11.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

राजनीति में विचारों की जगह

प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष महबूब अली कैसर ने पाला बदल कर लोक जनशक्ति पार्टी में शामिल होते समय कोई पाखंड नहीं किया. साफ-साफ कहा कि कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया, तो वे नई पार्टी में आ गए. रामकृपाल यादव फिलहाल पाटलिपुत्र लोकसभा क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार हैं. वे राष्ट्रीय जनता […]

प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष महबूब अली कैसर ने पाला बदल कर लोक जनशक्ति पार्टी में शामिल होते समय कोई पाखंड नहीं किया. साफ-साफ कहा कि कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया, तो वे नई पार्टी में आ गए. रामकृपाल यादव फिलहाल पाटलिपुत्र लोकसभा क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार हैं. वे राष्ट्रीय जनता दल छोड़ कर भाजपा में इसलिए आए क्योंकि लालू प्रसाद यादव ने उनका टिकट काट कर अपनी बेटी मीसा भारती को दे दिया.

दल-बदल के तुरंत बाद राम कृपाल यादव को एक टीवी इंटरव्यू के दौरान याद दिलाया गया कि अतीत में उन्होंने नरेन्द्र मोदी के खिलाफ कितनी कठोर भाषा बोली थी. इस पर यादव का जवाब था कि वह आरजेडी का विचार है, जिसे उन्होंने व्यक्त किया था. मतलब यह कि राम कृपाल यादव का अपना कोई विचार नहीं है! वे जब जहां होंगे, उस दल की राय को तोते की तरह दोहरा देंगे!

राम कृपाल यादव या महबूब कैसर जैसे नेताओं की आज कोई कमी नहीं है. लेकिन इसका बड़ा कारण यही है कि किसी भी पार्टी को ऐसे अवसरवादी नेताओं से गुरेज नहीं है. ऐसे नेताओं का हर दल में स्वागत है, बशर्ते जातीय या सांप्रदायिक समीकरण, शोहरत अथवा अपनी आर्थिक हैसियत से वे जीतने की क्षमता रखते हों. फिलहाल, इस प्रवृत्ति का सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को मिलता दिखता है. पिछले वर्ष हुए चार विधानसभाओं के चुनाव नतीजों, मीडिया और जनमत सर्वेक्षणों ने यह धारणा बना दी कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की अब सिर्फ रस्म-अदायगी होनी है. तो सत्ता के साथ रहने के इच्छुक नेता और दल भाजपा के खेमे में जुटने लगे. जहां तक भाजपा विरोधी खेमे की बात है, तो यह याद कर लेने की जरूरत है कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय राजनीतिक दलों या नेताओं के लिए अनुलंघनीय विभाजक रेखा है, यह भ्रम 1998-2004 के भाजपा नेतृत्व वाले शासन के दौर में ही मिट गया था. उस अवधि में यह स्पष्ट हुआ कि हिंदू राष्ट्रवाद समर्थक ताकतों के खिलाफ गोलबंदी में सिर्फ दो ताकतों पर भरोसा किया जा सकता है. उनमें भी केवल कम्युनिस्ट पार्टियां ऐसी हैं; जिनके पास मजहबी सियासत की विचारधारात्मक आलोचना मौजूद है और जिनकी सियासी रणनीति तर्क से प्रेरित है.

दूसरी ताकत कांग्रेस है, जो हालांकि अतीत में सर्व समावेशी, न्याय आधारित भारतीय राष्ट्रवाद की प्रमुख वाहक शक्ति रही लेकिन वर्तमान में महज अपने राजनीतिक हितों के कारण वह बहुसंख्यक वर्चस्व की राजनीति के विरु द्ध है. बहरहाल, भाजपाई सियासत और कांग्रेस के हित इस हद तक परस्पर विरोधी हैं कि कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता की झंडाबरदार बनी रहेगी, इस पर यकीन किया जा सकता है. बाकी दल, जिनके हित धर्मनिरपेक्षता के नारे से अभिन्न रूप से जुड़े हैं (मसलन सपा और आरजेडी) भाजपा विरोधी खेमे में रहेंगे, यह जरूर माना जा सकता है.

