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नये हुक्मरानों का विकास माडल

-हरिवंश- आज जरूरत है पुन: एक ऐसे आंदोलन की, जो पश्चिम की बुराइयों के खिलाफ लड़ सके. आतंक व संहारक अस्त्रों की दुनिया में एक नया विकल्प दे सके. यह काम सरकार या सरकारी एजेंसियों से कतई नहीं हो सकता, इसके लिए जीवटवाले नेताओं की जरूरत है. मध्यप्रदेश में एक दवा का कारखाना है. सरकार […]

-हरिवंश-

आज जरूरत है पुन: एक ऐसे आंदोलन की, जो पश्चिम की बुराइयों के खिलाफ लड़ सके. आतंक व संहारक अस्त्रों की दुनिया में एक नया विकल्प दे सके. यह काम सरकार या सरकारी एजेंसियों से कतई नहीं हो सकता, इसके लिए जीवटवाले नेताओं की जरूरत है.
मध्यप्रदेश में एक दवा का कारखाना है. सरकार इस पर दो बार प्रतिबंध लगा चुकी है. कारण यहां से ग्लूकोज के नाम पर विषैला पदार्थ बेचा गया था. मध्यप्रदेश के सरकारी अस्पतालों में इसकी आपूर्ति की गयी थी. दरअसल, पूर्व में मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य विभाग ने आदेश जारी किया था कि सिर्फ इसी फर्म से सरकारी अस्पतालों में ग्लूकोज की आपूर्ति की जायेगी.
कानूनन यह ठेका, विज्ञापन निकालने व टेंडर आयोजित करने के बाद ही किसी को दिया जा सकता है. इस कारखाने के ग्लूकोज से मध्यप्रदेश में 48 रोगी मरे थे. इसके मालिकों में मध्यप्रदेश कांग्रेस (इं) के एक महत्वपूर्ण पदाधिकारी हैं. बाद में उन्होंने फर्म का नाम बदल लिया. मगर ग्लूकोज का कारखाना वही था. पुन: उन्होंने मध्यप्रदेश के सरकारी अस्पतालों में ग्लूकोज की आपूर्ति आरंभ की. फिर वही हाल. कुछ और लोग मरे. विधानसभा में काफी हंगामा हुआ, तो मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा ने फिर इसे ‘ब्लेक लिस्ट’ कर दिया.

अब इस कारखाने के मालिकों ने अपना कारोबार मध्यप्रदेश से हटा कर देश के दूसरे राज्यों में आरंभ कर दिया है. दो बार ब्लैक लिस्ट होने के बावजूद अब इस कारखाने को पंजाब में ग्लूकोज भेजने का ठेका मिल गया है. यही नहीं, इस कारखाने के कांग्रेसी मालिक 1962 में डकैती के आरोप में जेल में भी रह चुके हैं. यानी डकैती के आरोप में बंदी एक व्यक्ति कांग्रेस (इं) में महत्वपूर्ण ओहदा पा सकता है. एक-दो नहीं, सैकड़ों लोगों को ग्लूकोज के नाम पर जहर दे कर मार सकता है. फिर दोबारा लाइसेंस ले कर कुछ और हत्याएं कर सकता है. लेकिन इससे क्या?

मध्यप्रदेश में उसका लाइसेंस दोबारा जब्त हुआ, तो देश के दूसरे राज्यों में उसे हत्या करने का खुला ठेका मिल गया है. यह ठेका लोगों की खुलेआम हत्या करने का ठेका है. हत्यारे सत्ता-दीर्घा के विशिष्ट व्यक्ति हैं. इस कारण उन्हें हत्या करने की आजादी (लाइसेंस) सरकार ने दे दी है.


ऐसी घटनाएं महज मध्यप्रदेश तक ही सीमित नहीं हैं. उत्तरप्रदेश, बिहार व देश के अन्य भागों में आजकल ऐसे मंत्रियों, सांसदों व विधायकों की बहुतायत है, जिनका व्यवसाय ही अपराध है. ऐसे अनेक मंत्री मिलेंगे, जिन्होंने कानूनन संगीन जुर्म किये हैं, फिर भी वे सत्ता में है. कारण, लोग अब अपराध और गैरकानूनी कार्यों को विकास के रास्ते का अनिवार्य पड़ाव मान चुके हैं. अत: इन पर चौंकते नहीं. इसी मानसिकता के कारण अपराधियों को हमने समाज में आदर्श मान लिया है. सामाजिक स्वीकृति और सम्मान दिया है. नुक्कड़, मुहल्ला, कॉलेज से ले कर बड़े शहरों में ‘दादाओं’ का राज है. बड़े-बड़े स्मगलरों, काला बाजारियों का संरक्षण पाने के लिए हमारे नेता तरसते हैं. बदले में सत्ताधीशों से इन्हें कानूनी संरक्षण मिलता है.

