-हरिवंश-
बहस कलकत्ता पर हो रही है, लेकिन मर दरअसल बिहार रहा है. प्रकृति ने जिसकी जमीन में बेहिसाब रत्न भरे हैं, इतिहास ने जिसे गौरवपूर्ण ऊंचाइयां दी हैं तथा स्वतंत्रता संग्राम से हाल के जे.पी. आंदोलन तक जिस राज्य ने मानवीय गरिमा की लड़ाइयां लड़ीं, उसी बिहार का हाल अब यह है कि वह एक जंगल बन गया है, जहां भेड़िये राज करते हैं. बिहार आज चरम भ्रष्टाचार, व्यापक लूट, संपूर्ण अराजकता और पतित राजनीति का एक और नाम है.
शायद ही कोई और ऐसा इलाका हो, जहां मानवीय मूल्य इस कदर हास्यास्पद हो चुके हों, जाति, गुंडागर्दी, भयावह विषमता और संगठित आतंकवाद – किसी भी विकृति का नाम लीजिए, वह बिहार में भस्समासुर की तरह मौजूद है. केंद्र भी इस अभिशप्त राज्य के साथ अजीबोगरीब खेल खेलता रहा है, जिसके कारण यहां किसी लोकप्रिय नेता को जम कर काम नहीं करने दिया गया और विडंबना यह है कि गैरकांग्रेसी शासन भी इसका अपवाद नहीं बन सका.
उदयन शर्मा द्वारा इस बदकिस्मत राज्य के पतन के विभिन्न पहलुओं की पूरी छानबीन. इसके लिए राजनेता कितने जिम्मेदार हैं और इस सामग्रिक ह्रास में सरकार की भूमिका क्या रही है? इस संदर्भ में बिहार के मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे और विपक्ष के नेता कर्पूरी ठाकुर से खुली बातचीत. हरिवंश बता रहे हैं कि देश के दूसरे हिस्सों द्वारा रत्नगर्भा बिहार का किस तरह सुनियोजित शोषण होता रहा है था. विकास कुमार झा उस क्रूर अराजकता का खाका खींच रहे हैं, जो बिहार की अपराधी राजनीति की सौगात है.
मासूम बच्चों के सिर कलम कर उनका सौदा किस राज्य में होता है? किस राज्य की राजधानी से शिशु-मुंडों की करीब 200 पेटियां हर महीने कलकत्ता के लिए बुक होती हैं? किस राज्य के विभिन्न इलाकों से प्रतिदिन हत्याओं का औसत 11-12 है? वह कौन-सा राज्य है, जहां डकैतियां आम बात है? किस राज्य में हरिजनों, आदिवासियों, पिछड़ों और भूमिहीनों पर सर्वाधिक अत्याचार होते हैं? रेलयात्री किस राज्य से गुजरते समय खिड़की दरवाजे भय से बंद कर लेते हैं? इन सबका जवाब एक है – बिहार. यह राज्य बहुत तेजी से अराजकता के शिकंजे में कसता जा रहा है. लगता है, इस स्थिति से उबरना बिहार के लिए अब मुश्किल होगा. बिहार पर एक सरसरी निगाह डालते ही एहसास होता है कि इस राज्य की व्यवस्था और जनता आत्मघात की तरफ दौड़ रही है. लगता है कि इस राज्य की आत्मा मर चुकी है. जीवन का यहां कोई अर्थ नहीं है. कोई भी, किसी को भी, कभी भी हत्या कर सकता है.
बिहार और कानून-मर्यादा में कोई रिश्ता नहीं बचा है. मूल्यों की बात करना अब हास्यास्पद बात है, इनको बिहार ने दफना दिया है. देश का और कोई हिस्सा इतना असंवेदनशील और क्रूर नहीं है. मानवीय संवेदनाओं पर क्रूरता हावी है. यह विसंगति ही है कि गौतम, महावीर, चंद्रगुप्त और अशोक की धरती आज असंवेदनशील समूहों का पागलखाना बन गयी है.
