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झूठ और कपट में जीता देश!

-हरिवंश- झूठ, हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन गया है. पूरा देश झूठ और कपट में जी रहा है. इस माहौल में कहीं आपने ‘भारत’ की चिंता सुनी है? 1985 के बाद से कुरसी पाने की नंगी लड़ाई हो रही है. कोई सिद्धांत-आदर्श नहीं. महज अपनी, अपने परिवार की और अपने लिए पार्टी की चिंता. अगला प्रधानमंत्री […]

-हरिवंश-
झूठ, हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन गया है. पूरा देश झूठ और कपट में जी रहा है. इस माहौल में कहीं आपने ‘भारत’ की चिंता सुनी है? 1985 के बाद से कुरसी पाने की नंगी लड़ाई हो रही है. कोई सिद्धांत-आदर्श नहीं. महज अपनी, अपने परिवार की और अपने लिए पार्टी की चिंता.
अगला प्रधानमंत्री कौन हो, इस पर बहस रोज हो रही है. इस तकरार में वर्षों पहले बने पार्टियों के गंठबंधन टूटने के कगार पर हैं. पर क्या देश में लोकतंत्र बचाने के लिए कहीं इनके टूटने की चर्चा आपने सुनी है? बौना-बोनसाई नेतृत्व ने देश का भविष्य संकट में डाल दिया है.
जिसके लिए देश पहले है, वही आज कह सकता है कि मौजूदा लोकतंत्र नकली है. इसका जन्म ही झूठ, स्वार्थ और भ्रष्टाचार के गर्भ से हुआ है. इसलिए इस नकली लोकतंत्र के 99 फीसदी नेता (हर दल के) व्यवहार में खुद को देश से बड़ा मानते हैं. बाद में देश या संविधान की चर्चा महज अपनी गद्दी, पद और महत्व बचाने के लिए करते हैं.
मसलन, आज एक विधायक से अपेक्षा होती है कि वह चुनाव में 15 लाख खर्च करे. इसी तरह एक सांसद 25 लाख में चुनाव जीत कर आये. यह चुनाव खर्च की कानूनी सीमा है. लेकिन दिल पर हाथ रख कर पूछें कि क्या कोई इसी खर्च सीमा में चुनावी वैतरणी पार कर रहा है? वह अपार धनराशि खर्च करता है और शपथ पत्र में झूठ बोलता है.
अपवाद हो सकते हैं, पर अपवाद देश की मुख्यधारा नहीं हैं. आमतौर से एक संसद क्षेत्र में छह विधानसभा क्षेत्र होते हैं. एक विधायक से अपेक्षा है कि वह 15 लाख में चुनाव जीते, तो छह विधानसभाओं से चुने जानेवाले एक सांसद से कैसे उम्मीद की जाती है कि वह 25 लाख में जीतेगा? सरकारी हिसाब से एक विधानसभा क्षेत्र में 15 लाख चुनाव खर्च सीमा तय है, तो औसतन छह विधानसभा क्षेत्रों से लड़नेवाले एक सांसद को 15 गुणा 6 = 90 लाख खर्च करने की अनुमति तो होनी ही चाहिए.
इससे चुनाव खर्च में झूठे स्टेटमेंट देने या खर्च के पाखंड से थोड़ी राहत मिलेगी. रांची के मेयर चुनाव के दौरान एक प्रत्याशी के यहां से 21.90 लाख रुपये मिले. एक पूर्व केंद्रीय मंत्री ने तो यह आरोप लगाया कि चर्चा अनुसार वहां दो करोड़ की राशि थी. शेष राशि लोग ले भागे. सच भगवान जानें, पर यह तो बिना कहे प्रमाणित है कि चुनाव पैसे का खेल हो गया है. जब चुनाव सिर्फ पैसे का खेल रह जाये, तो इस प्रक्रिया में अच्छे, चरित्रवान, समझदार और देश के प्रति समर्पित लोग कैसे चुन कर आयेंगे? इसलिए यह लोकतंत्र नकली है. अब यह पैसा कहां से आता है.
मसलन, रांची के मेयर चुनाव का ही गणित समझ लीजिए. एक मेयर का कार्यकाल पांच वर्ष का होता है. पिछले पांच वर्षों में झारखंड सरकार ने रांची नगर निगम को शहरी विकास के विभिन्न मदों में 150 करोड़ रुपये दिये. एक ‘साधु मेयर’ (जो लुटेरा या डकैत नहीं है) के पास स्वाभाविक तौर पर पांच फीसदी कमीशन पहुंचता है. इस तरह, एक मेयर की वैध आय (लोकतंत्र में यह अवैध है, पर नकली लोकतंत्र में वैध) 7.5 करोड़ रुपये है. अगर वह लुटेरा या डकैत हो, तो 10-20 फीसदी लेगा. यही हाल विधायक फंड, सांसद फंड वगैरह का है.
इस तरह हमारे दौर के जो छंटे लोग हैं, वे अपने बाहुबल से, जाति या धर्म के तिकड़म से, इन पदों पर कब्जा करते हैं. चुनावों को और महंगा बनाते हैं, ताकि कोई सही और चरित्रवान प्रत्याशी चुनाव में उतरने का साहस ही न कर सके. इसलिए नकली लोकतंत्र में अब लड़ाई एकतरफा हो गयी है. चुनावों में लड़ाई अब सिद्धांत, आदर्श, विचार के बीच है ही नहीं. यह तो दिखावा है. असल जोर आजमाइश तो अब पैसे के बीच है. लोकतंत्र, धनतंत्र बन गया है. यह पूंजी बल है, जो लोकतंत्र का भविष्य तय कर रहा है.
अपवाद मिल सकते हैं और हैं भी. देश के कुल पांच हजार से अधिक विधायकों-सांसदों के बीच 100-50 लोग ऐसे जीत कर आते होंगे, जो अत्यंत ईमानदार हैं. जो मामूली पैसे के बल अपनी लोकप्रियता, चरित्र, सत्यनिष्ठा के कारण आज भी जीतते हैं. पर यह भी यथार्थ है कि मौजूदा लोकतंत्र में अब ऐसे लोग असरदार नहीं रहे. कह सकते हैं कि 1952-77 के बीच ऐसे लोगों की संख्या या जमात बड़ी थी, जो मामूली पैसे के बल पर जीतते थे. अपने बेदाग चरित्र के कारण. अपने समर्पण और देश के प्रति प्रतिबद्धता के कारण. यह सवाल आज क्यों नहीं उठना चाहिए कि हर दल को भारी चंदा देनेवाले कौन लोग हैं?
यह आयकर की जांच सीमा में क्यों नहीं होना चाहिए? छोटे-छोटे दल 300-400 करोड़ रुपये की आमद दिखाते हैं. कहां से आ रहा है, यह पैसा? बड़े दलों को तो हजारों करोड़ की आय है. बेनामी. अगर लोकतंत्र सात्विक है, पारदर्शी है, गांधी की राजनीति के तहत है, तो उसे पाई-पाई का हिसाब देना चाहिए. एक बार, एक नया पैसे का हिसाब न मिलने पर गांधी जी ने कस्तूरबा बा को सार्वजनिक रूप से कहा. हालांकि बाद में उसका हिसाब मिला. पर क्या यह उसी गांधी के देश का लोकतंत्र है?
इतिहास के एक बड़े जानकार-विद्वान प्रोफेसर मित्र हैं. उनका मानना है कि जिस मुल्क का राजकोष लुटने लगे, वह कमजोर होने लगता है. वह कहते हैं, मौर्यकाल में भारत की ताकत थी, अशोक जैसा चरित्रवान शासक. उनका उत्तराधिकारी कमजोर हुआ, मौर्य सत्ता मरने लगी.
बौद्ध धर्म बहुत ताकतवर बना, उसके अनुयायी, जब तक उसके विचारों के प्रति प्रतिबद्ध रहे, एकजुट रहे, वह आगे बढ़ा. अपने अनुशासन के बल. जिस दिन अपनी सर्वोच्च सत्ता की बात बौद्ध अनुयायियों ने अनसुनी की, उसका पराभाव शुरू हो गया. वामाचार से लेकर तरह-तरह के नये विचार आये. बौद्ध धर्म में अलग-अलग मत बने, मठ बने. फिर हुए, अलग-अलग खंड. गुप्त काल में तो जन्म से ही केंद्रीय सत्ता कमजोर रही.
