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मांय माटी : आदिवासियत का समूहगान है ‘अघोषित उलगुलान’

‘अघोषित उलगुलान’ काव्य संग्रह को कवि ने पुरखों के गीतों को समर्पित किया है, जिनमें जंगल की लय के लिए कुर्बानी की कथाएं हैं. इस काव्य संग्रह के बीज शब्द हैं– गीत संवाद और सहजीविता.

सावित्री बड़ाईक : हिंदी कविता में आदिवासियत को वैचारिक अवधारणा के रूप में प्रतिष्ठित करने के साथ अपनी सशक्त कविताओं के द्वारा सहजीवी सभ्यता का विकल्प प्रस्तुत करने वाले कवि अनुज लुगुन का बहुप्रतीक्षित काव्य संग्रह है ‘अघोषित उलगुलान’. यह राजकमल प्रकाशन से साल 2023 में प्रकाशित हुआ है. सहजीविता व स्वायत्तता के पक्षधर कवि अनुज अपनी कविताओं में इतिहास-दृष्टि की परिपक्वता, संपूर्ण सृष्टि की बेहतरी की स्वप्नशीलता, परिवेश की प्रति संवेदनशीलता, संवादपरकता के लिये जाने जाते हैं. अनुज मानते हैं कि आदिवासी कविताओं का उलगुलान वस्तुत: परंपरा और इतिहास की तहों में मौजूद प्रभु वर्ग, विजेता वर्ग के सांस्कृतिक उपनिवेशीकरण, वर्तमान सत्ता-संरचना, सभ्यता की हिंसा के विरुद्ध सहजीवी पहल है. ‘अघोषित उलगुलान’ काव्य संग्रह को कवि ने पुरखों के गीतों को समर्पित किया है, जिनमें जंगल की लय के लिए कुर्बानी की कथाएं हैं. इस काव्य संग्रह के बीज शब्द हैं– गीत संवाद और सहजीविता. दरअसल, संवाद और प्रेम को सहजीविता के लिय अनिवार्य माना जाता है. गीतों के द्वारा संवाद स्थापित करने की आदिपरंपरा है. मुंडा आदिवासियों के द्वारा संघर्ष, प्रेम, प्रकृति, सहजीविता के गीत गाये जाते रहे हैं, जिनमें संवाद भी होते हैं.

‘अघोषित उलगुलान’ की कविताएं दो तरह की दुनिया को उजागर करने वाली चेतनासंपन्न कविताएं हैं. एक ओर लाभ, लूट, लालच और अतिशय की आकांक्षा वाली दुनिया है, दूसरी तरफ है संतोषपूर्वक जीवन यापन करने वाला, गीत गाने वाला, धरती का सिंगार बचाने वाला, अपने परिवेश के प्रति सजग व संवेदनशील रहने वाला आनंद-उल्लास में जीने वाला सहजीवी समाज. आदिवासी, वंचित समुदाय, पूंजीपतियों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं, क्योंकि बहुराष्ट्रीय कंपनियां, जल, जंगल, जमीन पर कब्जा करना चाहते हैं जबकि आदिवासी इनपर सिर्फ इंसानों का नहीं बल्कि संपूर्ण जीव-जगत का सामूहिक अधिकार मानते हैं.

‘एकलव्य से संवाद’ कवि अनुज की प्रारंभिक कविताओं में से है. यह सशक्त कविता है. इसके माध्यम से अनुज आदिवासियों के इतिहास, उनके धनुर्विद्या की दक्षता और उनके प्रतिरोध, संघर्ष के ऐतिहासिक पक्ष को सामने रखते हैं. मदरा मुंडा, कांडे हड़म, बिरसा मुंडा की तीरंदाजी में कुशलता को मुंडाओं के स्वायत्तता से जोड़ते हैं. आदिवासी धरती की आदि-पाठशाला में गीति:ओड़ा, घोटुल, आदि ज्ञान केंद्रों में प्रकृति और वरिष्ठों से देशज ज्ञान परंपरा को प्राप्त करते रहे हैं. अत: वे किसी व्यक्ति को गुरु न मानकर प्रकृति के उपादान यथा शेर, बाघ, हिरण, बरहा और वृक्ष की छाल के प्रति आभारी हैं – जिनसे उन्होंने तीरंदाजी में दक्षता प्राप्त की – ‘अब जब भी तुम आना/तीरधनुष के साथ ही आना–/हां, किसी द्रोण को अपना गुरु न मानना/वह छल करता है.’

अघोषित उलगुलान कवि अनुज लुगुन की बेहद सशक्त कविता है, जो जल, जंगल, जमीन की स्वायत्तता के संघर्ष के लिये समूहगान है– ‘लड़ रहे हैं ये/नक्शे में घटते अपने घनत्व के खिलाफ/जनगणना में घटती संख्या के खिलाफ/गुफाओं की तरह टूटती/अपनी ही जिजीविषा के खिलाफ.‘

‘अघोषित उलगुलान‘ कविता संग्रह की कविताओं में संवाद की आदि-परंपरा मौजूद है. आदिवासी संघर्ष, प्रतिरोध को कभी छोड़ते नहीं हैं, बल्कि प्रतिरोध की संस्कृति से ताकत पाते हैं. वे प्रतिदिन के संघर्ष के बावजूद परंपरा और इतिहास से निरंतर संवाद करते रहे हैं. संवादपरकता को ‘एकलव्य से संवाद’, ‘तीतर-अस्कल संवाद‘ और ‘मार्क्स-बिरसा संवाद‘ कविता में बखूबी देखा जा सकता है.