बिहार में न कोई सरकार है और न ही कोई मुख्यमंत्री. प्रधानमंत्री यहां का कोई नहीं है. यहां सरकार वही बनाता है, जो ज्यादा-से-ज्यादा वोट बच्चों से डलवा सके. सच्चाई यह है कि गांवों से लेकर पटना तक, बिहार में हर स्तर पर सामानांतर सरकारें चल रही हैं. ये सरकारें अपराधियों की हैं, तस्करों की हैं. इन्होंने बिहार को अपने-अपने हिस्सों में बांट रखा है. शायद बिहार ही ऐसा राज्य है, जहां एक क्षेत्र से दूसरे के क्षेत्र में जाने पर ‘रंगदारी टैक्स’ देना पड़ता है. रंगदारी टैक्स, यानी जिस इलाके में आप प्रवेश कर रहे हैं, वहां जिस आदमी का रंग है, दबदबा है, वह अपने लठैतों से टैक्स वसूलता है. देश के टैक्स अधिकारी शायद इस टैक्स की बाबत न जानते हों, पर बिहार का बच्चा-बच्चा जानता है कि रंगदारी टैक्स का मतलब क्या है.
अजीब स्थिति है, इस राज्य की. बिहार राज्य खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति विभाग के अनुसार विभिन्न जिलों में निगम के गोदामों में एक करोड़ 15 लाख रुपये मूल्य का साठ हजार क्विंटल गेहूं सड़ गया है. दरअसल, कागजों पर ही यह सड़ रहा है. माल बिका है. रकम ऊपर से नीचे तक बंट रही है. उधर पटना से चार करोड़ रुपये की लागत से बने गोदाम का इस्तेमाल नहीं हो रहा है, दूसरी ओर अन्न सड़ रहा है. तीसरी तरफ गरमी और सरदी में हजारों बिहारी भूख से मरते हैं.
बिहार में हजारों शिक्षक ऐसे हैं, जिनका शिक्षा और शिक्षण संस्थानों से दूर का भी रिश्ता नहीं है. फिर भी वे शिक्षक हैं. राज्य सरकार की गुप्तचर एजेंसी और निगरानी सेल ने पिछले दिनों अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि बिहार में जाली प्रमाणपत्रधारी 14000 व्यक्ति शिक्षक पद पर कार्यरत हैं. ऐसे शिक्षकों की सर्वाधिक संख्या मुंगेर, भागलपुर, संथाल परगना, नालंदा, नवादा, गया, बेगूसराय और पूर्णिया जिलों में है. इस रिपोर्ट के अनुसार ही राज्य के 20 फीसदी शिक्षक घरों में रह कर तनख्वाह ले रहे हैं. इन सबकी नियुक्तियां राजनीति के आकाओं के इशारों पर हुई हैं. अत: ये मूंछ पर ताव दे कर रहते हैं.
जो काम रिश्वत हाथ में ले कर घूमने पर भी देश में नहीं होता हो, वही काम कम रिश्वत में बिहार में आसानी से कराया जा सकता है. छपरा जिला से विधान परिषद के एक सदस्य हैं. परिषद के सदस्य होते ही वे और उनके एक नजदीकी दोनों स्वतंत्रता सेनानी बन कर पेंशन लेने लगे. यह ज्ञात नहीं है कि 1942 के राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान उनकी उम्र क्या थी? इन्होंने अंगरेजों की जेल कभी देखी भी या नहीं? ऐसे सैकड़ों किस्से हैं. सच यह है कि बिहार में अपराधियों और भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के बोल ही कानून हैं. इनमें से अनेक मंत्री भी रह चुके हैं. अनेक अभी हैं. विधायकों में ऐसे ‘शरीफों’ की फेहरिस्त काफी लंबी है.
ऐसा नहीं है कि बिहार में सिर्फ राजनीतिज्ञ ही बेईमान हैं. भारत-नेपाल सीमा रक्सौल पर पुलिस और कस्टमवाले खुद ही तस्करी कराते हैं. इस जगह रोजाना प्रशासन की छत्रछाया में तस्करी होती है और एक हजार से अधिक लोग यह धंधा करते हैं. ये सभी ‘कैरियर’ हैं, रक्सौल में सरकारी पोस्टिंग का बहुत महत्व है. वैसे तो बिहार में अमूमन सभी अच्छी पोस्टिंगों के लिए मंत्रियों या अधिकारियों की जेब गरम करनी पड़ती है, पर किसी भी सरकारी मुलाजिम को बिहार के किसी अन्य स्थान से रक्सौल में पोस्टिंग कराने के लिए चार गुना अधिक पैसा देना पड़ता है. इसीलिए रक्सौल को तस्करों का स्वर्ग या अफसरों की ससुराल कहा जाता है.