कौटिल्य (चाणक्य) ने बहुत साफ कहा था कि केंद्रीय ताकत या शक्ति का राज है, राजकोष का मजबूत रहना. हजारों वर्ष पहले कितनी सुंदर अवधारणा चाणक्य ने दी कि असल ताकत, आर्थिक ताकत है. आर्थिक ताकत मजबूत हो, तो मुल्क मजबूत है. इस अवधारणा को आज की दुनिया के हिसाब से समझिए. चीन, दुनिया का नया सुपरपावर है. एक शब्द में इसका राज क्या है, महज आर्थिक मजबूती. चाणक्य तो यहां तक कहे गये कि राजा, राजकोष मजबूत करे, प्रजा को न्यूनतम कष्ट दे. मसलन, सोते समय खटमल काटता है. खून, चूस कर अपना पेट भर लेता है, पर सोनेवाले को एहसास नहीं होता.
चाणक्य ने कल्पना की कि राजा, प्रजा से ऐसे ही टैक्स ले कि प्रजा को पता ही न चले. पर आज प्रजा का क्या हाल है? उसका खून चूस कर उसे अधमरा बना दिया है. महंगाई की मार, भ्रष्टाचार की मार, पर क्या प्रजा को इस मंहगाई से, भ्रष्टाचार से, कुव्यवस्था से मुक्ति दिलाने के लिए इस नकली राजनीति ने 64-65 वर्षों में एक भी ठोस कदम उठाया है? पहले 65 करोड़ का बोफोर्स घोटाला हुआ, तो देशव्यापी चर्चा हुई. राजनीति में यह बड़ा सवाल बना. आज ढाई-तीन लाख करोड़ का 2जी स्कैम या कई लाख करोड़ का कोयला घोटाला या इतना बड़ा कामनवेल्थ खेल घोटाला मुद्दा ही नहीं बनता?
क्या एक भी राजनीतिक दल ऐसा है, जो प्राण लगा दे कि हमारी लड़ाई इस नकली और भ्रष्ट, छद्म लोकतंत्र को बदल देने की है? लोहिया ने कल्पना की थी कि भारत को ऐसा दल चाहिए, जो सौ-दो सौ वर्षों तक सत्ता का सपना न देखे. महज बुनियादी बातों में बदलाव की लड़ाई लड़े. सच के साथ खड़ा रहे. आज राजनीतिक सवालों पर सच बोलने का साहस किसी दल में नहीं है. हर दल काले धन की पूंजी के बल अपनी राजनीति में मशगूल है.
इस देश को भ्रष्ट अफसर, ठेकेदार, अपराधी अलग लूट रहे हैं. एक मित्र ने कहा कि एक मामूली फूड इंस्पेक्टर के पास अगर सौ करोड़ की संपत्ति मिलती है, तो उसके बॉस, भ्रष्ट आइएएस अफसरों की कल्पना करिए? एक तो करेला, ऊपर से नीम चढ़ा! अब मतदाता भी पैसे लेकर वोट डालने लगे है. कमोबेश पूरे देश में. पर कोई दल खुलेआम यह बात कह नहीं सकता. क्योंकि यहां नेता-मतदाता, सभी झूठ-कपट में जी रहे हैं.
स्वर्गीय मधु लिमये, इतिहास के प्रसंगों को कोट कर कहा करते थे, जब-जब केंद्रीय सत्ता कमजोर हुई, भारत टूटा. बिखरा. इंदिरा गांधी के वह कटु आलोचक थे, पर उनके न रहने पर उन्हें सर्वश्रेष्ठ श्रद्धांजलि मधु लिमये ने दी. उसमें उनके खास गुण का उल्लेख किया कि केंद्र को उन्होंने मजबूत बनाया. आज केंद्र सरकार की क्या हालत है? जो राज्य सरकार चाहे, दुलत्ती लगा देती है. अंग्रेजों के आने के पहले भारत क्या था? एक बिखरा नक्शा.
भारत का मौजूदा राजनीतिक नक्शा तो शायद 1812 के आसपास अंग्रेजों ने बनाया. मेरे इतिहास के प्रोफेसर मित्र कहते हैं कि अंग्रेजों ने भारत को लूटा, तो उसको एकसूत्र में बांधा भी. आधुनिक बनाया. रेल, बैंक, शिक्षा व्यवस्था, चीनी मिल, लोहा कंपनी (1907), अभ्रक कंपनी वगैरह दिया. बिहार में तब 30 चीनी मिलें थीं. जहानाबाद में 11 रेशम उद्योग थे.
पर आजाद भारत ने इस इंफ्रास्ट्रक्चर में आगे क्या चमत्कार किया? अंग्रेजों ने नामी विश्वविद्यालय दिये. हमने उन्हें ध्वस्त किया. आजाद भारत में एक विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) बना, जिसका नाम ले सकते हैं. इस तरह संस्थाएं, आधुनिक सोच वगैरह अंग्रेजों ने दिया. भारतीय शासकों ने क्या दिया? दरअसल, भारत को गांधी गढ़ना चाहते थे. उनका नारा था, गांवों को बढ़ाओ. पर आजाद भारत ने शहर आगे बढ़ाओ का नारा स्वीकारा और गांधी का नकली फोटो हर जगह टंगवा दिया. प्रोफेसर मित्र के अनुसार यह लड़ाई पांच फीसदी इंडिया बनाम 95 फीसदी भारत के बीच है.
इस लोकतंत्र के रूलिंग इलिट और इसके समर्थक बमुश्किल पांच फीसदी लोग हैं. गांधी के लोकतंत्र को इन्होंने नकली लोकतंत्र बना कर अपने दुष्चक्र में फंसा लिया है. भारत का राजकोष लगातार लुट रहा है. एक तो शासक ही लूट रहे हैं, दूसरी ओर बाजार की बड़ी ताकतों की मार अलग है. देहात के बाजार में भी चीनी सामान का जोर है. पर देश की राजनीति है कहां? इस देश की असल लड़ाई तो भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुभाषचंद्र बोस वगैरह ने लड़ी. गांधी ने लड़ी. उनके मन में एक मुकम्मल देश का सपना था. आज चाहे राष्ट्रपति हों या प्रधानमंत्री या सांसद, मुख्यमंत्री या मंत्री सब आलीशान महलों में रहते हैं.
इनके तामझाम, सुरक्षा वगैरह पर जो खर्च है, वह तो राजतंत्र में राजाओं पर भी नहीं था. इसलिए यह कहने को लोकतंत्र है. मेरे प्रोफेसर मित्र पूछते हैं कि आज एक मध्यम वर्ग का आदमी दो बच्‍चों को भी पढ़ा सकने की स्थिति में नहीं है. लाख रुपये तो सिर्फ नामांकन फीस है. लगभग 20-25 हजार प्रतिमाह पढ़ाई पर खर्च है. इसके बाद इस व्यवस्था में जो पढ़ाई-लिखाई हो रही है, उसका रिजल्ट क्या है, अनइंप्लायबुल (नौकरी के योग्य नहीं, अक्षम) भीड़ खड़ी कर रहे हैं. आज देश के इंफ्रास्ट्रक्चर किस हाल में हैं? दो दिन पहले खबर आयी है कि गर्मी के दिनों में देश के बड़े हिस्से में गंभीर बिजली संकट रहेगा. इंफ्रास्ट्रक्चर में हम, चीन से सैकड़ों साल पीछे हैं. इन मूल सवालों पर सत्ता के लिए बेचैन राजनीतिक प्राणियों में बेचैनी की झलक भी आपने देखी है?
असल लोकतंत्र होता, तो देश के बुनियादी सवाल आगे होते. नेता या दल पीछे होते. देश में असल लोकतंत्र होता, तो 1942 की तरह, 1977 की तरह, 1989 की तरह देश बनाने का संकल्प पहला राजनीतिक एजेंडा होता. देश बनाने के संकल्प को मूर्त रूप देने का एजेंडा लेकर हर दल या नेता आमने-सामने होते. साफ और सात्विक राजनीति की पूंजी के बल. तब माना जाता कि देश में लोकतंत्र प्राणवान है.
दिनांक – 21.04.13

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