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कांग्रेस के लिए बड़ा झटका

इससे यह इंगित होता है कि कांग्रेस के भीतर जो युवा नेता हैं और जिनके राजनीतिक जीवन के तीन-चार दशक बचे हुए हैं, वे कांग्रेस के भीतर अपने लिये दरवाजे बंद होता देख रहे हैं.

स्वतंत्र भारत के इतिहास में कांग्रेस ने बहुत उतार-चढ़ाव देखा है. कांग्रेस हो या अन्य पार्टियां, वे हारती हैं, जीतती हैं, यह सब राजनीति में चलता रहता है. लेकिन इस समय ज्योतिरादित्य सिंधिया का कांग्रेस छोड़ना एक मील का पत्थर जैसा क्षण है. मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार के गिरने की स्थिति पैदा हो गयी है, बल्कि यह लगभग तय ही है बशर्ते कोई नाटकीय बदलाव न हो.

राज्य सरकार अल्पमत में जाती दिख रही है और भाजपा कर्नाटक की तर्ज पर बागी विधायकों को इस्तीफा दिलाकर अपनी सरकार बनाने की कोशिश करेगी. हिंदीपट्टी में इतने बड़े राज्य में डेढ़ दशक बाद हाथ आयी सरकार को गंवा देना कांग्रेस के लिए बहुत बड़ी क्षति है. अपने सबसे खराब दिनों में तीन हिंदीभाषी राज्यों में सत्ता पाना कांग्रेस के लिए बेहद उत्साहवर्द्धक था, पर उसमें एक राज्य का निकल जाना निश्चित ही बड़ा झटका है.

इससे पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के हौसलों पर नकारात्मक असर होगा. जहां तक भाजपा का सवाल है, उसके लिए यह बड़े राहत की घटना है क्योंकि अनेक वजहों से उसके दिन भी बहुत अच्छे नहीं चल रहे थे. अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर लगातार निराशाजनक संकेत आ रहे हैं, बेरोजगारी बढ़ती जा रही है, कोरोना वायरस ने नयी मुश्किलें पैदा कर दी हैं, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दौरे के समय दिल्ली में दंगे हुए, जिससे देश और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर झटका लगा. ऐसी स्थिति में एक बड़े राज्य की सत्ता हाथ में आने से भाजपा के हौसले को मजबूती मिलेगी. इससे भाजपा राज्यसभा में भी अपनी स्थिति बेहतर कर सकेगी और भविष्य में उसके लिए विधेयकों को पारित करा पाना अपेक्षाकृत आसान हो जायेगा.

ज्योतिरादित्य सिंधिया कोई छोटे नेता नहीं हैं. वे करीब दो दशक से सक्रिय राजनीति में हैं. अपने पिता माधवराव सिंधिया की तरह ये भी कांग्रेस नेतृत्व और गांधी परिवार के बहुत नजदीक रहे थे. कांग्रेसनीत सरकार में मंत्री रहने के साथ वे पार्टी में भी अहम पदों पर रहे थे.

वे कांग्रेस की अगली पीढ़ी के नेताओं में सचिन पायलट के साथ सबसे अग्रणी थे. हमने जब भी आम लोगों से पूछा है कि राहुल गांधी नहीं, तो और कौन कांग्रेस की बागडोर संभाल सकता है, तब यही जवाब मिला है कि सचिन पायलट और सिंधिया क्यों नहीं नेता बन सकते हैं. वे राहुल गांधी के करीबी भी थे और उन्हें राहुल कहकर संबोधित कर सकते थे.

याद करें, जब राहुल गांधी ने लोकसभा में एक बार अपने भाषण के बाद प्रधानमंत्री को गले लगा लिया था और वापस अपनी जगह पर आकर सिंधिया को आंख मारी थी. इससे दोनों की परस्पर निकटता का अंदाजा लगाया जा सकता है. सिंधिया ने कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को संबोधित अपने पत्र में कहा है कि आपको तो पता ही है कि यह सब एक साल से चल रहा था. अब ऐसी खबरें भी आ रही हैं कि वे एक साल से राहुल गांधी से मिलने की कोशिश कर रहे थे, पर उन्हें मुलाकात का समय नहीं मिल पा रहा था.

