नयी दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने देहरादून में 1996 में कालेज चुनाव लडने को लेकर पैदा हुए विवाद में एक छात्र की हत्या के मामले में सात लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाते हुए कहा है कि पीडित की हत्या करने में ‘‘साझा मंशा’’ को खारिज नहीं किया जा सकता.
न्यायाधीश पी सी घोष और न्यायाधीश आर के अग्रवाल की पीठ ने उत्तराखंड उच्च न्यायालय द्वारा आलोक चांदना की हत्या के लिए धीरज कालरा, रिषी कुमार, सोम प्रकाश, सौरभ , नितिन , भगत सिंह और संजीव कुमार को सुनायी गयी आजीवन कारावास की सजा को बरकरार रखा. आलोक ने कालेज चुनाव में अपनी उम्मीदवारी वापस लेने से इंकार कर दिया था.
पीठ ने कहा, ‘‘ मौजूदा मामले में हमारा यह विचार है कि भले ही यह मान लिया जाए कि हत्या के लिए कोई साझा मकसद नहीं था, लेकिन केवल पीडित तथा अन्य को चुनाव लडने से रोकने की मंशा से ही साझा मंशा को खारिज नहीं किया जा सकता.’’ पीठ ने कहा, ‘‘ याचिकाकर्ताओं की गतिविधियां और पीडित के शव पर पाए गए घाव साझा मंशा की पुष्टि करते हैं.’’ शीर्ष अदालत अप्रैल 2011 में उच्च न्यायालय द्वारा सुनाए गए फैसले के खिलाफ दोषियों द्वारा दायर याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी.
उच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 302 ( हत्या ) और 149 ( गैरकानूनी रुप से एकत्र होना ) के तहत उन्हें सजा सुनायी. पुलिस के अनुसार, 24 सितंबर 1996 को विपिन सिंह नेगी, उसका दोस्त आलोक और अन्य लोग देहरादून के डीएवी कालेज ( पीजी ) के परिसर में खडे थे कि उसी समय हथियारों से लैस आरोपी वहां पहुंचे और विपिन तथा आलोक से कालेज चुनाव से अपने नाम वापस लेने को कहा.
जब उन्होंने ऐसा करने से इंकार किया तो आरोपियों ने उन पर हमला किया जिसमें विपिन और आलोक को गंभीर चोटें आयीं. इसके बाद , कालेज के कुछ छात्र उन्हें अस्पताल ले गए लेकिन अगले ही दिन आलोक की मौत हो गयी जिसके बाद विपिन की शिकायत पर प्राथमिकी दर्ज की गयी. निचली अदालत में सुनवाई के बाद सातों आरोपियों को दोषी पाया गया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी जिसे उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा. दोषियों ने इसके बाद उच्चतम न्यायलय में अपील की थी.