विकास के नाम पर बिहार में अभी तक जितना काम हुआ है, वह कागजों पर ही रह गया, क्योंकि प्रोजेक्ट चाहे करोड़ों का हो, या लाखों का, इसका 60 फीसदी तो पहले राउंड में ही हजम हो जाता है.
बाकी में से भी अधिकांश निचले स्तर के नेता-अधिकारी डकारते हैं. विकास के नाम पर आवंटित पैसा इस तरह अफसरों-ठेकेदारों और नेताओं की जेब में चला जाता है. इसीलिए बिहार में आर्थिक विषमता तेजी से बढ़ी है. सामाजिक विषमता भी यहां चरम पर है. इस लूट समारोह ने, जो सालों से चल रहा है, एक अत्याधुनिक वर्ग को जन्म दिया है, जो सुविधाभोगी है. यह वर्ग समस्त वर्जनाओं को तोड़ कर साधनहीनों को हेयदृष्टि से देखता है. लेकिन बिहार के इस लूट समारोह में सबसे ज्यादा मलाई संभवत: राज्य के इंजीनियरों ने चाटी है. यह लूट जिसे बड़े पैमाने पर पिछले दिनों हुई है, वह देश भर में एक मिसाल है. एक-एक काम के लिए जूनियर इंजीनियर से लेकर चीफ इंजीनियर तक के रेट बंधे हुए हैं.
इस महकमे के लोग रिश्वतखोरी के लिए नये-नये शब्द ईजाद करते हैं. आजकल मुजफ्फरपुर के इंजीनियरों में प्रचलित है ‘एल बटे चार’ यानी लूटो और चार हिस्सों में बांटो – विधायक, अफसर, ठेकेदार और खुद. ‘एल बटे चार’ फार्मूला बिहार भर के इंजीनियर अमल में ले जाते हैं. करोड़ों-करोड़ रुपया सिर्फ प्रोजेक्टों के डिजाइन बनाने में खर्च दिखाया जाता है. तकरीबन शत-प्रतिशत ठेकेदारों के यहां अपराधी और राजनीतिज्ञ पलते हैं. इनके पास बेशुमार पैसा होता है और राजनीति इनका शगल. अपराध करना-कराना ऐसे ठेकेदारों का मनोरंजन और ठेकेदार हैं. जहां का आवास मंत्री तीन-तीन निवास स्थानों पर कब्जा करने के बाद चौथे मकान की तलाश में हो, वहां आचार संहिता की बात करना व्यर्थ है.
पिछले दिनों पटना जिला के आपूर्ति कार्यालय में एक भंडाफोड़ हुआ. पिछले दो सालों में जिला आपूर्ति कार्यालय से करोड़ों रुपयों के विभिन्न प्रकार के कोयला परमिट देने में 20 से 25 करोड़ रुपयों के फरजी डी.ओ. (डिलीवरी आदेश) जारी हुए हैं. इस जालबट्टे में सचिवालय के अनेक अधिकारियों से ले कर राजनेताओं तक सभी शामिल हैं. यह एक उदाहरण मात्र है. राज्य सरकार की जानकारी में ऐसी दर्जनों घटनाएं रोज होती हैं. इस घटनाक्रम का सर्वाधिक अशोभनीय पक्ष यह है कि यहां की जनता इस भ्रष्टाचार को स्वीकार कर चुकी है.
अब बिहार में इन बातों से कोई उत्तेजित नहीं होता है, बल्कि गरीब आदमी का तर्क यह हो गया है कि ‘पैसा विधायक-अफसर नहीं बनायेंगे, तो क्या हम बनायेंगे?’ बिहार सचिवालय वह ‘गंगोत्री’ है, जहां से भ्रष्टाचार की नदी फूटती है. बिहार के कार्मिक विभागों में यह किस्सा काफी प्रचलित है कि यहां का बाबू अपने सामने खड़े डिप्टी कलक्टर से तभी बात करता है, जब फाइल पर पहले 100 रुपयों का नोट रख दिया जाता है. नोट पाने के बाद ही वह सिर उठाता है. बिहार में हर काम की फीस है, वह भी बंधी हुई. इस फीस को चुकाये बिना मुख्यमंत्री भी कोई काम नहीं करा सकते हैं.
