त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार देश के उन चंद नेताओं में से हैं जिनकी पहचान उनकी सादगी की वजह से है. सीएम होते हुए भी वे एक आम नागरिक की तरह सादा जीवन जीते हैं. इसके साथ-साथ उन्होंने त्रिपुरा राज्य को प्रगति के पथ पर ले जाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. आज त्रिपुरा में शत-प्रतिशत साक्षरता है और यह राज्य हिंसा के प्रभाव से भी मुक्त है.
धीरेश सैनी
जब मैं माणिक सरकार(बांग्ला के उच्चरण के अनुसार मानिक सरकार) की पत्नी पांचाली भट्टाचार्य से मिला तो मुङो हैरानी हुई कि इन दिनों एक वॉशिंग मशीन खरीद लेने भर से वे अपराध बोध का शिकार हुई जा रही हैं. मैंने एक पुरानी खबर के आधार पर उनसे जिक्र किया था कि मुख्यमंत्री अपने कपड़े खुद धोते हैं तो उन्होंने कहा कि जूते खुद पॉलिश करते हैं, पहले कपड़े भी नियमित रूप से खुद ही धोते थे पर अब नहीं. वे 65 साल के हो गए हैं, उनकी एंजियोप्लास्टी हो चुकी है, बायपास सर्जरी भी हुई, ऊपर से भागदौड़, मीटिंगों, फाइलों आदि से भरी बेहद व्यस्त दिनचर्या. पांचाली ने बताया कि दिल्ली में रह रहे बड़े भाई का अचानक देहांत होने पर मैं दिल्ली गई थी तो भाभी ने जोर देकर वादा ले लिया कि अब वॉशिंग मशीन खरीद लो. लौटकर मैंने माणिक से कहा तो वे राजी नहीं हुए. मैंने समझाया कि हम दोनों के लिए ही अब खुद अपने कपड़े धोना स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक नहीं है तो उन्होंने पैसे तय कर किसी आदमी से इस काम में मदद लेने का सुझाव दिया. कई दिनों की बहस के बाद उन्होंने कहा कि तुम तय ही कर चुकी हो तो सलाह क्यों लेती हो.
सीएम आवास के कैम्प आफिस के एक अफसर से मैंने हैरानी जताई कि क्या मुख्यमंत्री के कपड़े धोने के लिए सरकारी धोबी की व्यवस्था नहीं है तो उसने कहा कि यह इस दंपती की नैतिकता से जुड़ा मामला है. माणिक सरकार ने मुख्यमंत्री आवास में आते ही अपनी पत्नी को सुझाव दिया था कि रहने के कमरे का किराया, टेलिफोन, बिजली आदि पर हमारा कोई पैसा खर्च नहीं होगा तो तुम्हें अपने वेतन से योगदान कर इस सरकारी खर्च को कुछ कम करना चाहिए. और रसोई गैस सिलेंडर, लॉन्ड्री (सरकारी आवास के परदे व दूसरे कपड़ों की धुलाई) व दूसरे कई खर्च वे अपने वेतन से वहन करने लगीं, अब वे यह खर्च अपनी पेंशन से उठाती हैं.
मैंने बताया कि एक मुख्यमंत्री की पत्नी का रिक्शा से या पैदल बाजार निकल जाना, खुद सब्जी वगैरह खरीदना जैसी बातें हिंदी अखबारों में भी छपी हैं. यहां के लोगों को तो आप दोनों की जीवन-शैली अब इतना हैरान नहीं करती पर बाहर के लोगों में ऐसी खबरें हैरानी पैदा करती हैं. उन्होंने कहा कि साधारण जीवन और ईमानदारी में आनंद है. मैंने तो हमेशा यही सोचा कि माणिक मुख्यमंत्री नहीं रहेंगे तो ये स्टेटस-प्रोटोकोल आदि छूटेंगे ही, तो इन्हें पकड़ना ही क्यों. मैं नहीं चाहती थी कि मेरी वजह से मेरे पति पर कोई उंगली उठे. मेरा दफ्तर पास ही था सो पैदल जाती रही, कभी जल्दी हुई तो रिक्शा ले लिया. सेक्रे ट्री पद पर पहुंचने पर जो सरकारी गाड़ी मिली, उसे दूर-दराज के इलाकों के सरकारी दौरों में तो इस्तेमाल किया पर दफ्तर जाने-आने के लिए नहीं. सरकारी नौकरी से रिटायरमेंट के बाद अब सीआईटीयू में महिलाओं के बीच काम करते हुए बाहर रु कना पड़ता है. आशा वर्कर्स के साथ सोती हूं तो उन्हें यह देखकर अच्छा लगता है कि सीएम की पत्नी उनकी तरह ही रहती है. एक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के लिए नैतिकता बड़ा मूल्य है और एक नेता के लिए तो और भी ज्यादा.
