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…जब बापू ने ग्रामीण महिलाओं को शिक्षा देने के लिए अभिजात वर्ग की महिलाओं को दी थी चुनौती

भारत में पुराने समय से ही शिक्षा का एक अलग ही महत्व रहा है, जो अनवरत आज तक जारी है. आज दो अक्टूबर है. दो अक्टूबर माने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का 150वां जन्मदिन है. उनके जन्मदिन के मौके पर यदि हम उनके जीवन के तमाम पहलुओं के साथ शिक्षा की बात न करें, तो यह […]

भारत में पुराने समय से ही शिक्षा का एक अलग ही महत्व रहा है, जो अनवरत आज तक जारी है. आज दो अक्टूबर है. दो अक्टूबर माने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का 150वां जन्मदिन है. उनके जन्मदिन के मौके पर यदि हम उनके जीवन के तमाम पहलुओं के साथ शिक्षा की बात न करें, तो यह बेमानी ही होगी. वैसे, तो बापू को पूरी दुनिया जानती है, लेकिन जब आप शिक्षा और स्त्री शिक्षा को लेकर उनके विचार, सिद्धांत और कार्यप्रणाली का अध्ययन करेंगे, तो पायेंगे कि उन्होंने भारत की ग्रामीण महिलाओं को शिक्षा प्रदान करने के लिए भारत के अभिजात वर्ग की शिक्षित महिलाओं को मैदान में उतरने की चुनौती दी थी.

जब हम राष्ट्रपिता बापू की बात करते हैं, तो जीवन के वे तमाम सिद्धांत आंखों के सामने तैर जाते हैं, जिन्हें गांधीजी ने भविष्य के भारतीय समाज के लिए निर्धारित किया है. खासकर, उन्होंने शिक्षा को उन्नत बनाने के लिए शिक्षा सिद्धांत को आम जीवन में सरलता से आत्मसात करने के लिए एक सुगम और व्यावहारिक रास्ता बनाने का काम किया. महात्मा गांधी ने शिक्षा के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा, ‘शिक्षा से मेरा अभिप्राय बालक तथा मनुष्य में निहित शारीरिक, मानसिक एवं श्रेष्ठतम आत्मिक शक्तियों का अधिकतम विकास हो.’

स्त्री के शिक्षित होने से पूरा परिवार ही शिक्षित होगा

गांधीजी ने बालकों को शिक्षा प्रदान करने का प्रबल पक्षधर तो थे ही, लेकिन वे हमेशा स्त्रियों को भी शिक्षा प्रदान करने के पक्ष में रहे हैं. उनका मानना था, ‘एक व्यक्ति को पढ़ाओगे, तो एक व्यक्ति ही शिक्षित होगा, लेकिन एक स्त्री को पढ़ाओगे, तो पूरा परिवार शिक्षित होगा.’ दरअसल, गांधीजी शिक्षा के जरिये महिलाओं की मुक्ति में विश्वास करते थे. उन्होंने भारतीय समाज के कायाकल्प के लिए राजनीति और सामाजिक तौर पर जो आंदोलन छेड़े, उसमें महिलाओं के साथ कोई भेद-भाव नहीं की. गांधीजी को भारत में महिलाओं को लेकर सामाजिक निरंकुशता और समाज में व्याप्त पुरुष प्रधानता की पूरी जानकारी थी.

स्त्रियों के साथ भेद-भाव को बढ़ावा देने के लिए शहरी जिम्मेदार

गांधीजी ने महिलाओं की शिक्षा को पूरा महत्व दिया, लेकिन वे यह भी जानते थे कि अकेले स्त्री शिक्षा या फिर शिक्षा से ही राष्ट्र के नवनिर्माण के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता. उन्होंने एक बार कहा था, ‘महिलाओं की शिक्षा मात्र ही दोषी नहीं है. हमारी समूची शिक्षा प्रणाली ही विगलित है.’ वे शहरों और कस्बों में रहने वालों की आलोचना करते थे, जो उस समय पूरी आबादी का कुल 10 से 15 फीसदी थे और प्रत्येक चीज में लिंग संबंधी भेद-भाव को बढ़ावा देते थे.