अनुज अपनी कविताओं के द्वारा नवपूंजीवाद के दौर की चुनौतियों को समझते हुए सर्तकता के साथ आत्मालोचन करते हैं, आत्मसंघर्ष करते हैं. सहधर्मियों की खोज, सहजीवी समाज का निर्माण कवि का वृहत् उद्देश्य है, जो उनकी कविता को महत्वपूर्ण बनाता है – ‘हे तीतर! अब तो उलगुलान ही रास्ता है/हे अस्कल! अब तो हूल ही उपाय है/उलगुलान के लिए सहचरों की खोज करो/हूल के लिए साथियों का जुटान करो.’ वैकल्पिक सहजीवी सभ्यता के लिये आदिवासियों के संघर्ष, प्रतिरोध के सहयात्रियों के रूप में बुद्धिजीवियों और दूरदर्शी लोगों को साथ आना होगा, महाजुटान करना होगा. इस सुंदर धरती को बचाने के लिये पूंजीवादी लूट और अतिशय मुनाफाखोरी का विरोध करना होगा.

संघर्ष का रास्ता अपनाकर ही वस्तुस्थिति में परिवर्तन लाया जा सकता है. बिरसा मुंडा ने संघर्ष, आंदोलन, उलगुलान का नेतृत्व किया जिसके चलते छोटानागपुर काश्तकारी कानून बना, जिसमें आदिवासियों के जमीनों की सुरक्षा हो पायी है. आदिवासी परंपरा और इतिहास से निरंतर संवाद करते रहते हैं. ‘मार्क्स-बिरसा संवाद‘ इसी भावभूमि की कविता है. मार्क्स और बिरसा का संवाद दरअसल मार्क्सवाद और आदिवासियत को स्पष्ट करने वाली बेहतरीन कविता है. ‘मार्क्स-बिरसा संवाद‘ कविता में जंगलों, आदिवासियों, अखड़ा, मांदल, घोटुल, सहजीविता के बारे में मार्क्स, एंगेल्स और धरती आबा के बीच संवाद है.

अनुज ‘अघोषित उलगुलान’ की कई कविताओं में अपने अनुभव, अपनी स्मृतियों, अपने परिवेश के साथ इतिहास बोध, आदिवासी जीवन संस्कृति से बिंबों और प्रतीकों का चयन करते हैं. आदिवासी संघर्ष को सत्ता द्वारा दबाने के प्रयास का प्रतीक है गंगाराम कलुंडिया. एकलव्य, झानु बुआ, दांडु, रोबड़ा सोरेन भी प्रतीकात्मक चरित्र हैं, जो कवि की काव्य व्यंजना को धारदार बनाते हैं.

आदिवासियत, सहजीविता और प्रतिरोध के स्वरों के साथ प्रेम और स्त्री विषयक कविता के लिये भी अनुज का काव्य संग्रह महत्वपूर्ण है– ’उन्होंने अपने जुड़े में /खोंस रखा है साहस का फूल/कानों में उम्मीद को बालियों की तरह पिरोया है …. धरती से प्यार करने वालों के लिये/उतनी ही खूबसूरत/और उतनी ही खतरनाक/धरती के दुश्मनों के लिये.’

कवि अनुज अपने हिंदी कविताओं में आदिवासी सौंदर्य के नये प्रतिमान गढ़ते हैं. दरअसल मुंडारी में एक गीत है– ‘सेन्देरा कोड़ा कोआ कपि जिलिब–जिलिबा’ जिसका आशय है – ‘वे मुंडा सुंदर दिखते हैं, जिनके हाथों में फरसे चमकते हैं‘, वे आदिवासी स्त्रियां सुंदर हैं, जो जल, जंगल, जमीन की सुरक्षा के लिये घरों से निकलकर धरना, प्रदर्शन करती है. पूंजीवादी व्यवस्था और सत्ता के क्रूर चेहरे के सामने निडर होकर खड़ी रहती हैं.

कथित मुख्य धारा के कविता के प्रतिमानों को अनुज खुलकर खारिज करते हैं – ‘कि उन्हीं के यहां हैं/संसार के सारे आदर्श और सुंदर प्रतिमान.‘ जल, जंगल, जमीन और जीवन के लिए संघर्ष करने वाले और स्वशासन व स्वायत्तता के लिये उलगुलान करने वाले आदिवासियों की कविता को आभिजात्य सौंदर्यबोध के आधार पर नहीं समझा जा सकता. दूसरों के श्रम पर निर्भर रहने वाले आभिजात्य वर्ग ने अपनी कविताओं के लिए श्रेष्ठता के जो पैमाने निर्धारित किये हैं, वे आदिवासी कविता पर लागू नहीं हो सकते– ‘कैसे में लाऊं कविता में शिल्प, सोष्ठव और सौंदर्य ……. ?’ वाक्य में रस, आनंद उसी वर्ग को मिलेगा जो मोक्ष की खोज करता है और यथास्थिति को स्वीकार करते हुए संघर्ष, आंदोलन से दूर रहता है. वस्तुत: आदिवासी कविता के प्रतिमान, आदिवासी सौंदर्यबोध की दृष्टि से भी कवि अनुज लुगुन का ‘अघोषित उलगुलान’ काव्य-संग्रह महत्वपूर्ण है.

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