इस विभाग में अधिकतर लोग पंद्रह-पंद्रह, बीस-बीस सालों से एक ही जगह जमे हुए हैं. मंत्रियों का आदेश इन पर नहीं, वरन मंत्रियों पर इनका आदेश चलता है. जगन्नाथ मिश्र के कार्यकाल में के.बी. सक्सेना ने इस विभाग को सुधारने की कोशिश की थी. लेकिन उन्हीं को यह विभाग छोड़ कर जाना पड़ा, कमोबेश यही हालत राज्य के प्रत्येक विभाग की है.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1994 में बिहार में हर दूसरे घंटें में एक हत्या हुई. और हर ढाई घंटे बाद डकैती. पुलिस अधिकारी इस तथ्य को खुल्लम-खुल्ला स्वीकारते हैं कि यहां अपराध के एक चौथाई मामले तो दर्ज ही नहीं होते. पिछले चार सालों में बिहार में 8000 हत्याएं हुईं. पिछली विधानभा में 325 विधायकों में से अधिकांश को हथियारबंद गार्ड दिये गये थे. आज स्थिति और भी खराब है. बिहार का अपराधी, जिलाधीश और विधायकों की हत्या करके निडर घूमता है. अन्य राज्यों में राजनीतिक हत्याओं में मंत्रियों का हाथ होना रोजमर्रा की बात नहीं, लेकिन बिहार में अकसर ऐसा होता है.
इसीलिए यहां की नौकरशाही भी पूरी तरह भ्रष्ट हो चुकी है. बिहार लोकसेवा आयोग में पद पैसे से बिकते हैं. इम्तिहान दे कर छात्र आश्वस्त नहीं रह सकता कि उसका परिणाम कब, कितने महीनों में निकलेगा.अगर लोगों की संवेदना कुंद हो जाये, तो उसकी नियति बिहार है. बिहार में किसी भी युवक के लिए रेल टिकट लेना शर्म की बात है. अगर आप आतंक और शोषण के शिकार हैं, तो बिहार में आपको शायद ही कोई मददगार मिले. धुर दक्षिण से उत्तर बिहार के हर जिले में किसी-न-किसी दादा का आतंक है.
धनबाद में माफिया गिरोह है, तो छोटानागपुर के अन्य हिस्सों में शोषक का रोल अधिकारी और ठेकेदार अदा करते हैं. पटना से गया तक का इलाका अभी सबसे अधिक अशांत है. इस पट्टी में रोज कितनी हत्याएं होती हैं, इसका हिसाब न तो पुलिस रेकॉर्ड में हैं, न ही स्वयं हत्यारों के पास, इन सभी हत्यारों और अपराधियों को या तो राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है, या वे स्वयं ‘मशहूर’ नेता हैं.
राज्य में स्वयं सरकारी आंकड़े सरकार के इस दावे को झुठलाते हैं कि बिहार में कानून-व्यवस्था की स्थिति सुधर रही है. स्वयं सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1980 में 2108 हत्याएं हुई थीं, तो 1984 में 3088. 1980 में अगर 20 हजार डकैतियां पड़ी थीं, तो 1984 में 30,000. ट्रेन डकैतियां 45 से 70 और बस डकैतियां भी 135 से 243 बढ़ीं.
ये सरकारी आंकड़े हैं. 1985 के साल में इन आंकड़ों में तेजी से इजाफा भी हुआ है.बिहार की कानून व्यवस्था का सबसे दुखद पहलू यह है कि प्रशासन-राजनीतिज्ञों और अखबारनवीसों की दृष्टि इस राज्य की हिंसा की ओर तभी जाती है, जब यहां बेलछी, पिपरा, भागलपुर, गया आदि सरीखी कांड हो जाते हैं. हरिजनों, भूमिहीनों, पिछड़ों और शोषितों को अन्य लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए बिहार में सामूहिक रूप से मरना आवश्यक है.
मुंगेर, भागलपुर, साहेबगंज, बक्सर, वैशाली के दियारा क्षेत्रों में, औरंगाबाद और गया के पहाड़ी क्षेत्रों में, पूर्णिया, सीतामढ़ी और पश्चिम चंपारण के जंगलों में, सरकार और कानून का कोई रिश्ता नहीं. इस स्थिति के लिए राजनीतिज्ञों और अपराधियों का गंठजोड़ जिम्मेदार है. यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि बड़हिया, मोकामा, बेगूसराय या भागलपुर जैसे क्षेत्रों असामाजिक तत्व ही राजनीतिज्ञों की ‘प्रतिष्ठा’ में चार चांद लगाते हैं और यही गुंडे चुनावों के दौरान बूथों पर कब्जा करके इन नेताओं को भारी बहुमत से जिताते हैं. इसीलिए पश्चिम चंपारण में काफी धूम-धड़ाके से शुरू किया गया ‘ऑपरेशन ब्लैकपैंथर’ शुरू होने से पहले फ्लॉप हो गया.