माणिक सरकार पिछले साल विधानसभा चुनाव में अपने नामांकन के बाद अचानक देश भर के अखबारों में चर्चा में आ गए थे. जो शख्स 1998 से लगातार मुख्यमंत्री हो, उसकी निजी चल-अचल संपत्ति ढाई लाख रु पये से भी कम हो, यह बात मीडिया के लोगों के लिए भी हैरत की बात थी. करीब ढाई लाख रु पये की इस संपत्ति में उनकी मां अंजलि सरकार से उन्हें मिले एक टिन शेड के घर की करीब 2 लाख 22 हजार रु पये कीमत भी शामिल है. हालांकि, यह मकान भी वे परिवार के दूसरे सदस्यों के लिए ही छोड़ चुके हैं. इस दंपती के पास न अपना घर है, न कार. किसी मुख्यमंत्री का वेतन महज 9200 रु पये मासिक (शायद देश में किसी मुख्यमंत्री का सबसे कम वेतन) हो, जिसे वह अपनी पार्टी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (माकपा) को दे देता हो और पार्टी उसे पांच हजार रु पये महीना गुजारा भत्ता देती हो, उसका अपना बैंक बेलेंस 10 हजार रुपये से भी कम हो और उसे लगता हो कि उसकी पत्नी की पेंशन और फंड आदि की जमाराशि उनके भविष्य के लिए पर्याप्त से अधिक ही होगी, तो त्रिपुरा से बाहर की जनता का चकित होना स्वाभाविक ही है.
माणिक सरकार से उनकी साधारण जीवन-शैली और सबसे गरीब मुख्यमंत्री के खिताब के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि मेरी पार्टी और विचारधारा मुङो यही सिखाती है. मैं ऐसा नहीं करु ंगा तो मेरे भीतर क्षय शुरू होगा और यह पतन की शुरु आत होगी.
माकपा के नृपेन चक्र वर्ती और दशरथ देब जैसे दिग्गज नेताओं के मुख्यमंत्री रहने के बाद 1998 में माणिक सरकार को यह जिम्मेदारी दी गई थी तो विश्लेषकों ने इसे एक अशांत राज्य का शासन चलाने के लिहाज से भूल करार दिया था. 1967 में महज 17-18 बरस की उम्र में छात्र माणिक प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार के खिलाफ चले खाद्य आंदोलन में बढ़-चढ़कर शामिल रहे थे. उस चर्चित जनांदोलन में प्रभावी भूमिका उन्हें माकपा के नजदीक ले आई और वे 1968 में विधिवत रूप से माकपा में शामिल हो गए. वे बतौर एसएफआई प्रतिनिधि एमबीबी कॉलेज स्टूडेंट यूनियन के महासचिव चुने गए और कुछ समय बाद एसएफआई के राज्य सचिव और फिर राष्ट्रीय उपाध्यक्ष चुने गए. 1972 में वे माकपा की राज्य इकाई के सदस्य चुने गए और 1978 में प्रदेश की पहली माकपा सरकार अस्तित्व में आई तो उन्हें पार्टी के राज्य सचिव मंडल में शामिल कर लिया गया. 1980 के उपचुनाव में वे अगरतला (शहरी) सीट से विधानसभा पहुंचे और उन्हें वाम मोर्चा चीफ व्हिप की जिम्मेदारी सौंपी गई. 1985 में उन्हें माकपा की केंद्रीय कमेटी का सदस्य चुना गया. 1993 में त्रिपुरा में तीसरी बार वाम मोर्चा की सरकार बनी तो उन्हें माकपा के राज्य सचिव और वाम मोर्चे के राज्य संयोजक की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां दी गईं. 1998 में पार्टी ने उन्हें पॉलित ब्यूरो में जगह दी और त्रिपुरा विधानसभा में फिर से बहुमत में आए वाम मोर्चा ने विधायक दल का नेता भी चुन लिया. कहने का आशय यह कि यदि अशांत राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी एक मुश्किल चुनौती थी तो उनके पास जनांदोलनों और पार्टी संगठन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का अनुभव भी था.