ऐसी धुंधली स्थिति और दलों/नेताओं के ढुलमुल रु ख के बावजूद भारतीय समाज की संरचना ऐसी है कि धर्मनिरपेक्षता बनाम बहुसंख्यक वर्चस्व (अथवा हर किस्म की सांप्रदायिकता) के बीच विभाजन रेखा अभी लंबे समय तक मुख्य राजनीतिक विभाजन रेखा बनी रहेगी. इसलिए धर्मनिरपेक्षता भले अधिकतर दलों/नेताओं के लिए आस्था का मूल्य न बने मगर इस मुद्दे पर राजनीतिक ध्रुवीकरण होता रहेगा. अत: व्यापक संदर्भ में देखें तो कथित धर्मनिरपेक्ष खेमे से दलों-नेताओं के भाजपा के पाले में जाना महत्वहीन घटना है.

इससे भाजपा की ताकत बढ़ सकती है, लेकिन इससे धर्मनिरपेक्ष जनमत एवं ऐसी आस्था वाले जन समुदायों के बीच उसकी स्वीकृति नहीं बन सकती. तब तक, जब तक कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राजनीतिक मोर्चे के रूप में काम करती रहेगी. हाल के एक महत्वपूर्ण सर्वेक्षण से यह सामने आया (जिससे पहले के कई सर्वेक्षण निष्कषों और आम अनुभव की पुष्टि ही हुई) कि अधिकांश भारतीय मतदाताओं का मतदान संबंधी निर्णय उम्मीदवार के गुण-दोष के आधार पर नहीं, बल्किदल और जाति से प्रेरित होता है. मतलब यह कि प्रत्याशी दल-बदलू, दागी या भ्रष्ट हो, तब भी उसकी चुनावी संभावनाओं पर अधिक अंतर नहीं पड़ता बशर्ते उसने सही जातीय समीकरण बिठाया और हवा के मुताबिक दल का चयन किया.

गहराई में जाकर देखें तो दल-बदल या सिद्धांतहीन राजनीति की असली जड़ें इस प्रवृत्ति में छिपी दिखेंगी. मगर इसी रु झान का दूसरा पक्ष यह है कि मतदाताओं के लिए दलों का सामाजिक आधार और उनका विचारधारात्मक झुकाव महत्त्वपूर्ण है.

इस आम चुनाव में उससे कहीं अधिक बड़ा सवाल दावं पर है. भाजपा इस बार संघ के एजेंडे के साथ सफल होने की जैसी स्थिति में है, वैसा पहले कभी नहीं हुआ. भारतीय जनसंघ के दिनों में उसकी ताकत इतनी कम थी कि उसकी उद्घोषणाओं का ज्यादा मतलब नहीं था. 1991 या 1996 में भारतीय राज्य-व्यवस्था को पुनर्परिभाषित करने के उद्घोष के साथ वह मैदान में जरूर उतरी थी, लेकिन तब वह राजनीतिक फलक पर अलग-थलग पड़ी हुई थी. तब सफल होने के लिए उसे अपने ‘मुख’ और ‘मुखौटे’ में फर्क करना पड़ा. मगर इस बार हालात अलग हैं. उसने नरेन्द्र मोदी को अपना नेता चुना है. अब मोदी ही उसके मुख और मुखौटा, दोनों हैं.

मोदी ने संघ प्रचारक से लेकर अब तक का सफर तय करते हुए संघ के वैचारिक मॉडल को जितने खुलेआम ढंग से आगे बढ़ाया, उतना शायद ही किसी और ने किया हो. इसलिए यह अकारण नहीं है कि मोदी के कारण भाजपा एवं संघ के समर्थक-समूह उत्साहित नजर आते हैं. संघ नेताओं ने कुछ महीने पहले कहा था कि 2014 का आम चुनाव उनके लिए ‘मेक या ब्रेक’ इलेक्शन है. जब भारतीय राष्ट्रवाद को चुनौती देने वाली विचारधारा उतनी कृत-संकल्प नजर आती हो तो यह स्वयंसिद्ध है कि इस राष्ट्रवाद के समर्थकों के सामने कैसी और कितनी बड़ी चुनौती है.

सत्येंद्र रंजन

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और देश के कई अखबारों और पोर्टलों के लिए लिखते हैं.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें