन जुटाती हैं? क्या इन चीजों पर निगरानी न रहे?
हम अगर अपने कामकाज में साफ-पारदर्शी हैं, तो हमें क्या परेशानी है? उलटे हमें आगे बढ़कर माहौल बनाना चाहिए कि जिन सरकारी कानूनों की वजह से भ्रष्टाचार पनपते-बढ़ते हैं, उन्हें नये कानून बनाकर रोका जाये. मसलन बेनामी संपत्ति को जब्त और सरकार द्वारा अधिग्रहण का कानून बने.
एक व्यक्ति खाकपति से अरबपति बनने का सही हिसाब न दे, तो उसकी संपत्ति पर सरकार क्या कदम उठाये, यह तय हो. जितने सांसद-विधायक अपने चुनाव खर्च का ब्योरा देते हैं, वे लगभग शत-प्रतिशत झूठे होते हैं. जो सबसे ताकतवर-प्रभावशाली पदों पर बैठे हैं, उनसे लेकर वार्ड-कमिश्नर व मुखिया तक चुनाव में क्या खर्च करते हैं, यह जगजाहिर है, पर जिन्हें नियमत: चुनाव खर्च रिटर्न भरना होता है, वे झूठे चुनाव खर्चों के विवरण देते हैं.
सार्वजनिक जीवन में यह झूठ-दोहरा आचरण क्यों? जनता मांग करे कि नये चुनाव खर्च कानून बनें, जिनमें सच-सच खर्चे लिखे जायें. झूठ से जन्मी सरकारें क्या नैतिक मापदंड बनायेंगी? इतना ही नहीं, यह सब जानते हैं कि फ्लैट खरीदने, जमीन रजिस्ट्री कराने में एक हिस्सा काला धन का रोज उपजता है. पूरे देश के रजिस्ट्री अॅाफिसों को जोड़ कर देखें, तो रोजाना कई सौ करोड़ ‘ब्लैकमनी जेनरेट’ (काला धन निकलता है) और सरकुलेट होती है.
उत्तर प्रदेश में खेत बेचने-खरीदने में इस ब्लैकमनी पर अंकुश लगा है. सरकार ने बाजार मूल्य के बराबर खेती भूमि का भाव तय कर दिया है. जानकार बताते हैं कि बड़े शहरों-महानगरों में आप फ्लैट लें, तो ब्लैक मनी खपाने का प्रचलन घटा है. छोटे शहरों के बिल्डरों की मजबूरी भी है.
व्यवस्था की पूजा के बिना उनका काम ही नहीं सरकता. इन चीजों की जानकारी देश के ताकतवर से ताकतवर लोगों को है. वे भी जब फ्लैट वगैरह लेने की प्रक्रिया से गुजरते हैं, तो इसके हिस्सेदार बनने को मजबूर होते हैं. करोड़ों-करोड़ों लोग जो रोजाना ऐसे कामों में शरीक हैं, वे सभी गलत और भ्रष्ट नहीं हैं. अधिसंख्य व्यवस्था द्वारा मजबूर कर दिये गये हैं कि वे भी इस भ्रष्टतंत्र के हिस्सेदार बनें. उसी तरह जैसे अनेक ईमानदार सांसद-विधायक हैं, पर वे चुनाव खर्च सीमा पर झूठी खर्च रिपोर्ट देने को विवश हैं.
इस तरह मांग यह होनी चाहिए कि ऐसे सभी कानून बदलें. जनता खुद अपनी हर गोपनीय सूचनाएं देने को तैयार रहे, तब ईमानदार व्यवस्था मिलेगी.
याद रखें, हम लोकतंत्र में हैं. गवर्नेंस के मोरचे पर यह व्यवस्था असहाय-लाचार दिखती है. प्रो. गुन्नार मिर्डल ने 60 के दशक में इसे ‘साफ्ट स्टेट’ कहा ‘लुंजपुंज व्यवस्था’. इसे ठीक, चुस्त-दुरुस्त और इफीशिएंट बनाना हमारा फर्ज है, क्यों? क्योंकि लोकतंत्र से बढ़िया व्यवस्था नहीं. एशिया के दूसरे मुल्कों को देखें.
यह बेहतर बनाने का काम कब-कैसे होगा? जब हम राजसत्ता से सहयोग करें. निजी वित्तीय सूचनाएं सरकार को देने में आपत्ति क्यों? यह कोई पुराने सोवियतसंघ का सर्वसत्तावादी स्टेट नहीं है, न केजीबी का आतंक है. न चीन जैसी एक पार्टी की दहशत है. उन व्यवस्थाओं में आपकी सूचनाएं लेकर निजत्व पर हमला होता है.
मनुष्य की गरिमा-स्वतंत्रता पर प्रहार होता है. पर भारत इन देशों-व्यवस्थाओं से भिन्न है. हम अच्छी सरकार चाहते हैं, ईमानदार व्यवस्था चाहते हैं, तो हमें भी उस लायक बनना होगा. हम नालायक रहें और सात्विक और श्रेष्ठ शासन चाहें, तो कैसे संभव है? हर चीज में विरोध की संस्कृति नकारात्मक और ध्वंसात्मक है.
दिनांक : 15.05.2011

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