जॉर्ज सी पोडीपारा (त्रिपुरा में उस समय सीआरपीएफ के आईजी) लिखते हैं कि आज के त्रिपुरा को आकर देखने वाला अनुमान नहीं लगा पाएगा कि उस समय कैसी विकट परिस्थितियां थीं जिन पर माणिक सरकार ने कड़े समर्पण, जनता के प्रति प्रतिबद्धता, विश्लेषण करने, दूसरों को सुनने, अपनी गलतियों से भी सीखने और फैसला लेने की अद्भुत क्षमता, धैर्य और दृढ़ निश्चय से नियंत्रण पाया था. जॉर्ज के मुताबिक, एक सच्चे राजनीतिज्ञ की तरह उन्होंने राज्य के लिए बाधा बनी समस्याओं को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल किया. उस समय राज्य में आदिवासी और गैर आदिवासी समुदायों के बीच आपसी अविश्वास और वैमनस्य सबसे बड़ी चुनौती थे. निदरेषों की हत्या, अपहरण और संपत्ति की लूटपाट 1979 तक भी एक आम रु टीन जैसी बातें थीं. माणिक सरकार ने महसूस किया कि जब तक यह दुश्मनी बरकरार रहेगी और जनता के बड़े हिस्से एक दूसरे को बर्बाद करने पर तुले रहेंगे, राज्य गरीब और अविकसित बना रहेगा. उन्होंने अपना ध्यान इस समस्या पर केंद्रित किया और अपनी सरकार के सारे संसाधन इससे लड़ने के लिए खोल दिए.
माणिक सरकार ने एक तरफ टीयूजेएस, टीएनवी और आमरा बंगाली जैसे आतंकी व चरमपंथी संगठनों के खिलाफ सख्ती जारी रखी, दूसरी तरफ आदिवासी इलाकों में विकास को प्राथमिकता में शामिल किया. माणिक सरकार ने त्रिपुरा में आदिवासियों के बीच लोकतांत्रिक प्रक्रि या तेज कर निर्णय लेने में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करने पर बल दिया. उनकी अगुआई वाली लेफ्ट सरकार ने सुदूर इलाकों तक बिजली-पानी, स्कूल, अस्पताल जैसी मूलभूत सुविधाएं सुनिश्चित कीं और कांग्रेस के शासनकाल में आदिवासियों की जिन जमीनों का बड़े पैमाने पर अवैध रूप से मालिकाना हक ट्रांसफर कर दिया गया था, उन्हें यथासंभव आदिवासयों को लौटाने की पूर्व की लेफ्ट सरकारों में की गई पहल को आगे बढ़ाया. यहां जंगल की करीब एक लाख 24 हेक्टेयर भूमि आदिवासियों को पट्टे के रूप में दी गई, जिसके संरक्षण के लिए उन्हें आर्थिक मदद दी जा रही है.
उस बेहद मुश्किल दौर में उन्होंने यह एहतियात रखी कि शांति स्थापित करने के प्रयास निर्दोष आदिवासयों की फर्जी मुठभेड़ में हत्याओं का सिलसिला न साबित हों. वे सेना और केंद्रीय सुरक्षा बलों के अधिकारियों से नियमित संपर्क में रहे और लगातार बैठकों के जरिए यह सुनिश्चित करते रहे कि आम आदिवासियों को दमन का शिकार न होना पड़े. इसके लिए माकपा नेताओं-कार्यकर्ताओं को इस मुहिम में आगे रहकर शहादतें भी देनी पड़ीं.