ये खबरें कितनी सही हैं, कितनी गलत, यह कह पाना मुश्किल है, लेकिन सिंधिया तो एक फोन कर राहुल गांधी से मिल सकते थे. उनका कांग्रेस छोड़ना इसलिए मील का पत्थर है क्योंकि इससे यह इंगित होता है कि कांग्रेस के भीतर जो युवा नेता हैं और जिनके राजनीतिक जीवन के तीन-चार दशक बचे हुए हैं, वे कांग्रेस के भीतर अपने लिये दरवाजे बंद होता देख रहे हैं. मतलब यह कि अब वे कांग्रेस में अपना भविष्य नहीं देख पा रहे हैं.

सिंधिया के लिए यह निर्णय लेना आसान नहीं रहा होगा. उन्होंने एक साल का समय भी लिया यह तय करने में. ऐसे में यह सवाल उठता है कि सालभर कांग्रेस आलाकमान ने कोई कोशिश क्यों नहीं की. इसका एक मतलब यह है कि आलाकमान का नियंत्रण कमजोर पड़ा है और क्षेत्रीय नेता अपनी मर्जी से फैसले कर रहे हैं. विधानसभा चुनाव में सिंधिया ने बहुत मेहनत की थी और उन्हें मुख्यमंत्री बनने की उम्मीद थी, जो नहीं हो सका. लेकिन उन्हें कोई तो महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिलनी ही चाहिए थी. उनकी सियासी हैसियत है और उनके पीछे अच्छी संख्या में विधायक हैं. उन्हें राज्य में कांग्रेस की कमान तो दी ही जा सकती थी.

आज जो राज्यसभा में उन्हें भाजपा भेज रही है, यह तो कांग्रेस भी कर ही सकती थी. ऐसे नेता को हाशिये पर डालने का कोई तुक नहीं था. इसका एक मतलब यह भी है और जो कांग्रेस के लिए बड़ी चिंता का कारण होना चाहिए कि पार्टी नेतृत्व निष्क्रिय हो चुका है और वह निर्णय नहीं ले पा रहा है. सोनिया गांधी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है और उन्हें मजबूरी में अंतरिम अध्यक्ष के रूप में काम करना पड़ रहा है क्योंकि वह जिम्मेदारी कोई ले नहीं रहा है.

वे चाहती हैं कि राहुल गांधी दुबारा अध्यक्ष बने, लेकिन राहुल गांधी अध्यक्ष बनने से पहले यह गारंटी चाहते हैं कि उन्हें काम करने की पूरी आजादी मिलेगी. कुछ दिन पहले कुछ सांसदों ने उनसे मुलाकात की थी और पार्टी की कमान लेने का आग्रह किया था. तब उन्होंने सांसदों के सामने यही बात कही थी कि उन्हें पूरा अधिकार मिलेगा, तभी वे यह जिम्मेदारी लेंगे. उन्हें यह मंजूर नहीं है कि चेहरा तो उनका होगा, लेकिन पार्टी के फैसले वरिष्ठ नेतागण लेंगे.

सोनिया गांधी की पुरानी टीम ही उनके पास है और वे अपने स्वास्थ्य के कारण कितना नजर रख पा रही हैं, यह कह पाना मुश्किल है. ऐसे में पार्टी बिना नेतृत्व के चल रही है, जबकि उसके सामने चुनौतियां भी हैं तथा अपनी राजनीतिक जमीन पाने के मौके भी. भाजपा अपने मुख्य एजेंडे को लगातार लागू करती जा रही है.

परंतु मोदी सरकार अनेक मोर्चों पर असफलताओं का भी सामना कर रही है. इस स्थिति में कांग्रेस के पास मुद्दों की कमी नहीं है. पर वह कुछ कर नहीं पा रही है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर वही मुख्य विपक्षी पार्टी है. अभी भी लोग उसे भारत की सबसे पुरानी पार्टी मानते हैं. उसे ही विपक्ष की भूमिका निभानी है.

क्षेत्रीय पार्टियां एक सीमा तक ही ऐसा कर सकती हैं. राज्यों में भी कांग्रेस को जगह मिल रही है और भाजपा को अक्सर हार का या अपनी ताकत में कमी का सामना करना पड़ रहा है. देश में राजनीतिक जगह तो है ही, जिसे कांग्रेस ले सकती है. अब कांग्रेस के सामने जिंदा होने और नेताओं को पार्टी से अलग होने को रोकने के लिए केंद्रीय कार्यसमिति का चुनाव कराना चाहिए और निर्वाचित नेताओं द्वारा अध्यक्ष का चुनाव होना चाहिए.

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