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समलैंगिकों को अपना अधिकार पाने में लग गये पूरे 18 साल, जानिये अहम घटनाक्रम…

नयी दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के एक हिस्से को सर्वसम्मति से अपराध के दायरे से बाहर रखने का एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है. अदालत के इस फैसले के बाद देश के समलैंगिकों को सहमति से यौन संबंध बनाने का अधिकार मिल गया, लेकिन इस अधिकार को […]

नयी दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के एक हिस्से को सर्वसम्मति से अपराध के दायरे से बाहर रखने का एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है. अदालत के इस फैसले के बाद देश के समलैंगिकों को सहमति से यौन संबंध बनाने का अधिकार मिल गया, लेकिन इस अधिकार को पाने में उन्हें पूरे 18 साल तक इंतजार करना पड़ा. जानिये इस मामले को शीर्ष अदालत में पहुंचने के बाद के घटनाक्रमों को…

इसे भी पढ़ें : #Section377 : सुप्रीम कोर्ट ने कहा, सहमति से बने समलैंगिक संबंध अपराध नहीं

अदालत के इस फैसले तक पहुंचने का घटनाक्रम इस प्रकार है…

2001 : समलैंगिक अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली स्वंय सेवी संस्था नाज फाउंडेशन ने समलैंगिकों के बीच सहमति से यौन संबंध को कानून के दायरे में लाने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका(पीआईएल) दाखिल की.

सितंबर 2004 : हाईकोर्ट ने पीआईएल खारिज की, समलैंगिक अधिकार कार्यकर्ताओं ने पुनरीक्षण याचिका दाखिल की.

तीन नवंबर 2004 : हाईकोर्ट ने पुनरीक्षण याचिका भी खारिज की.

दिसंबर 2004 : समलैंगिक अधिकार कार्यकर्ता हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया.

तीन अप्रैल 2006 : सुप्रीम कोर्ट ने मामला वापस हाईकोर्ट के पास भेजा और गुणदोष के आधार पर मामले पर पुनर्विचार करने को कहा.

चार अक्टूबर 2006 : हाईकोर्ट ने भाजपा नेता बीपी सिंघल की याचिका मंजूर की.

18 सितंबर 2008 : समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर रखने पर गृह तथा स्वास्थ्य मंत्रालय के परस्पर विपरीत रुख के बाद केंद्र ने किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए और वक्त मांगा. हाईकोर्ट ने याचिका नामंजूर की और मामले में अंतिम बहस शुरू.

सात नवंबर 2008 : हाईकोर्ट ने समलैंगिक अधिकार कार्यकर्ताओं की याचिका पर फैसला सुरक्षित रखा.

दो जुलाई 2008 : हाईकोर्ट ने समलैंगिक अधिकार कार्यकर्ताओं की याचिका मंजूर की और व्यस्कों के बीच सहमति से यौन संबंधों को कानूनी मान्यता दी.

नौ जुलाई 2008 : दिल्ली के ज्योतिषी ने हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. फैसले को चुनौती देने वाली अनेक याचिकाएं दाखिल की गयीं.

15 फरवरी 2012 : सुप्रीम कोर्ट ने मामले की दिन प्रतिदिन के हिसाब से सुनवाई शुरू की.

11 दिसंबर 2013 : सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर करने के 2009 के दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को रद्द किया.

20 दिसंबर 2013 : केंद्र ने फैसले की दोबारा जांच की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट में पुनरीक्षण याचिका दाखिल की.

28 जनवरी, 2014 : सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले की समीक्षा से इनकार किया. केंद्र और कार्यकर्ताओं की याचिका खारिज की.

तीन अप्रैल 2014 : सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध ठहराने के अपने फैसले के खिलाफ समलैंगिक अधिकार कार्यकर्ताओं की ओर से दाखिल सुधारात्मक याचिकाओं की खुली अदालत में सुनवाई के लिए सहमति जतायी.

दो फरवरी 2016 : सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता पर सुधारात्मक याचिकाओं को पांच न्यायाधीशों वाली पीठ के पास भेजा.

29 जून 2016 : सुप्रीम कोर्ट ने नृत्यांगना एनएस जौहर, शेफ रितु डालमिया और होटल व्यावसायी अमन नाथ की ओर से धारा 377 को रद्द करने की मांग वाली याचिका को उसी पीठ के पास भेजा, जिसके पास मामला पहले से लंबित था.

24 अगस्त 2017 : सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को संविधान के तहत मौलिक अधिकार घोषित किया.

आठ जनवरी 2018 : सुप्रीम कोर्ट 2013 के अपने फैसले पर दोबारा विचार करने पर सहमत हुई साथ ही धारा 377 को चुनौती देने वाली याचिकाओं को वृहद पीठ के पास भेजा.

10 जुलाई 2018 : पांच जजों वाली संविधान पीठ ने अनेक याचिकाओं पर सुनवाई शुरू की.

11 जुलाई 2018 : केंद्र ने धारा 377 की वैधता पर कोई भी निर्णय सुप्रीम कोर्ट के विवेक पर छोड़ा.

17 जुलाई 2018 : सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित किया.

06 सितंबर 2018 : संविधान पीठ ने धारा 377 के एक वर्ग को अपराध के दायरे से बाहर रखने का फैसला सुनाया.

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