गांधीजी ने शिक्षित महिलाओं को ऐसे ललकारा

2 मई, 1929 को गांधीजी ने यंग इंडिया में लिखा था, ‘जरूरी यह है कि शिक्षा प्रणाली को दुरुस्त किया जाए और उसे व्यापक जनसमुदाय को ध्यान में रखकर तय किया जाए.’ उन्होंने आगे लिखा, ‘जिस शिक्षा प्रणाली में बल नहीं दिया जायेगा, वह उपयुक्त नहीं हो सकती. भारत में जो गिनी-चुनी शिक्षित महिलाएं हैं, उन्हें पश्चिमी ऊंचाइयों से नीचे उतरकर देश के मैदानों में आना होगा. उनकी उपेक्षा के लिए निश्चय ही पुरुष जिम्मेदार हैं. उन्होंने महिलाओं को अनुचित इस्तेमाल किया है, किन्तु जो महिलाएं अंधविश्वासों से ऊपर उठ चुकी हैं, उन्हें सुधार के लिए रचनात्मक कार्य करने होंगे.’

अशिक्षित महिलाओं को पुरुषों के खिलाफ विद्रोह करने की दी नसीहत

गांधीजी के मुताबिक, ‘शिक्षा ऐसी होनी चाहिए, जो लड़के-लड़कियों को खुद के प्रति अधिक उत्तरदायी बना सके और एक-दूसरे के प्रति अधिक सम्मान की भावना पैदा कर सके. महिलाओं के लिए ऐसा कोई कारण नहीं है कि वे अपने आप को पुरुषों का गुलाम अथवा पुरुषों से घटिया समझें. उनकी अलग पहचान नहीं है, बल्कि एक ही सत्ता है. अत: महिलाओं को सलाह है कि वे सभी अवांछित और अनुचित दबावों के खिलाफ विद्रोह करें, इस तरह के विद्रोह से कोई क्षति होने की आशा नहीं है. इससे तर्कसंगत प्रतिरोध होगा और पवित्रता आयेगी.’

ग्रामीण शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए की गयी ग्राम स्वराज की स्थापना

गांधीजी केवल अंग्रेजी दासता से ही मुक्ति नहीं चाहते थे, बल्कि वे मनुष्य का मनुष्य के द्वारा शोषण की हर संभावना को ही खत्म कर देना चाहते थे. इसके लिए बालक-बालिकाओं का ग्रामीण स्तर तक शिक्षित होना जरूरी था. इसके लिए वे ग्राम स्वराज की स्थापना करना चाहते थे. इस प्रकार महात्मा गांधी शिक्षा के द्वारा न केवल व्यक्ति बल्कि समाज एवं राष्ट्र की सभी बुराइयों को समाप्त करना चाहते थे. अपने शिक्षा-सिद्धांत के अनुरूप ही महात्मा गांधी ने बुनियादी शिक्षा के पाठ्यक्रम का निर्माण किया. बच्चे, समाज और देश की आवश्यकता को देखते हुए उन्होंने क्रियाशील पाठ्यक्रम का निर्माण किया.

बालक-बालिकाओं में परमात्मा का होता है निवास

गांधीजी हर बालक-बालिका में परमात्मा का निवास मानते थे. सभी बालकों की आत्मा समान है, किन्तु व्यक्तित्व में भिन्नता हो सकती है. गांधीजी 14वर्ष तक के उम्र के सभी बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा देने के पक्ष मे थे. वे शिक्षा को बच्चों का मूलभूत अधिकार मानते थे. गांधीजी की दृष्टि में सुचारू रूप से अध्ययन करने के लिए पवित्र जीवन आवश्यक है. वे छात्रों को संबोधित करते कहा था, ‘तुम्हारी शिक्षा सर्वथा बेकार है, यदि उसका निर्माण सत्य और पवित्रता की नींव पर नहीं हुआ है. यदि तुम अपने जीवन की पवित्रता के बारे में सतर्क नहीं हुए तो सब व्यर्थ है, चाहे तुम महान विद्वान ही क्यों न हो जाओ.’ अब अगर हम उनके शिक्षा सिद्धांत और आधुनिक शिक्षा की तुलना करेंगे, तो यह साफ हो जायेगा कि क्या आज देश में गांधी के बताये रास्तों के अनुरूप बालक-बालिकाओं को शिक्षित किया जा रहा है?

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