इस कहानी का सबसे दुखद पहलू यह है कि बिहार का गरीब, देश का सबसे अधिक गरीब है और जो अत्याचार बिहार के अपराधी राजनीतिज्ञ इन गरीबों पर करते हैं, अकल्पनीय हैं. छोटे-छोटे गांव में छोटी जातियों के लोगों ने शायद ही कभी वोट डाले हों. जिस पार्टी के पास बड़ा गुंडा होता है, उस पार्टी के छह-छह, सात-सात वर्ष के लड़के फरजी वोट डालते हैं.
पलामू जिला भारत का एकमात्र ऐसा जिला है, जहां अभी भी लाखों बंधुआ मजदूर हैं. एक सर्वेक्षण के अनुसार इनकी संख्या करीब दो लाख से ज्यादा है. लेकिन इनकी आवाज बाहर तक नहीं पहुंच सकती है. इस तथ्य को बिहार सरकार जानती है, केंद्र सरकार भी जानती है. आश्चर्यजनक बात यह है कि 1920 में पलामू में 62 हजार बंधुआ मजदूर थे, जो 64 वर्षों में बढ़ कर दो लाख से ज्यादा हो गये हैं.
सहरसा में भी जातिवाद के आधार पर गुंडे नेता बन गये हैं. उन्हें सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त हो गयी है. जो सबसे अधिक खतरनाक पहलू है. इन तथाकथित नेताओं की सभाओं में हजारों की भीड़ जुटती है और राजनीतिक के बड़े-बड़े आकाओं से इनको समर्थन मिलता है. सत्येंद्र नारायण सिंह सरीखे नेता इनके साथ मंच पर विराजमान होकर उन्हें पाक-साफ घोषित करते हैं. यह स्थिति सिर्फ इंका के साथ नहीं है, बिहार के सभी राजनीतिक दल इस रोग से ग्रस्त हैं.
धनबाद में कुछ सालों पहले बी.सी.सी.एल. में करोड़ों का घपला जिस ऑडिटर एस.एस. दास ने पकड़ा, उसकी हत्या कर दी गयी. सी.बी.आई. ने उसकी जांच शुरू की, पर फिर भी कुछ नहीं हुआ. अपराधी आज भी शान से घूम रहे हैं. बी.सी.सी.एल. में कोयला खदानों में बालू गिराने का ठेका चलता है. एक ट्रक बालू आया, तो उसे दस दिखाया जाता है, पर दास का अपराध यह था कि उन्होंने कागजों में यह उल्लेख पाया कि ट्रकों की जगह मोटरसाइकिलों से बालू ढोया गया. उन्होंने इस तरह की अनेक अनियमितताएं पकड़ ली थीं. दास ने यह सब अपनी रिपोर्ट में दर्ज किया. परिणामस्वरूप उन्हें मार डाला गया.
दरअसल, बिहार में अपराधी राजनीतिज्ञों की समानांतर सरकारें हैं. मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी दुबे कुछ भी कहें, लेकिन सच यही है कि बिहार में वर्चस्व इन्हीं सामानांतर सरकारों का है. बेगूसराय में राजनीतिक हत्याएं आम बात हैं. पूर्व गृहमंत्री भोला सिंह और कम्युनिस्टों के बीच झगड़े के चलते अभी तक यहां अनगिनत जानें गयी हैं.
350 एकड़ में फैले ‘हिंदुस्तान उर्वरक निगम’ का बरौनी कारखाना आज खस्ता हालत में है. यह कारखाना अगर बिहार के बाहर कहीं और लगा होता, तो उसे करोड़ों का फायदा हुआ होता, लेकिन 92 करोड़ की लागत से बने इस कारखाने को करीब 135 करोड़ रुपये का घाटा हो चुका है. यहां अनगिनत ट्रेड यूनियनें हैं, स्थानीय दादा लोग हैं, जब जिसे मन आया, धमकाया, सामान उठाया और चल दिया.
