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देश को चाहिए जवाब
– हरिवंश – क्वात्रोची परंपरा बोफोर्स और क्वात्रोची इस देश के घरेलू नाम बन गये हैं. एक खास संस्कृति, परंपरा और प्रचलन के प्रतीक. 64 करोड़ के बोफोर्स घोटाले की लंबी जांच के बाद अंतत: मामला सुलझ नहीं सका. जांच एजेंसियों ने माना कि यह डेड इंड तक पहुंच गया. डेड इंड, यानी जहां से […]
– हरिवंश –
क्वात्रोची परंपरा
बोफोर्स और क्वात्रोची इस देश के घरेलू नाम बन गये हैं. एक खास संस्कृति, परंपरा और प्रचलन के प्रतीक. 64 करोड़ के बोफोर्स घोटाले की लंबी जांच के बाद अंतत: मामला सुलझ नहीं सका. जांच एजेंसियों ने माना कि यह डेड इंड तक पहुंच गया. डेड इंड, यानी जहां से आगे का कोई रास्ता नहीं. बोफोर्स का प्रकरण एक बिंदु पर जाकर खत्म हो गया कि भ्रष्टाचार तो हुआ, पर पैसा कहां और कैसे बंटा यह नहीं मालूम. इस रहस्य के मुख्य सूत्रधार क्वात्रोची देश से फरार हो गये.
जांच एजेंसियों ने माना कि अब इसका सूत्र मिलना मुश्किल है और मामला बंद हो गया. खबर है कि 2जी प्रकरण में भी जांच एजेंसियां एक जगह पहुंच कर ठहर गयीं हैं. क्योंकि वहां से आगे के सूत्र नहीं मिल रहे. पैसा अंतत: कहां गया और कैसे पहुंचा, इसका पता लगाना जरूरी है? इसके बेनिफिसियरी (लाभांवित होनेवाले) और भ्रष्टाचार करनेवालों के बीच प्रामाणिक संबंध स्थापित होना जरूरी है. जब तक यह लिंक नहीं मिलता, कानूनन आरोप प्रमाणित नहीं होता, तब तक मामला सुलझता नहीं.
भ्रष्टाचार के हर छोटे-बड़े मामलों का अंतत: यही हश्र देश में हो रहा है. आजादी के बाद से अब तक यही होता रहा है. इससे लोगों में बड़ी अनास्था है कि भ्रष्टाचार का कितना भी बड़ा मामला पकड़ा जाये, अंतत: कुछ होता नहीं है. कुछ वर्षों तक आरंभिक सजा के बाद लोग रिहा हो जाते हैं. अंतत: मामले क्लोज (बंद या खत्म) हो जाते हैं. जबकि दुनिया के दूसरे देशों में ऐसा नहीं होता है.
मुजरिम पकड़े जाते हैं, और उन्हें सजा मिलती है. भारत में यह धारणा बन गयी है कि बड़े से बड़ा भ्रष्टाचार कर लीजिए, कुछ होने का नहीं है.
अंतत: सब रिहा हो जाते हैं. कानून का भय खत्म है, दंड का भय खत्म है, सजा का भय खत्म है. चीन में जो जेलों में बंद होता है, उसे सश्रम सजा होती है. अमेरिका में भी अपराध करनेवालों को सख्त सजा मिलती है. इस कठोर दंड के पीछे एक बोध होता है कि गलत करनेवालों को एहसास हो कि उसने क्या गलती या भूल या चूक की, ताकि वह सबक सीखे. इसके पीछे यह भी मानस है कि दोषी को सख्त सजा का असर दूसरों पर पड़ेगा और लोग भय, दंड देख कर अपराध की ओर उन्मुख नहीं होंगे.
पर भारत में जेलों की सजा तो सुविधा पाने का पर्याय बन गयी है. इसलिए भ्रष्टाचार करनेवाले, चाहे नेता हो या अफसर हो या कोई अन्य, वह सोचता है कि अंतत: छूट जायेगा. रिहा हो जायेगा. पैसे के बल कानूनी लड़ाई लड़ लेगा. बचे पैसे से कई पीढ़ियां मौज करेंगी. इसलिए भारत में चाहे बढ़ता भ्रष्टाचार हो या अपराध, वह नियंत्रित होता नहीं दिख रहा.
पर जनता इन दोनों चीजों से बेचैन है. इसलिए इसके खिलाफ बोलनेवाले को वह अद्भुत या अप्रत्याशित समर्थन देती है. बाबा रामदेव या अन्ना हजारे को मिलते समर्थन के पीछे यही मनोविज्ञान है. अगर राजसत्ता या सरकार या राजनीति व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त और प्रतापी बनाये, हर भ्रष्टाचार को सख्त सजा मिलने लगे, हर अपराध के दोषी को दंड मिले, तो हालात भिन्न होंगे. लोगों का राजनीति से या राजनेताओं से मोह भंग नहीं होगा.
देश की सुरक्षा!
