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आलोचना से ऊपर उठे विपक्ष

विश्वनाथ सचदेव वरिष्ठ पत्रकार यदि उत्तर प्रदेश देश का ‘दिल’ है, तो निस्संदेह भाजपा ने उसे जीत लिया है. भाजपा की यह ऐतिहासिक जीत देश की मौजूदा राजनीति में आये परिवर्तन का परिणाम भी है और उसका दर्पण भी. यह स्पष्ट है कि भाजपा की चुनावी नीति और रणनीति पूरी तरह सफल रही है. इसके […]

विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
यदि उत्तर प्रदेश देश का ‘दिल’ है, तो निस्संदेह भाजपा ने उसे जीत लिया है. भाजपा की यह ऐतिहासिक जीत देश की मौजूदा राजनीति में आये परिवर्तन का परिणाम भी है और उसका दर्पण भी. यह स्पष्ट है कि भाजपा की चुनावी नीति और रणनीति पूरी तरह सफल रही है. इसके लिए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री दोनों यश के अधिकारी हैं. सारे अनुमानों को झुठलाते हुए भाजपा ने उत्तर प्रदेश में धमाकेदार जीत हासिल की है, जिसके परिणाम स्वरूप केंद्र में भी भाजपा सरकार मजबूत हुई है. प्रधानमंत्री मोदी अब एक ऐसा केंद्र बन गये हैं, जिसके इर्द-गिर्द देश की राजनीति घूमेगी. बावजूद इसके कि पांच राज्यों में हुए चुनावों में, विशेषकर उत्तर प्रदेश में, प्रधानमंत्री का चुनाव-प्रसार सर्वाधिक प्रभावी और सफल रहा, यह भी सच है कि समूचा चुनाव-प्रचार उतना शालीन नहीं रहा, जितना दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र में होना चाहिए था. विडंबना यह है कि कोई भी पक्ष इसमें पीछे नहीं दिखना चाहता था.
यहां यह भी समझना होगा कि चुनाव सिर्फ उत्तर प्रदेश में नहीं हुए हैं- देश के चार अन्य राज्यों में भी हुए हैं.और उत्तराखंड को छोड़ कर बाकी तीन राज्यों में भाजपा को वैसी सफलता नहीं मिली, जैसी वह चाहती थी. पंजाब में तो अकाली-भाजपा गंठबंधन का लगभग वही हाल हुआ है, जो उत्तर प्रदेश में सपा और कांग्रेस के गंठबंधन का हुआ है. पंजाब में कांग्रेस दो-तिहाई बहुमत लेने में सफल रही है. इसके साथ ही मणिपुर और गोवा में कांग्रेस सबसे बड़ा दल बन कर सामने आयी है, लेकिन यह विडंबना ही है कि दोनों राज्यों में सबसे बड़ा दल होने के बावजूद कांग्रेस के हाथ से अवसर छीन लिया गया. भाजपा का दावा है कि इन दोनों राज्यों में उसे बहुमत प्राप्त है, लेकिन जनतांत्रिक परंपरा का तकाजा था कि राज्यपाल इन दोनों राज्यों में पहले कांग्रेस को सरकार बनाने का अवसर देते.
भाजपा यह कह कर अपनी करनी का बचाव नहीं कर सकती कि कांग्रेस को राज्यपालों के समक्ष अपना दावा रखना चाहिए था. ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ के अभियान की सफलता के लिए, लगता है, भाजपा ‘कुछ भी’ करने के लिए तैयार है.
इस ‘कुछ भी’ में वह रणनीति शामिल है, जो भाजपा ने इन पांच राज्यों के चुनाव में अपनायी है. यह नीति है किसी भी कीमत पर जीत की. जाति के आधार पर सामाजिक समीकरणों को बनाने-बिगाड़ने में भाजपा को कुछ गलत नहीं लगा; ध्रुवीकरण की राजनीति का जो खेल उत्तर प्रदेश में हुआ, उसे भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए. एक भी मुसलमान को उत्तर प्रदेश में टिकट न देने की भाजपा की नीति के बचाव में भले ही कोई भी तर्क दिया जा रहा हो, इसका राजनीतिक निहितार्थ समझना मुश्किल नहीं है. भाजपा ने स्पष्ट कर दिया है कि उसे मुसलिम वोटों की परवाह नहीं है. इस बात को ध्रुवीकरण के संदर्भ में ही समझा जा सकता है. उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा के विद्रोहियों ने भाजपा का दामन थामा और भाजपा कह रही है कि ये लोग मत-परिवर्तन और मन-परिवर्तन करके आये हैं!
इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री की ताकत बढ़ी है. उनके प्रशंसक तो इसे प्रधानमंत्री की ही जीत मान रहे हैं. यह गलत भी नहीं है. लेकिन, बाकी कारणों के अलावा ‘सत्ता-विरोधी लहर’ की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. चुनाव-परिणामों के आकलन में इस तथ्य की अपेक्षा नहीं होनी चाहिए. विशेषकर इस संदर्भ में भी कि इन परिणामों में अगले आम चुनावों की संभावनाओं को तलाशा जा रहा है. यह सही है कि 2019 के चुनावों पर इन परिणामों का असर पड़ सकता है, लेकिन सही यह भी है कि तब मतदाता मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के पांच सालों के काम और कारनामों का लेखा-जोखा भी करेगा. तब प्रधानमंत्री यह नहीं कह सकेंगे कि पचास साल तक देश को बरबाद करनेवाले पांच साल का हिसाब मांग रहे हैं.
यदि विपक्ष की स्थिति वैसी ही बनी रही, जैसी आज है, तो हिसाब मांगनेवाला थोड़ा नरम पड़ सकता है. कांग्रेस देश का प्रमुख विपक्षी दल है, इसलिए यह दायित्व भी इस पर है कि वह खुद को सत्ता-विरोधी लहर का लाभ उठाने के लायक बनाये. इस समय कांग्रेस की स्थिति, पंजाब की जीत के बावजूद, दयनीय है. क्षेत्रीय दलों से भी मतदाता का मोह टूटता जा रहा है. बिहार के चुनावों से जो उम्मीद बंधी थीं, वह उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा की हालत को देखते हुए बिखर रही है. आशाएं तो आम आदमी पार्टी से भी बंधी थीं, पर उसका वर्तमान उसके भविष्य के प्रति कोई उत्साह नहीं जगाता.
भाजपा के लिए यह भरोसा जगानेवाली बात है कि आज मोदी के जैसा कोई नेता अखिल भारतीय छवि वाला नहीं दिख रहा. यह समय की मांग है कि विपक्ष में कोई वैकल्पिक नेतृत्व उभरे.
यह भी जरूरी है कि सिर्फ भाजपा की आलोचना से विपक्ष ऊपरउठे. मतदाता को सकारात्मक विकल्प दिखना चाहिए. पांच राज्यों के इन चुनावों में विपक्ष ने प्रधानमंत्री की आलोचना को सबसे बड़ा हथियार बनाया. लेकिन, मतदाता को यह बताने में विपक्ष विफल रहा कि सही क्या है? न वह वैकल्पिक नेतृत्व दे पाया, न वैकल्पिक कार्यक्रम. ऐसे में जुमलेबाजी का महत्व बढ़ना स्वाभाविक होता है.

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