बाहर से आया अधिकारी मनमाफिक नहीं हुआ, तो उसे पहले धमकाया और फिर भी नहीं माना, तो पीट कर ठीक किया. यह कारखाना किसानों के लिए यूरिया बनाने के लिए लगाया गया था. यहां के निगम भंडार से यूरिया खाद की चोरी भी होती है. घाटे पर चल रहे इस कारखाने पर स्थानीय अपराधियों का कब्जा है. इसिलए 81-82, 82-83 में 2415 मेट्रिक टन और 2950 मेट्रिक टन यूरिया की चोरी हुई. 83-84 में लगभग ढाई करोड़ रुपये की यूरिया चोरी हुई.
दक्षिण बिहार की हालत और भी नाजुक है. सिंहभूम के दलभूमगढ़ में पुलिस ने आदिवासियों पर फिर गोली चलायी है.
आदिवासियों पर यह इस साल का दूसरा बड़ा गोलीकांड है. इस साल के शुरू में पुलिस ने गोइलकेरा प्रखंड में गोली चलायी थी. बिहार में ही नहीं, संभवत: पूरे देश में सर्वाधिक गोलीकांड सिंहभूम में हुए हैं. 1980 से अब तक यहां पुलिस ने 15 बार गोली चलायी है. आदिवासी जब भी अपने हक की मांग करते हैं, उन्हें गोली मिलती है. साहेबगंज जिले में बांझी गांव में 19 अप्रैल को 15 आदिवासी मारे गये.
इस गोलीकांड की चर्चा सभी अखबारों में हुई, लेकिन ‘दिकू’ अधिकारी और राजनीतिज्ञ आदिवासियों का छोटानागपुर में जैसा शोषण करते हैं, उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता. संभवत: जमशेदपुर और धनबाद के साथ-साथ छोटा नागपुर इलाके में कोई भी जगह ऐसी नहीं है, जहां आदिवासी मजदूरों के साथ बेगार कराके, जानवरों सरीखा व्यवहार नहीं किया जाता हो. इनसे गुलामों की तरह काम कराया जाता है, इनकी औरतों के साथ बलात्कार आम बात है. और जब-जब आदिवासी इन सब बातों का विरोध करते हैं, तो पुलिस उन पर गोली चलाती है.
अभी भी आदिवासियों को समाज की मुख्यधारा से नहीं जोड़ा जा सका है. इस दिशा में एक छोटा-सा प्रयास ज्ञानरंजन ने किया था, झारखंड मुक्ति मोरचा और कांग्रेस (ई) में तालमेल करा कर. लेकिन केंद्र की राजनीति में ज्ञानरंजन के पराभव के साथ ही यह तालमेल टूट गया. झारखंड मुक्ति मोरचा एक बार फिर अलग-अलग रास्ते पर चल पड़ा है. कोल्हान की मांग अभी खत्म नहीं हुई है. प्रशासन और पुलिस जहां आदिवासियों और जंगलों को सिर्फ शोषण और लूट की चीज समझे, वहां मुख्यधारा से उन्हें जोड़ने की कल्पना करना ही व्यर्थ है.
अपराधी राजनीतिज्ञों ने पुलिस को क्षेत्रों में अत्याचार करने के लिए खुला लाइसेंस दे रखा है. आदिवासियों के जीवन में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन करने के बजाय बिहार के अधिकारी छोटा नागपुर इलाके को अपनी चारागाह मानते हैं.सिंहभूम रत्नगर्भा है. यहां की खनिज संपदा और वन संपदा का सही उपयोग हो, तो पूरे देश की तसवीर बदल सकती है. सारंडा का गहन वन, लोहा, तांबा, यूरेनियम, चूना पत्थर, चायना क्ले, मैगनीज, सोना, केनाइट आदि के भंडार यहां हैं. लेकिन आज भी इस क्षेत्र में आदिवासी महिलाएं और बच्चे बंधुआ मजदूर बना कर खरीदे-बेचे जाते हैं. शिक्षा, स्कूल का कोई प्रबंध नहीं है. इनके विकास के नाम पर आवंटित करोड़ों रुपये ठेकेदारों, नेताओं और अफसरों के बीच बंट जाते हैं.