यह किसी व्यक्ति विशेष की बात नहीं, हमने विकास का जो मॉडल अपनाया है. यह उसकी परिणति है. नये हुक्मरान विकास के इसी रास्ते पर तेजी से चलना चाहते हैं, लेकिन इसका हश्र क्या होगा? इसका आकलन कठिन नहीं है.
औद्योगिक इकाइयों में कच्चे माल की खपत बढ़ गयी है. इससे गांवों का माल निकल कर शहरों में आ रहा है. बदले में उन्हें पर्याप्त मुआवजा नहीं मिलता. इस तरह गांवों का शोषण बढ़ रहा है. कच्चे माल का अधिकाधिक उपयोग व पश्चिमी दुनिया के आर्थिक विकास के मॉडल के अनुकरण से पर्यावरण की नयी समस्या भी उठ खड़ी हुई है.

हमारे देश के जिस वर्ग ने पश्चिम के देशों को अपना आदर्श माना, वह वर्ग आज सबसे अधिक फायदे में है. इस देश के सत्ताधीशों, नौकरशाहों व बिचौलियों की संपत्ति में बेशुमार वृद्धि हुई है. उनका रहन-सहन, जीवन पद्धति देख कर विश्वास नहीं होता कि भारत तीसरी दुनिया के देशों में से एक है. लेकिन इस व्यवस्था में सभी को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार नहीं है. स्पर्द्धा, शोषण, भौतिकवादी सोच-कार्य, विस्तावादी नीति, संवेदनहीनता तथा महज लाभ अर्जन, हमारी विकास नीति के महत्वपूर्ण भार हैं. इस विकास मॉडल में कमजोर तबके का शोषण अंतर्निहित है. इससे भी बड़ी बात है कि यह व्यवस्था लोगों का मन मारती है. उनके अंदर आगे बढ़ने की इच्छाशक्ति खत्म करती है.

उन्हें मानसिक रूप से गरीब बनाती है. इस व्यवस्था से जो नयी पीढ़ी पनपती है, वह आत्म-केंद्रित होती है. उसकी अलग पहचान नहीं हो सकती. इस वर्ग के सामने महज मकसद होता है, किसी तरह भौतिक संविधाएं जुटाना. कम समय में जल्द से जल्द सफलता की सीढ़ियां चढ़ना, इस प्रक्रिया में ग्लूकोज के नाम पर जहर देने से भी न कोई हिचकता है, न इसके विरोध में आवाज उठती है, न सत्ताधीश इसे कोई ‘मुद्दा’ मानते हैं.


कभी समाजवादियों और साम्यवादियों की मांगे थीं- बैंकों, बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण. आज देश में अधिकाधिक इकाइयां राष्ट्रीयकृत हैं, पर उनका अंदरूनी हाल बेहाल है. आज जरूरत है, पुन: एक ऐसे आंदोलन की, जो पश्चिम की बुराइयों के खिलाफ लड़ सके. आतंक व संहारक अस्त्रों की दुनिया में एक नया विकल्प दे सके. यह काम सरकार या सरकारी एजेंसियों से कतई नहीं हो सकता. इसके लिए जीवटवाले नेताओं की जरूरत है. चंद्रशेखर के ‘भारत यात्रा केंद्र’ या सिताबदियारा में जेपी स्मारक या आचार्य नरेंद्र देव स्मारक का निर्माण तभी सार्थक होगा, जब यहां से कार्यकर्त्ताओं को एक नयी फौज निकले. आज के राजनीतिक कार्यकर्ताओं की भांति उनका उद्देश्य महज सत्ता-प्राप्ति, सुख-सुविधाएं हासिल करना ही न हो, तभी जेपी व आचार्य नरेंद्र देव का सपना भी साकार होगा और चंद्रशेखर की भारत यात्रा के मकसद भी अधूरे नहीं रहेंगे.

चंद्रशेखर इस देश में गांधी-जयप्रकाश के रास्ते चल कर एक नया आंदोलन खड़ा कर सकते हैं. पर इसकी पहली शर्त है, सत्ता की मौजूदा राजनीति को नकारना. सत्ता की राजनीति से चंद्रशेखर उतने कामयाब नहीं होंगे, जितना सत्ता के बाहर संघर्ष की राजनीति से.

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