किसी भी सरकार का मुख्य दायित्व है, बाहरी और आंतरिक सुरक्षा. देश की आंतरिक सुरक्षा की स्थिति कैसी है, यह रोज चर्चा का विषय है. आतंकवाद-नक्सलवाद, अपराध के तरह-तरह के नये रूप और प्रकरण. भगवान भरोसे जीवन. अब केंद्र, राज्य को दोष दे या राज्य, केंद्र को, इससे जनता को क्या फर्क? जनता दोनों को टैक्स दे रही है और अपने जीवन से कीमत चुका रही है.
पर बाहरी मोरचे पर क्या हाल है, यह भी जान लीजिए? 20 मई 2012 के संडे टाइम्स के पहले पेज पर खबर थी, भारत के रक्षा राज्य मंत्री, एमएम पल्लमराजू के हवाले से. उनके अनुसार चीन से, भारत को कोई खतरा नहीं.
(उनके शब्द हैं, चाइना नाट थ्रेट टू इंडिया-पल्लम राजू). फिर 23 मई को भारत सरकार ने संसद में बताया कि पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में 42 आतंकवादी ट्रेनिंग कैंप हैं. यह भी बताया गया कि इनमें से अधिसंख्य सक्रिय हैं और पड़ोसी देश (यानी पाकिस्तान) ने इन पर लगाम लगाने या अंकुश लगाने से इनकार कर दिया है. अब टाइम्स ऑफ इंडिया में ही 17 मई को छपी एक बड़ी खबर के तथ्य को जान लीजिए. चीन ने पांच सौ बार भारतीय सीमा का अतिक्रमण किया.
इस रिपोर्ट के अनुसार 4057 किलोमीटर के एक्चुअल कंट्रोल (मौजूदा सीमा) के तहत जनवरी 2010 से अब तक चीनी सैनिकों ने या चीनी सेना ने पांच सौ बार अतिक्रमण किया है. चीन के पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी की तादाद 25 लाख है, जो इस सीमा रेखा पर तैनात है. अनेक विशेषज्ञ बता चुके हैं कि चीन ने तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र में पांच बड़े हवाई अड्डे बनाये हैं. बडी संख्या में रेल लाइनें बिछायीं हैं. 58,000 किमी सड़कें भी बनवायी हैं. इस तरह चीन लगातार भारतीय सीमा पर आक्रामक व्यवहार कर रहा है.
भारत इसको बताने और सार्वजनिक करने में भी परहेज करता है. संसद के इसी सत्र में यह भी सूचना दी गयी कि पाकिस्तानी सेना के जहाजों ने कई सौ बार भारतीय सीमा में उल्लंघन किया. आक्रामक न होना, भारतीय संस्कृति के अनुरूप है. दुनिया को बचाये रखने के लिए यही रास्ता भी है. पर जो मजबूत बन कर, ताकत के रूप में रहते हैं, उन्हीं की स्वतंत्रता अक्षुण्ण रहती है.
भारत का इतिहास पलट लीजिए, जो कमजोर रहे, जो आत्मस्वाभिमान के प्रति सजग नहीं रहे, वे देश तोड़क बन गये. भारतीय इतिहास का यह फक्र करनेवाला विषय है कि हम हमलावर नहीं रहे, आक्रामक नहीं रहे, न लुटेरे रहे और न खूनी कौम. पर अपनी स्वाधीनता बचाये रखने के लिए भी हमें अपने बाहुबल पर ही भरोसा करना होगा. भारत के एक पूर्व ईमानदार सेनाध्यक्ष ने (वह सार्वजनिक मंचों पर अधिक बोले जरूर, पर उनकी ईमानदारी मुखर थी.
उनकी चिंता देश के लिए सर्वोपरि रही) अपने पत्र में, अपने प्रधानमंत्री को सेना की स्थिति बतायी. हथियारों की कमी, गोला-बारूद की कमी बतायी. संसदीय समिति ने उसकी पुष्टि की. केंद्र सरकार की सबसे बड़ी जांच समिति ने यह भी पुष्ट कर दिया कि वह पत्र जो प्रधानमंत्री को लिखा गया था, वह सेनाध्यक्ष के यहां से लीक नहीं हुआ. पर इस अद्भुत देश के अद्भुत नेताओं ने शस्त्रविहीन सेना की स्थिति पर चिंता प्रकट नहीं की. न देश की सुरक्षा स्थिति पर बहस की.
न मीडिया इससे बेचैन हुआ. चीन के इस आक्रामक रवैये की खबर, पाकिस्तान द्वारा बार-बार घुसपैठ की खबर और भारतीय सेना की बदहाली की खबर को जोड़ कर पढ़िए. ऊपर से रक्षा राज मंत्री पल्लम राजू का बयान याद कर लीजिए कि चीन, भारत के लिए खतरा नहीं. क्या देश की सुरक्षा पर यह रुख-रवैया, दुनिया के किसी भी मुल्क में होगा? यह भारत में ही संभव है. यथा प्रजा तथा राजा.
बेकाबू होता अर्थतंत्र !
प्रधानमंत्री ईमानदार भी हैं और जाने-माने अर्थशास्त्री भी. ये दोनों उनके निजी गुण हैं. पर एक ईमानदार व्यक्ति सबसे ताकतवर पद पर रहते हुए भी भ्रष्टाचार की आंधी को रोक नहीं पा रहा, उसी तरह मशहूर अर्थशास्त्री और उदारीकरण के प्रणेता रहते हुए भी वह अर्थतंत्र को संभाल नहीं पा रहे.
यूपीए फेज वन (2004-09) और यूपीए फेज टू (2009 के बाद) के बीच महंगाई दोगुनी हो गयी है. रुपये की स्थिति लगातार अंतरराष्ट्रीय बाजार में कमजोर हो रही है. चीन तो महाशक्ति है, मॉरीशस की करेंसी भारत से मजबूत है. बांग्लादेश और पाकिस्तान की करेंसी में गिरावट या कमजोरी नहीं है. फिर भारत की यह स्थिति क्यों? यह एक सामान्य आदमी का सवाल है.
दरअसल, राजनीति दिशाहीन और लचर है, तो अर्थनीति बेहतर कैसे होगी? पेंशन फंड का मुद्दा कैबिनेट में इसलिए नहीं उठा, क्योंकि तृणमूल नाराज न हो जाये. यह स्थिति कैसी है? जैसे दम घुटते रोगी को ऑक्सीजन दिया जाये या नहीं का सवाल! मरीज के पास खड़ा डॉक्टर कह रहा है कि तुरंत लगाइए, पर कहा जाता है कि कोई दूसरा इस फैसले से नाराज न हो जाये, इसलिए सबकी सहमति से ली जाये. अब इस विलंब में भले ही मरीज की स्थिति नाजुक हो, इससे किसे फर्क है?
एक कंपनी का फैसला भारत की मौजूदा स्थिति का आईना है. फ्रापोर्ट एजी, दुनिया के सबसे बड़े निजी एयरपोर्ट ऑपरेटरों में से एक है. वह दिल्ली एयरपोर्ट का अपना दस फीसदी हिस्सा बेच कर, भारत का अपना व्यवसाय इस माह से बंद कर रही है. इस कंपनी के प्रबंध निदेशक अंसगर सिक र्ट ने दिल्ली में कहा (8 जून), इस सरकार में आर्थिक सुधारों के लिए न रीढ़ की हड्डी है, न ड्राइव (इच्छा या मनोबल). अब यूपीए-दो के कार्यकाल में कुछ होगा, इस पर मुझे निजी आशंका है.
यह टिप्पणी प्रधानमंत्री के ठीक एक दिन पहले आये बयान के बाद की गयी. प्रधानमंत्री ने कहा कि इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास और एयरपोर्ट विकास, सड़क विकास और पोर्ट (बंदरगाह) के विकास के लिए बड़े फैसले होंगे. तुरंत कदम उठाये जायेंगे. प्रधानमंत्री के इस बयान से एक वर्ग में उम्मीद जगी, पर फ्रापोर्ट केंद्र प्रबंध निदेशक का कहना है कि ऐसे बयान कई बार आ चुके हैं, इसलिए ऐसे बयानों में अब भरोसा-विश्वास नहीं है.
दुनिया के मशहूर फ्रैंक फर्ट एयरपोर्ट को विकसित करने का काम इसी कंपनी ने किया था. फिलहाल यह कंपनी दुनिया के तेरह बड़े एयरपोर्टों के विकास में लगी है. इस कंपनी ने तय किया है कि वह ब्राजील, तुर्की, वियतनाम, चीन, पुर्तगाल वगैरह में अब काम करेगी. ध्यान देगी. एक अंतरराष्ट्रीय कंपनी का भारत के कामकाज पर यह निष्कर्ष या टिप्पणी, अंदरूनी हालत का आईना है. प्रधानमंत्री के बयान पर भरोसा न होना, मौजूदा हालात का प्रतिबिंब है.
इस हालात पर देश मे कोई चिंतित है? गर्वनेंस कैसे सुधरे! अर्थव्यवस्था कैसे पटरी पर आये? महंगाई कैसे रुके, रोजगार कैसे बढ़े, ऐसे सार्वजनिक सवाल क्या राष्ट्रीय एजेंडा पर हैं? राष्ट्रीय एजेंडा पर होने का अर्थ है, देशव्यापी बेचैनी, संकल्प और समाधान के लिए जिद को होना. सभी काम पीछे, और यह एजेंडा सर्वोपरि! ऐसी स्थिति देश में क्यों नहीं है? यह सवाल हर भारतीय को खुद से पूछना चाहिए, अगर वह अपना और अपने परिवार की बेहतरी व सुरक्षित भविष्य चाहता है?
दिनांक 10.06.2012
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