हाल ही में दुबे जी की सरकार ने बिहार राज्य निगम की बसों के लिए आरक्षित 115 मार्गों में से 65 मार्गों को निजी बस चालकों को देने की घोषणा की है. बिहार में परिवहन विभाग, बिजली विभाग जैसा अव्यवस्थित और अनियंत्रित विभाग नहीं है. पैसों का घोर संकट है, फिर भी दुबे जी ने राज्य के मार्गों को निजी बस चालकों को सौंप दिया है. उनकी यह मजबूरी बिहार की दुर्दशा जताती है. बिहार को 1500 मेगावाट बिजली की जरूरत है, लेकिन उसे 300-400 मेगावाट बिजली ही मिल पाती है. बिहार की शिक्षा के संबंध में कोई भी टिप्पणी न करना बेहतर है.
यहां जब परीक्षार्थी परीक्षा देने जाता है, उससे पहले एक बड़ी फौज उसकी मदद करने के लिए परीक्षा केंद्रों पर पहुंच जाती है. सरकार के पास 1970 के आठ सरकारी निगम थे. अब इसकी संख्या 49 है. 31 मार्च 1983 तक इनमें दो अरब 50 करोड़ रुपयों का घाटा था. आजकल बिहार राज्य विद्युत बोर्ड एक अरब 7 करोड़ और पथ परिवहन निगम 50 करोड़ रुपये के घाटे में चल रहा है.
मुख्यमंत्री ने पिछले दिनों अपने बरखास्त समधी को बहाल कर सारे मापदंडों का उल्लंघन किया है. विधानसभा की प्रश्न और ध्यानाकर्षण समिति अब तक 114 रपटें दे चुकी है, जिस दिन जगदीश पांडे (समधी मुख्यमंत्री) के बारे में रपट पेश की गयी, उस दिन भी इस तरह की एक दर्जन से अधिक रपटें पेश की गयीं.
पर सरकार ने बाकी 113 रपटों में से किसी भी सिफारिश पर अमल नहीं किया, लेकिन अपने समधी को सोन आधुनिकीकरण योजना के मुख्य अभियंता के तकनीकी सलाहकार के पद पर तैनात कर दिया है. दुबे जी स्वयं सिंचाई विभाग के प्रभारी मंत्री हैं. विश्व बैंक की मदद से पंद्रह सौ करोड़ रुपये की सोन आधुनिकीकरण योजना तैयार की गयी है. वहां चीफ इंजीनियर का पद अभी तक खाली रखा गया है. प्रसिद्ध पाइप घोटाला कांड में पांडे जी बरखास्त हुए थे. तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रशेखर सिहं ने अपनी जाति के अधीक्षण अभियंता गिरिजानंद सिंह सहित चार इंजीनियरों को बचा कर सिर्फ जगदीश पांडे को मुअत्तल किया. जबकि दोषी ये सभी हैं. मान भी लिया जाये कि ये सभी इंजीनियर निर्दोष थे, तो करोड़ों रुपये हुए घोटालों के लिए कौन दोषी है?
संभवत: बिहार अपने में एक अनोखा राज्य है. अभी तक बिहार में कोई भूमि रिकॉर्ड नहीं है. बिहार की पतन गाथा का सबसे बड़ा सबूत है, मासूम बच्चों के सिर कलम करके इससे व्यापार करनेवालों की सबसे बड़ी संख्या बिहार में है. ये लोग हर महीने लगभग 200 पेटियां शिशु-मुंड पटना जंक्शन से कलकत्ता के लिए बुक करवाते हैं. एक पेटी में आठ से 10 शिशु-मुंड होते हैं. ये पेटियां आम की पेटी के नाम पर बुक होती हैं. भारत दुनिया के 23 देशों को कंकाल निर्यात करता है. इस काम के लिए सरकार ने करीब 30 लोगों को लाइसेंस दे रखा है, इनमें से 10 लोग बिहार के हैं. इस व्यापार का सबसे खौफनाक पक्ष यह है कि गरीब लोगों के बच्चों को चुरा कर पटना पहुंचाया जाता है. बच्चों को पहले जहरीली दवा पिला दी जाती है, फिर उनका सिर कलम किया जाता है. बच्चा-चोरों का गिरोह एक बच्चे की कीमत 500 से 1000 रुपये तक वसूल करता है. इसके अतिरिक्त इन सौदागरों के एजेंट मरघटों पर भी तैनात रहते हैं. वह वीभत्स व्यापार बिहार में ही संभव है.
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद घूस-लूट का जो दौर यहां चला, यह पतन उसका परिणाम है. हर विकासमूलक कार्यों में हिस्साबांट पूर्व निर्धारित है. आजकल यह चरम सीमा पर है. 30-30 वर्षों बाद भी योजनाएं अधूरी हैं. इनमें अब तक अरबों लग चुके हैं. कोशी-गंडक जैसी अनगिनत योजनाएं, जो 20 वर्षों पूर्व ही पूरी होनी थी, पर अभी तक उनमें काम जारी है. राजनीतिज्ञों-नौकरशाहों-ठेकेदारों के पास बेशुमार पैसा ऐसे ही धंधों से आया है. गरीब और गरीब हुए हैं. अमीरों की संपत्ति में अकल्पित इजाफा हुआ है. ये लोग शादी-ब्याह, जन्मदिन के अवसर पर लाखों खर्च करते हैं.
बिहार में कृषि की स्थिति को जर्जर करने में कई सहकारी माफिया सक्रिय हैं. इसमें भूमि विकास बैंक, बिस्कोमान आदि सहकारी संस्थाओं का भयंकर खेल चलता है. हाल में बिहार विधानसभा की प्रश्न एवं ध्यानाकर्षण समिति ने एक विस्फोटक रिपोर्ट दी है. उदाहरण के लिए टमाटर बीज की खरीद को लें, जिसमें लाखों का घपला हुआ. लगभग 100 क्विंटल टमाटर का बीज खरीदने एवं वितरण करने का आदेश कृषि विभाग ने बिस्कोमान को दिया. इस खरीद में निजी व्यापारियों की बन आयी.
यदि सरकारी फार्म व निगम से बीच खरीदा जाता, तो केवल साठ रुपये किलो मिल जाता, लेकिन निजी व्यापारियों से खरीदने पर एक सौ रुपये प्रति किलो पड़ा. विधानसभा की समिति ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि बिहार जैसे गरीब राज्य में कृषि विभाग के ऐसे कार्यों से यह राज्य इन क्षेत्रों में और पिछड़ा है. समिति ने इसके लिए कृषि निदेशक को दोषी ठहराया है. बिहार के किसानों को न तो उन्नत बीज, मिलते हैं न खाद, न सिंचाई के साधन. खेती पर निर्भर गांवों की आबादी भूख से तड़पती रहती है. ग्राम विकास की योजनाएं केवल सरकारी फाइलों में ही फलती-फूलती रह जाती हैं.
इस राज्य में विकास के लिए जो धन आया, उसका दुरुपयोग हुआ और इससे फायदा पहुंचा कुछ समिति के लोगों को. लेकिन इससे प्रभावित हुआ पूरा समाज. शादी-ब्याह, श्राद्ध, पढ़ाई (पैसा दे कर डिग्री हासिल करना) यानी जीवन का हर पहलू महंगा हो गया. इसका तत्काल प्रभाव पड़ा, सीमांत कृषकों या छोटे जोतदारों पर. पढ़ाई-शादी आदि अवसरों पर उन्हें खेत बेचने पड़ते हैं. इस निवेश का कोई प्रतिफल नहीं मिलता, फलत: झुंड-के-झुंड ऐसे जोतदार प्रतिवर्ष भूमिहीनों की जमात में शामिल हो रहे हैं.
दूसरी तरफ बिहार के राजनीतिज्ञों-नौकरशाहों-ठेकेदारों द्वारा 10-15 लाख तक शादी-ब्याह या विशिष्ट आयोजनों पर खर्च कर देना मामूली बात है. इस कालेधन ने संपन्न और गरीब लोगों के बीच की दूरी को और बढ़ाया है. गरीबों के सामने अंधकारमय भविष्य है. सूना जीवन है, परिवार-बच्चे बोझ हैं. ऐसे लोग विवश होकर अस्त्र उठाते हैं, तो सरकार दमन के द्वारा समस्या सुलझाने की कोशिश करती है. जुल्म और दमनकारी नीतियों से आज तक कोई समस्या नहीं सुलझी है.
बिहार की इस पतन गाता के पीछे सरकार और शोषण की लंबी कहानी है. राजीव गांधी इसी मरते बिहार को 21वीं शदी में ले जाना चाहते हैं, जो 15वीं सदी से भी पीछे चला गया है. बहस कलकत्ता पर हो रही है, दरअसल बिहार मर रहा है, इसे बचाना जरूरी है.