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डॉक्टरों की घटती संख्या व मरीजों की बढ़ती तादाद बना रही है भयावह स्थिति

कोलकाता : राज्य में डॉक्टरों की हड़ताल जारी है. स्थिति दिनों-दिन भयावह होती जा रही है. राज्य सरकार का हर प्रयास विफल होता दिख रहा है. नतीजतन रोगियों की चिकित्सा नहीं हो पा रही है. इलाज के अभाव में मरीजों की मौत भी हो रही है. डॉक्टरों पर हुए हमले के विरोध में अब तक […]

कोलकाता : राज्य में डॉक्टरों की हड़ताल जारी है. स्थिति दिनों-दिन भयावह होती जा रही है. राज्य सरकार का हर प्रयास विफल होता दिख रहा है. नतीजतन रोगियों की चिकित्सा नहीं हो पा रही है. इलाज के अभाव में मरीजों की मौत भी हो रही है. डॉक्टरों पर हुए हमले के विरोध में अब तक 800 से ज्यादा चिकित्सकों ने इस्तीफा दे दिया है, जबकि सरकारी अस्पतालों में पहले से ही 300 डाॅक्टरों के पद खाली हैं.

पिछले छह वर्षों में सरकारी अस्पतालों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन उसके मुकाबले डॉक्टरों की संख्या में इजाफा नहीं हुआ है. आलम यह है कि राज्य में मरीज और डाॅक्टरों के अनुपात में भारी अंतर आ गया है. इस हिसाब से प्रदेश में एक डाॅक्टर पर 1850 मरीजों के इलाज की जिम्मेवारी होती है. ऐसे में एक डॉक्टर को एक मरीज के इलाज में जितना वक्त देना चाहिए, वह नहीं दे पाते हैं.
पश्चिम बंगाल डॉक्टर्स फोरम के प्रमुख रजाउल करीम के मुताबिक डॉक्टरों पर हुए हमले की रोकथाम के लिए वर्ष 2009 में राज्य सरकार ने मेडिकेयर कानून बनाया गया था. लेकिन उसे अमल में नहीं लाने के कारण आये दिनों ऐसी घटनाएं हो रही हैं. खुद भाजपा के सांसद डॉ सुभाष सरकार ने प्रेस कांफ्रेंस करके राज्य सरकार पर आरोप लगाया है कि ममता सरकार के सत्ता संभालते ही अब तक कार्यरत डाक्टरों पर हमले की 233 घटनायें हुई हैं. लेकिन महज पांच मामले में ही पुलिस कार्रवाई की.
उसमें भी हमलावरों के खिलाफ इतनी कमजोर धाराओं में मामले दर्ज किये गये कि अपराधी अब तक खुले आम घूम रहे हैं. आइएमए के सदस्य व वामपंथी डॉक्टरों के संगठन के नेता डॉ मानस सेन ने बताया कि राज्य सरकार की पहल पर सरकारी अस्पतालों की संख्या बढ़ाने के लिए ब्लाॅक स्तर के अस्पतालों को विकसित तो किया गया, लेकिन यह केवल चकाचौंध वाली इमारत तक ही सीमित है.
इलाज के लिए जरूरी मशीनें, तकनीशियन, लेबोरेट्री, पैथोलाॅजी के साथ उपकरण, डाॅक्टर, नर्स की संख्या नहीं बढ़ायी गयी है. ज्यादातर अस्पतालों में ये सभी पद खाली हैं. डॉक्टर मरीजों की बढ़ती संख्या से वे पूरा समय नहीं दे पा रहे हैं. इसके अलावा उन्हें इलाज के लिए जो रिपोर्ट चाहिए, वह नहीं मिल पाती है.
ऐसे में एक डॉक्टर को जो सही इलाज करना चाहिए, वह नहीं हो पाता है और मरीज की मौत हो जाती है. इस तरह के मामलों में मरीज के परिजनों का गुस्सा डॉक्टरों पर उतरता है. रिकवरी नर्सिंग होम के डॉक्टर सुशील अग्रवाल ने कहा कि भारत में ज्यादातर मरीज बीमार होने पर समय पर इलाज करवाने की बजाय लापरवाह बने रहते हैं. जब स्थिति गंभीर होती है, तो वे इलाज के लिए स्थानीय डॉक्टरों के पास जाते हैं.
ज्यादातर मामले में मरीज अस्पताल में तब पहुंचता है, जब बीमारी अपने अंतिम चरण में पहुंच जाती है. डॉक्टर मरीज की जान बचाने का प्रयास करते हैं और जब विफल होते हैं, तो मरीज के परिजनों का गुस्सा डॉक्टरों पर उतरता है. जबकि लोग यह नहीं जानना चाहते हैं कि इस मामले में डॉक्टर का कोई दोष नहीं है.

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