II उर्मिला कोरी II
फ़िल्म -साला खड़ूस
निर्माता-राजकुमार हिरानी और ट्राय कलर फिल्म्स
निर्देशक -सुधा कोंगरा
कलाकार-आर माधवन, रीतिका, ज़ाकिर हुसैन, मुमताज़
रेटिंग-तीन
स्पोर्ट्स बेस्ड फिल्मों की अगली कड़ी आर माधवन की ‘साला खड़ूस’ है. खास बात है यह फ़िल्म महिला बॉक्सिंग पर आधारित है और इस फ़िल्म की निर्देशिका भी एक महिला ही हैं. यह सिर्फ एक अंडरडॉग के वर्ल्ड चैंपियन बनने की कहानी भर नहीं है बल्कि यह महिला बॉक्सिंग से जुड़े शोषण और पॉलिटिक्स की भी बात प्रभावी ढंग से सामने लेकर आती है. सिर्फ फेडरेशन की खामियां ही नहीं फिल्म प्लेयर्स की कमज़ोरियों को भी उजागर करती है किस तरह सरकारी नौकरियां पाने के लिए कई लोग खेल से जुड़ते हैं.
कहानी : फ़िल्म की कहानी आदि तोमर (आर माधवन) की है, जो बॉक्सिंग से जुड़े पॉलिटिक्स से परेशान है. उसका खुद का करियर इसी वजह से खत्म हो चुका है. अब वह कोच के तौर पर इस पॉलिटिक्स को महिला बॉक्सिंग में खत्म कर वर्ल्ड चैंपियन देना चाहता है. इसी बीच आदि का ट्रांसफर हिसार (हरियाणा) से चेन्नई कर दिया जाता है जहां उसकी मुलाकात मछली बेचने वाली मधि (रीतिका सिंह) से होती है जो बचपन से मोहम्मद अली को टीवी पर देखकर बॉक्सिंग खेल से परिचित है लेकिन वह उस में अपना करियर नहीं बनाना चाहती है. कैसे आदि उसे बॉक्सिंग से जोड़ता और फिर चैंपियन बनाता है, इसी उतार चढ़ाव की कहानी ‘साला खडूस’ है.
अभिनय : यह एक अंडरडॉग खिलाडी के उसके कोच की जिद और मेहनत से वर्ल्ड चैंपियन बनने की कहानी है. फ़िल्म की कहानी में चक दे इंडिया की थोड़ी बहुत याद दिलाती है. कहानी में ज़्यादा नयापन नहीं है लेकिन इसकी प्रस्तुति निर्देशिका सुधा कोंगरा ने कुछ इस कदर की है कि फ़िल्म आपको बांधे रखती है. फ़िल्म का फर्स्ट हाफ ज़्यादा प्रभावी और मनोरंजक है, हाँ क्लाइमेक्स ज़रूर तालियां बजाने को मजबूर कर जाता है. फ़िल्म की कहानी में ड्रामा और थोडा बॉलीवुड का मसाला भी है. अभिनय की बात करे तो हरफनमौला आर माधवन एक बार फिर पर्दे पर जादू जगाने में कामयाब नज़र आए हैं.
ज़्यादातर हिंदी फिल्मों में बॉय नेक्स्ट डोर की भूमिका निभाने वाले माधवन इस फ़िल्म में रफ़ एंड टफ लुक और किरदार में दिख रहे हैं. मधि के किरदार में नज़र आ रही रितिका रियल लाइफ में भी बॉक्सर है इसलिए वह फ़िल्म में वह फाइटिंग करते हुए पूरी तरह परफेक्ट नज़र आ रही हैं लेकिन ख़ास बात यह है कि वह सिर्फ फाइट के सीन ही नहीं बल्कि इमोशनल और दूसरे अभिनय के रंगों को भी खूबसूरती से पर्दे पर लाती हैं. उनकी पहली फ़िल्म है यह बात स्क्रीन पर उनके आत्मविश्वास और सहज अभिनय को देखकर लगता ही नहीं है.
जाकिर और मुमताज़ भी अपने सहज अभिनय से अपने अपने किरदारों की नकारात्मकता को भी बखूबी बयां कर जाते हैं. फ़िल्म में बाकी के कलाकार खासकर रीतिका के माता पिता अपने सहज अभिनय से वास्तविकता के बहुत करीब जान पड़ते हैं.
संगीत : फ़िल्म के संगीत की बात करें तो वह कहानी में फिट बैठते हैं. सभी गाने कहानी के अनुरूप ही हैं.
संवाद : फ़िल्म के सवांद अच्छे बन पड़े हैं. जो प्रेरित करने के साथ साथ गुदगुदाते भी है. स्पोर्ट्स में से पॉलिटिक्स हटाकर देखो गली गली में चैंपियन मिलेंगे या फिर दारु और लीवर का डॉयलॉग जो हँसने को मजबूर कर देता है. फ़िल्म में बॉक्सिंग फाइटिंग वाले सीन्स बहुत अच्छे हैं. स्पोर्ट्स पर आधारित फिल्में बहुत प्रेरणाप्रद होती रही है यह भी है. इस फ़िल्म को और ज़्यादा खास इससे जुड़े कलाकारों का प्रदर्शन बनाता है. कुलमिलाकर ‘साला खड़ूस’ अपील करती है.